फक्कड़ मसीहा कॉमरेड एके रॉय और मीडिया


article on relation of ak roy with media

 

प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक और धनबाद संसदीय क्षेत्र से तीन बार सांसद रह चुके फक्कड़ मसीहा कॉमरेड एके रॉय को राजकीय सम्मान के साथ अलविदा कर दिया गया, जिसके वे हकदार थे. शोषित-पीड़ित जनता से सम्मान तो ताउम्र मिलता रहा. वह सम्मान इतना असरदार था कि जब रॉय दा बोलते थे तो माफियाओं की धरती डोलती थी. व्यवस्था भी हिलती-डुलती थी. पर संभलकर उनसे छत्तीस का रिश्ता बनाती थी.

सरकार और सरकारी कंपनियों विज्ञापनों के हथियार के जरिए अखबार मालिकों को सुविधानुसार इस्तेमाल और नियंत्रण करना आम बात थी. ऐसे में अखबारों की आजादी हद में रहते हुए ही थी. इसलिए रॉय दा की व्यवस्था विरोधी बातें अखबारों तक पहुचते-पहुंचते अक्सर कहीं खो जाती थी, दब जाती थी. ऐसे में रॉय दा के निधन के बाद राजकीय सम्मान के साथ ही एक और इतिहास बनते देखा. स्थानीय अखबारों ने पन्ने रंग दिए. दूसरी तरफ तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों ने उनके निधन की खबर को भरसक अधिक से अधिक जगह देने की कोशिश की. साथ ही राजनीति में उनके योगदान को सराहा. उनके त्याग-तपस्या की चर्चा की.

दिल्ली में हिंदी और अंग्रेजी के सभी नामचीन अखबारों और प्रमुख टीवी चैनलों ने एके रॉय के निधन और उनके मजदूर राजनीति में योगदान को भरपूर स्थान दिया. जी न्यूज से लेकर आजतक और न्यूज18 तक पर उनकी खबरें और स्टोरी प्रसारित की गई. पर जीते जी उनके आंदोलनों, उनके विचारों को ऐसी प्रमुखता कभी नहीं मिली थी.

दैनिक समाचार पत्रों में ‘द स्टेट्समैन’, ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ‘द हिंदू’ और बाद में चलकर जनसत्ता में उनके लेख प्रकाशित होते थे, जो उनके लेखों के एवज में पारिश्रमिक दिया करते थे. पर इन्हीं अखबारों में उनके आंदोलनों, अभियानों की खबरें शायद ही कभी होती थीं. स्थानीय अखबार उनकी विज्ञप्तियां बेहद सतर्क रहकर प्रकाशित करते थे.

सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग के मामले में केंद्र की सरकारों की जैसी नीतियां रहीं, उनको लेकर कॉमरेड एके रॉय बेहद सशंकित रहते थे. वे कहते थे कि सरकार जिस रास्ते चल रही है, वह कोयला उद्योग के निजीकरण की ओर जाता है. बेलगाम भ्रष्टाचार भी इस साजिश का हिस्सा है.

रॉय दा ने कोयला उद्योग के भ्रष्टाचार पर एक लंबा लेख लिखा था. उन्हें पूरा भरोसा था कि स्थानीय अखबारों में उसे स्थान नहीं मिलेगा. फिर भी बाहर के अखबारों के साथ ही स्थानीय अखबारों को भी लेख भेजा. उस लेख को कलकत्ता से प्रकाशित अंग्रेजी अखबार ‘द स्टेट्समैन’ में स्थान मिला. पर काफी संशोधन किया जा चुका था. स्थानीय अखबारों ने उनके लेख को बयान की तरह बेहद छोटा प्रकाशित किया गया था.

रॉय दा सार्वजनिक क्षेत्र के कोयला उद्योग में भ्रष्टाचार के मामले में अखबारों की भूमिका से बेहद निराश हुए. तब उन्होंने अपने लेख को पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कराया. उसका शीर्षक था – ‘छेद यहां है’.

इस पुस्तिका के कारण कोयला उद्योग में तहलका मच गया था. कोयला श्रमिकों में उसकी खूब मांग हुई. पर पर्याप्त धन के अभाव में ज्यादा प्रतियां प्रकाशित कराना संभव न हो सका था. मैंने उस पुस्तिका के तथ्यों के आधार पर तीन किस्तों में स्टोरी तैयार की थी. ‘जनसत्ता’ ने उसे उसी रूप में प्रकाशित कर दिया. उसी समय लोकसभा का सत्र चल रहा था.

सांसद हराधन रॉय लोकसभा में ‘जनसत्ता’ की प्रतियां लहराते हुए सरकार से जबाव चाहते थे. रॉय दा चाहते थे कि इस विषय पर संसद में बहस हो. बहस तो नहीं हुई. पर सरकार पर दबाव ऐसा बना कि खासतौर से कोयले के स्टाक में कमी के मुद्दे पर उच्चस्तरीय जांच कमेटी बना दी गई थी.

मैं एक बार जब उनके साथ बैठा था तो अखबारों की चर्चा निकल आई. उन्होंने कहा – बर्टेड रसेल ने ठीक ही लिखा था कि बुद्धिमान लोग, तथाकथित अच्छे लोग समाज को ज्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. तब मैंने बर्टेड रसेल का नाम नहीं सुना था. मैंने पूछा, ये कैसे लेखक हैं कि जिन्हें बुरे लोगों से नहीं, अच्छे लोगों से परेशानी होती दिखती है. रॉय दा ने जबाव दिया – बर्टेड रसेल अंतरराष्ट्रीय स्तर के ब्रिटिश राजनीतिज्ञ और समाजशास्त्री थे. मैं भी इस निष्कर्ष पर हूं कि उन्होंने ठीक ही लिखा था. अखबार मालिकों, कतिपय पत्रकारों के मामले में यह बात बिल्कुल फीट है. मैंने वर्षों बाद बर्टेड रसेल को पढ़ा तो जाना कि रॉय दा की बातों का भावार्थ क्या था.


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