मासूमों की जिंदगियों के लिए भी हो कोई आंदोलन


death toll rises to 66 children in muzaffarpur due to acute encephalitis syndrome

 

हर समस्या में ध्रुवीकरण और राजनीतिक हित साधने के अपने खतरे हैं और इन खतरों की कीमत अक्सर देश के आम आदमी को ही चुकानी पड़ती है. ध्रुवीकरण और राजनीतिक हित साधने का यह खतरा जब देश की राजनीतिक मुख्यधारा बन जाता है तो हर समस्या में तिकड़म और ध्रुवीकरण करके जीत के गुर सीख लेता है.

अब यही गुर डाक्टरों के साथ एक मारपीट की घटना को सौ से अधिक बच्चों की लाशों से भी बड़ी खबर बना लेने और जन स्वास्थ्य सेवाओं की भारी विफलता को एक सफल राजनीतिक आंदोलन से दबा देने की महारथ के रूप में देश के सामने है. बेशक जूनियर डाक्टर्स के साथ मारपीट की घटना मामले से ठीक से निपट पाने में ममता सरकार की विफलता से इंकार नही किया जा सकता है परंतु इस आंदोलन को देशव्यापी बनाने के पीछे के राजनीतिक हितों को भी अनदेखा करना मुश्किल है. लेकिन तथाकथित आंदोलनकारी यह राजनीति गोरखपुर से लेकर मुजफ्फरपुर तक सैंकड़ों बच्चों की मौत पर आंदोलन खड़ा करने की कोई जरूरत नहीं समझती है. केवल एक राज्य की मुख्यमंत्री को देश के सामने खलनायिका सिद्ध करने का औजार भर बनती है.

दरअसल, यह आंदोलन मुजफ्फरपुर के सौ से अधिक मासूम बच्चों की मौत से लोगों का ध्यान हटाने और लगातार जन स्वास्थ्य सेवाओं की भयावह विफलता पर पर्दा डालने की कोशिश के रूप में अधिक देखा जाना चाहिए. यदि देश के चिकित्सिकों का यह तथाकथित गैर राजनीतिक आंदोलन खबरों में नहीं होता तो शर्तिया देश के सभी समाचार माध्यमों के पास मुजफ्फरपुर के सौ से अधिक बच्चों की मौत पर विलाप करने और बिहार और केन्द्र सरकार पर सवालिया निशान खड़े करने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. बहरहाल, कोलकाता के डाक्टरों के साथ मारपीट की घटना कोई पहली घटना नहीं है देश के सभी हिस्सों में इस प्रकार की घटनाएं लगतार घटती रही हैं और इस घटना पर राजनीति करने वाली ताकतें इस घटना और ऐसी सभी घटनाओं को फिर से अपनी राजनीति की सुविधानुसार कानून का मामला बताकर इस पर सख्त कानून बनाने की चर्चाओं को गर्मा रही है.

हालांकि यह कोई सख्त या नया कानून बनाने का नहीं, देश की पूरी जन स्वास्थ्य सेवाओं पर नए सिरे से विचार करने का और उसमें ढांचागत बदलाव करने का है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आदर्श मानकों को माने तो देश में प्रत्येक एक हजार लोगों पर एक डॉक्टर की आवश्यकता है लेकिन क्या भारत का कोई भी राज्य इस आदर्श मानक पर खरा उतरता है. नहीं, यहां तक कि देश की राजधानी तक भी इस मानक से दूर है. यहां तक कि मौजूदा सरकार ने गत वर्षों में इस आदर्श को हासिल करने की जुगत में आयुर्वेदिक चिकित्सकों अर्थात आयुष चिकित्सिकों को शामिल किया परंतु फिर भी हम इस मानक पर खरे नहीं उतर पाए.

यदि बात करें एलोपैथिक डॉक्टर्स की तो हम इस आदर्श मानक से ना केवल दूर हैं बल्कि हमारी स्थिति बेहद चिंताजनक है. यदि हम नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के आंकड़ों को लें तो देशभर में 11082 लोगों पर एक ही डॉक्टर उपलब्ध है. वहीं राज्यवार देखें तो बिहार यहां सबसे भयवाह हालात में हैं और 28391 लोगों के उपर एक ही डॉक्टर उपलब्ध है. वहीं उसके पड़ोसी राज्य यूपी के हालात भी कम चिंताजनक नहीं हैं. वहां 19962 लोगों पर महज एक डॉक्टर उपलब्ध है. झारखंड में 18518 पर एक, मध्य प्रदेश में 16996 पर एक, छत्तीसगढ़ 15916 पर एक, कर्नाटक में 13556 पर एक डॉक्टर उपलब्ध है.

चिकित्सिकों की भारी कमी विशेषकर सरकारी अस्पतालों में, मरीजों और चिकित्सकों को एक खास तरह के निराशाजनक और हताशा से भरे माहौल में काम करते हुए हमेशा एक खास तरह के दबाव में काम करने और लगातार जोखिमपूर्ण माहौल में जीने को विवश कर देती है. इसके अलावा हाल ही के सालों में स्वास्थ्य सेवाओं के तेज होते निजीकरण ने भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के प्रति एक नए अविश्वास के माहौल को जन्म दिया है. इस कारण पूरे समाज में डॉक्टरों के सम्मानित पेशे के प्रति लोगों की सोच बदली है या कहें तो चिकित्सकों की छवि बदली है. अब उनकी छवि सेवा करने वाले पेशेवर की नहीं बल्कि मुनाफे के लिए काम करने वाले व्यवसायिक पेशेवर की बनी है. जिस कारण से मरीजों और उसके साथ आने वाले तीमारदारों में हमेशा चिकित्सकों को लेकर एक अविश्वास बना रहता है. जो किसी भी छोटी सी चूक अथवा शंका को चिकित्सकों पर हमले में बदल देती है.

देश में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था में आए गुणात्मक बदलावों ने लागों के नजरिए को बदला है. वैसे देखें तो देश स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था का इतिहास साढ़े तीन हजार साल से भी पुराना है. ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक संभवतया दुनिया के पहले ऐसे शासक थे जिन्होंने अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने हेतु प्रशिक्षित चिकित्सक तैयार करने के लिए विद्यालयों की स्थापना की. इस रूप में भारत दुनिया में पहला देश था जिसने अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था कायम की. लेकिन वर्तमान समय में दुनिया में विकास राग गाते हुए घूमने और दुनिया की एक महाशक्ति बनने का दंभ भरने वाले देष के नेतृत्व की उपलब्धियां यदि स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में देखें तो इस क्षेत्र में लगातार विफलता ही उसकी एकमात्र उपलब्धि कही जाएगी.

मुक्त बाजार व्यवस्था के इस दौर में जब अर्थव्यवस्था के विकास की तेज गति के दावे किए जा रहे हैं तो यह भी इस विकास की विडम्बना ही कही जाएगी कि विश्व पटल पर भारतीय स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था भयावह अराजकता एवं अव्यवस्था का शिकार बनती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देष में नौ लाख से भी अधिक लोग हर साल पानी से पैदा होने वाले रोगों के कारण मौत का शिकार होते हैं. वहीं देश के बच्चों की आधी आबादी कुपोषण का शिकार है जिसमें से लगभग 56 लाख प्रतिवर्ष मौत का ग्रास बनते हैं और यह दुनिया में कुपोषण से होने वाली मौतों का आधा हिस्सा है. पांच लाख लोग हर वर्ष तपेदिक का शिकार होकर मारे जाते हैं. एक लाख माताएं हर साल प्रसव के समय मौत का शिकार होती हैं. पांच करोड़ अस्सी लाख मधुमेह के रोगियों के साथ भारत मधुमेह की विश्व राजधानी बनने की ओर अग्रसर है.

मलेरिया, हैजा और डेंगू जैसी महामारियों से मरने वाले लोगों की संख्या भी काफी बड़ी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार जहां देश में बीस से तीस लाख लोग एड्स जैसी महामारी का शिकार हैं वही 2005 की एक रिपोर्ट कहती है कि 52 से 57 लाख लोग एचआईवी वायरस से पीड़ित थे.

विकास के तमाम दावों के बावजूद यदि भारत आने वाले दिनों में समस्त विश्व पटल पर रोगियों की राजधानी के रूप में उभरकर आए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. दरअसल यह लचर स्वास्थ्य सेवाओं और आरोप प्रत्यारोप की विषेशज्ञ सरकार की बदली हुई राजनीतिक प्राथमिकताओं का परिणाम है.

आजादी के फौरन बाद देशवासियों के लिए एक बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की बात की गई एवं उस दिशा में काम की शुरुआत भी हुई. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र, जिला अस्पताल और राज्य स्तर के स्वास्थ्य संस्थानों के नेटवर्क रूपी एक तर्कसंगत रेफरल व्यवस्था स्थापित करने के साथ बेहतर काम की शुरुआत हुई. तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने इस व्यवस्था के तहत् स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में काफी हद तक सफलता भी पाई. मगर साठ का दशक आते आते सरकारी प्रोत्साहन से निजी क्षेत्र ने अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू किया और नब्बे के दशक तक पंहुचते सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगभग निष्क्रिय हो गई.

हालांकि पिछली सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति बनाकर और स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर होने वाले खर्च को तीन प्रतिशत करने की बात तो कही मगर स्थिति जस की तस ही बनी हुई है. तमाम दावों और आश्वासनों के बाद भी पिछले बजट में स्वास्थ्य सेवाओं पर महज 0.9 प्रतिशत ही खर्च का प्रावधान था. जहां दुनिया की विकसित अर्थव्यवस्थाएं अपनी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा खर्च करती हैं वही सकल घरेलू उत्पाद की उंची वृद्धि दर का दावा करने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था का खर्च नियोजित,गैर नियोजित, सार्वजनिक, निजी, राज्य और केन्द्र सभी मिलाकर जीडीपी का पांच प्रतिशत से भी कम है. जबकि अमेरिका अपने सकल घरेलू उत्पाद का सोलह प्रतिशत, फ्रांस ग्यारह प्रतिशत, जर्मनी 10.4 प्रतिशत खर्च करते हैं.

हालांकि स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था सेवा क्षेत्र की राजस्व देने वाली पहली सबसे बड़ी और शिक्षा के बाद रोजगार मुहैया कराने वाला दूसरा सबसे बड़ा सेवा क्षेत्र है. परन्तु निगमीकृत विकास के इस दौर में सरकार की चिंता देश के नागरिकों के स्वास्थ्य से अधिक बड़े निगमों के मुनाफे की अधिक है. इसीलिए एक कारगर और बेहतर स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को निष्क्रिय होने पर सरकार की खामोशी उसकी बदनीयती और वर्ग चरित्र को जाहिर करती है.

डेढ दशक पहले तक एक अनुमान के अनुसार देश में स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसाय 360 करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष का था और एक अनुमान के अनुसार 2022 तक इसके 37200 करोड़ हो जाने की आशा है. परन्तु 360 करोड़ डॉलर के इस व्यवसाय में सरकार की भागेदारी महज उन्नीस प्रतिशत थी और जो लगातार घटती ही जा रही है. दरअसल सरकार उदारवादी आर्थिक नीतियों पर चलते हुए कल्याण राज्य की स्थापित अवधारणा से दूर हट चुकी है, अब स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था उसके लिए राजस्व देने वाले एक व्यवसाय से अधिक कुछ नहीं है. अब शिक्षा हो या स्वास्थ्य बेहतर सुविधा वही पाएगा जिसके पास चुकाने के लिए उसकी कीमत होगी.

नब्बे के दशक के बाद स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था लगातार सरकार के इसी दृष्टिकोण के कारण स्वास्थ्य सेवाएं जहां अव्यवस्थित एवं लचर हो रही थी तो वहीं मौजूदा दौर में यह निजी क्षेत्र की बीमा कंपनियों की तिजोरी भरने का माध्यम बनती जा रही हैं और इस अव्यवस्था की कीमत देश की गरीब आबादी को चुकानी पड़ रही है. लेकिन अब समय आ चुका है जब आंदोलन किसी एक घटना के राजनीतिक इस्तेमाल की अपेक्षा लाखों बेगुनाह मौतों पर रोक लगाने के लिए किया जाए. मुजफ्फरपुर और गोरखपुर के मासूमों की मौत पर रोक लगाने के लिए आंदोलन किया जाए.


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