दोष रघुराम राजन के चश्मे में है


article on raghuram rajan statement on farmers loan

 

रघुराम राजन पहली बार तब चर्चित हुए जब 2007-08 में अमेरिका से शुरू हुई आर्थिक मंदी सारी दुनिया पर छा गई. कारण यह था कि मंदी आने की आशंका उन्होंने उस समय जता दी थी, जब दुनिया-भर के नव-उदारवादी अर्थशास्त्री bubble economy के महिमामंडन में लगे हुए थे.

आम समझ है कि इसी अर्थव्यवस्था की वजह से ये संकट आया. फिर राजन को तब भारत सरकार के आर्थिक सलाहकार की जिम्मेदारी सौंपी गई, जब इस मंदी के कारण भारत की आर्थिक वृद्धि दर (जीडीपी विकास) केंद्रित आर्थिक नीतियां संकट-ग्रस्त हो गई थीं. इस संकट से उबरने में राजन की सलाह बहुत काम आई, इसका कोई सबूत नहीं है. बहरहाल, तत्कालीन यूपीए सरकार ने सितंबर 2013 में राजन को भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बना दिया. इस पद पर रहते हुए राजन ने स्वायत्त निर्णय लिए. जिन दो सरकारों के कार्यकाल में उन्होंने काम किया, उनके किसी दबाव में आते वे नहीं दिखे. इससे भी उनकी व्यक्तिगत साख ऊंची हुई.

इसके बावजूद उनकी जो नायक जैसी छवि बनी, उसकी वजह सिर्फ यही नहीं है. इस समय हम एक ध्रुवीकृत दौर में हैं. इस ध्रुवीकरण में नरेंद्र मोदी एक विभाजक शख्सियत हैं. उनके समर्थकों (जिन्हें भक्त भी कहा जाता है) की भारी जमात है. दूसरी तरफ उनके विरोधियों की जमात है. इस दौर में जिसे भी मोदी सरकार पसंद नहीं करती या जिनको मोदी सरकार के हाथों पीड़ित या उपेक्षित माना जाता है, अथवा जो तीखी भाषा में वर्तमान सत्ताधारियों पर हमले करते हैं- वे दूसरे खेमे में नायक की हैसियत पा लेते हैं. इस परिघटना का लाभ रघुराम राजन को भी मिला, जब उनकी इच्छा के बावजूद मोदी सरकार ने उन्हें रिजर्व बैंक के गवर्नर के रूप में नया कार्यकाल नहीं दिया.

जब हम राजन के सुझाए किसी आर्थिक (या अन्य) नुस्खे की बात करें, तो इस पृष्ठभूमि को जरूर ध्यान में रखना चाहिए. इसलिए कि इन कारणों से मोदी विरोधी जमात में फिलहाल उन्हें आलोचना से परे माना जाता है. उनकी हर बात को गंभीरता से लिया जाता है, तो उसके पीछे एक वजह यह भी है.

इस तरफ ध्यान खींचने के बाद अब हम राजन के कृषि ऋण संबंधी ताजा सुझाव पर आते हैं. गौरतलब यह है कि यहां राजन सिर्फ सुझाव देने तक सीमित नहीं रहे हैं. बल्कि उन्होंने बाकायदा भारतीय निर्वाचन आयोग को इस बारे में पत्र भी लिखा है. कहा है कि कृषि कर्ज़ माफी का वादा चुनाव घोषणापत्रों का हिस्सा नहीं होना चाहिए. उनकी राय है कि ऐसे उपाय का फायदा अक्सर वो लोग उठा ले जाते हैं, जिनकी पहुंच ज्यादा होती है. दूसरी तरफ इससे राजकोषीय सेहत के लिए गंभीर समस्याएं खड़ी होती हैं. इससे निवेश के रास्ते में रुकावट आती है.

(राजन के मुताबिक उनके सहित 13 अर्थशास्त्रियों ने मिलकर आर्थिक रणनीति का एक खाका तैयार किया है. मकसद सार्वजनिक बहस छेड़ना है ताकि भारत में अगले पांच साल के लिए उन “आर्थिक सुधारों” पर सहमति बन सके, जिनकी “जरूरत” है. इन अर्थशास्त्रियों ने ये पहल 2019 के आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए की है.)

तो यह साफ है कि कृषि कर्ज के बारे में दिया गया सुझाव एक व्यापक “रणनीति” का हिस्सा है, जिसे ये अर्थशास्त्री देश के लिए जरूरी मानते हैं. अगर बात सुझाव तक सीमित रहती, तो इस चर्चा को विभिन्न विचारधारा के अर्थशास्त्रियों की आपसी बहस के लिए छोड़ा जा सकता था. लेकिन राजन ने निर्वाचन आयोग को पत्र लिखकर खुद इसे एक सियासी रंग दे दिया है. इसके मद्देनजर इस पहल का सीधा मतलब (या मकसद) राजनीतिक विमर्श को संकुचित करने की मंशा समझा जा सकता है. इसका यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि राजन (और उनके साथी अर्थशास्त्री) खुद के सही होने की भावना से इस तरह ग्रस्त हैं कि वो दूसरी राय को प्रतिबंधित करने (या कराने) की बात खुलेआम कर रहे हैं.

राजनीतिक दल क्या वादे करें या नहीं करें, इसे कोई संस्था (भले ही वह संवैधानिक हो) तय करे, यह सोच ही सिरे से लोकतंत्र विरोधी है. यह जनता के विवेक पर अविश्वास जताने जैसा भी है, जिसके नाम पर लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं वैधता प्राप्त करती हैं. अगर बड़े संदर्भ में देखें तो रघुराम राजन (और उनके साथी अर्थशास्त्री) वही काम करते नज़र आ रहे हैं, जिसकी वजह से यूरोपीय देशों में उथल-पुथल का दौर देखने को मिल रहा है. बहरहाल, इस पहलू की चर्चा बाद में करेंगे. पहले कृषि कर्ज के मुद्दे को लेते हैं.

रघुराम राजन के नुस्खे पर मध्य प्रदेश के निर्वाचित मुख्यमंत्री कमलनाथ ने जो प्रतिक्रिया दी, वह काबिल-ए-गौर है. कमलनाथ ने कहा- “अगर रघुराम राजन गांवों को समझते हैं तो उन्हें बोलना चाहिए- अगर वे यह बता सकें कि कितने दिन उन्होंने गांवों में और खेतों में बिताए हैं. ये अर्थशास्त्री अपने कमरों में बैठे हुए जो कहते हैं, उनसे मैं विचलित होने वाला नहीं हूं. आज एक किसान कर्ज में पैदा होता है और जीवन भर इसके बोझ तले दबा रहता है. कृषि कर्ज माफी एक आवश्यकता है.”

कमलनाथ ने यह नहीं पूछा, लेकिन यह सवाल उठाया जा सकता है कि रिजर्व बैंक का गवर्नर रहते हुए राजन ने कॉरपोरेट सेक्टर की बड़ी कंपनियों पर बकाया कर्ज़ को वसूलने के लिए क्या कदम उठाया था? क्या तब उन्होंने यह नहीं कहा था कि जानबूझकर कर्ज ना लौटाने वालों और अर्थव्यवस्था संबंधी कारणों से ऋण ना चुका पा रही कंपनियों या उद्योगपतियों के बीच अंतर करना चाहिए? आज उनसे पूछा जाना चाहिए कि क्या यही तर्क किसानों के मामले में लागू नहीं होना चाहिए? मौसम की मार या सरकार की नीतियों की वजह से जो किसान कर्ज नहीं चुका पा रहे हों, आखिर उनकी ऋण माफी क्यों नहीं होनी चाहिए?

लेकिन राजन और उनके जैसे अर्थशास्त्रियों को ये आम बात ग्रहण नहीं होती. इसलिए कि उनका मानस नव-उदरवादी विचारधारा में इतना ढला हुआ है कि वे किसी दूसरे विकल्प को नहीं देख या सोच पाते. bubble economy जैसी इसी विचारधारा के अति को कभी देख या समझ लेने का मतलब यह नहीं माना जा सकता कि वैचारिक चश्मे से बाहर जाकर देखने की क्षमता ऐसे अर्थशास्त्रियों में है.

जबकि इस चश्मे ने आज दुनिया भर में लोकतंत्र के लिए भारी संकट पैदा कर दिया है. अगर ब्रसेल्स में ये चश्मा पहन कर बैठे अधिकारी ग्रीस और इटली पर वहां के जनहितों के खिलाफ जाकर अंतरराष्ट्रीय पूंजी की सत्ता थोपने की कोशिश नहीं करते, तो यूरोप में आज उग्र दक्षिणपंथ की लहर नहीं चल रही होती.

अब जानकारों में यह सहमति बनने लगी है कि अमेरिका में ट्रंप का दौर हो या ब्रेग्जिट या फिर फ्रांस में येलो वेस्ट मूवमेंट- ये सभी उन आर्थिक नीतियों का नतीजा ही हैं, जिनमें आम जन के हितों पर पूंजी के हितों को तरजीह दी गई. इन्हीं नीतियों की तहत तमाम देशों पर किफायत (austerity) के उपायों को थोपा गया, ग्रीस और इटली जैसे देशों में निर्वाचित प्रतिनिधियों को दरकिनार कर ब्रसेल्स से तय किए टेक्नोक्रेट्स के हाथों में सत्ता सौंपी गई, और आईएमएफ-वर्ल्ड बैंक के नुस्खों के तहत आर्थिक नीतियां तय करने की निर्वाचित सरकारों की संप्रभुता को संकुचित किया गया.

अब भारत में उन्हीं नीतियों या फॉर्मूले की वकालत रघुराम राजन कर रहे हैं. आज जबकि जरूरत उन आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार (बल्कि उन्हें ठुकराए जाने) की है, जिनकी वजह से 1980 के बाद से आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है, जॉबलेस ग्रोथ एक हक़ीक़त बन गया है और आमजन की बदहाली बढ़ी है, रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्री उन्हीं में देश के विकास का फॉर्मूला ढूंढ रहे हैं. लेकिन यह घिसा-पिटा या पिटा-पिटाया फॉर्मूला है, जिस पर अमल से जो “विकास” हुआ, उसके कारण देश shining और suffering India में बंटता चला गया है.

इसीलिए कमलनाथ ने रघुराम राजन के ख्यालात पर जो और जिस लहजे में टिप्पणी की, उसे सही प्रतिक्रिया माना जाएगा. दरअसल, तमाम राजनीतिक दलों से- जो जनता का हितैषी होने का दावा करते हैं- अपेक्षा है कि वे इसी हिकारत भाव से इस सुझाव को अस्वीकार कर देंगे. साथ ही वे सुनिश्चित करेंगे कि निर्वाचन आयोग को ऐसा कोई कदम ना उठाए जिसे लोकतांत्रिक विमर्श को संकुचित करने वाला या मतदाताओं के विवेक पर यकीन ना करने वाला माना जाए.


Big News