तीन तलाक ही देश की महिलाओं के साथ न्याय का असली सवाल?
देश में नरेन्द्र मोदी नीत बीजेपी की एनडीए सरकार मुस्लिम महिलाओं और तीन तलाक के सवाल पर बेहद चिंतित जान पड़ती है. सरकार इस पूरे मसले को ऐसे पेश कर रही है कि मानो मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक का मसला ही देश की महिलाओं के न्याय और समानता का असली सवाल है. अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट के तीन तलाक को अवैध करार देने के बाद से ये मुद्दा बीजेपी के लिए पूरी तरह से एक वैधानिक राजनीतिक मसला बन चुका है.
हालांकि भारतीय महिलाओं के दर्द की दास्तान केवल मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक तक ही सीमित नहीं है. यदि हम जनगणना के आंकड़ों के हवाले से देश में महिलाओं की स्थिति पर नजर डाले तो आंकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं.
आकड़े बताते हैं कि तीन तलाक तो छोड़िए ऐसे दसियों तलाकों से भी अधिक दर्दनाक स्थिति है जिन्हें पुरुषों ने बिना कोई कारण बताए और बगैर किसी कारण के ही छोड़ दिया है. 2011 की जनगणना के मुताबिक 23 लाख महिलाएं ऐसी हैं, जिन्हें बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है. इनमें सबसे ज्यादा संख्या हिंदू महिलाओं की है. देश में करीब 20 लाख ऐसी हिंदू महिलाएं हैं, जिन्हें परिवार और समाज से अलग कर दिया गया है और बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है. वहीं, मुस्लिमों में ये संख्या 2 लाख 8 हजार, ईसाइयों में 90 हजार और दूसरे अन्य धर्मों की 80 हजार महिलाएं हैं. ये महिलाएं बिना पति के रहने को मजबूर हैं.
दर्दनाक हैं ये आंकड़े
अगर बिना तलाक के अलग कर दी गईं और छोड़ी गई औरतों की संख्या का औसत देखें, तो हिंदुओं में 0.69 फीसदी, ईसाई में 1.19 फीसदी, 0.67 मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यों (जैन, सिख, पारसी, बौद्ध) में 0.68 फीसदी है. इस तरह से देखा जाए तो मुस्लिमों में बिना तलाक की छोड़ी गई महिलाएं दूसरे धर्म की तुलना में कम है. भारत में तलाकशुदा औरतों की संख्या भी दस लाख के करीब है, जिन्हें सामाजिक और सरकारी मदद की जरूरत है. इतना ही नहीं, अलग की गई और छोड़ी गई महिलाओं का मुद्दा भी तीन तलाक के मुद्दे से कहीं ज्यादा गंभीर है.
पिछली जनगणना के मुताबिक भारत में कुल 23 लाख अलग की गई (परित्यक्ता) औरतें हैं, जो कि तलाकशुदा औरतों की संख्या के दोगुने से ज्यादा है. 20 लाख ऐसी हिंदू महिलाएं हैं, जिन्हें अलग कर दिया गया है या छोड़ दिया गया है. मुस्लिमों के लिए यह संख्या 2.8 लाख, ईसाइयों के लिए 90 हजार, और दूसरे धर्मों के लिए 80 हजार है. ससुराल वाले उनके पक्ष में इसलिए नहीं आते, क्योंकि उनके बेटे ने उसे छोड़ दिया है और मायके में उनकी अनदेखी इसलिए होती है क्योंकि परंपरागत तौर पर उन्हें पराया धन समझा जाता है, जिसकी जिम्मेदारी किसी और की है. वे फिर से शादी या परिवार शुरू नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें कानूनी तरीके से तलाक नहीं दिया गया है. इनमें से ज्यादातर सामाजिक और आर्थिक तौर पर बेहद कठिन परिस्थितियों में अपना जीवन गुजार रही हैं. साथ ही उनका दूसरों द्वारा शोषण का खतरा भी बना रहता है. वे अपने पति के साथ रहना चाहती हैं, बस उनके बुलाने भर का इंतजार कर रही हैं.
जो भी लोग तीन तलाक का भुलावा देकर मुस्लिम महिलाओं की हालत सुधारने की कोशिश कर रहे हैं, उन्हें देश की 24 लाख छोड़ दी गई औरतों की तकलीफों की भी जानकारी होनी चाहिए. इसके अलावा देश की 4.3 करोड़ विधवा महिलाओं की भी चिंता करनी चाहिए. उन्हें पुनर्विवाह करने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए या उन्हें उनका जीवन चलाने के लिए योजनागत वित्तीय मदद मुहैया कराने की ओर ध्यान लगाना चाहिए.
हिंदू महिलाओं के सशक्तिकरण का विरोध
वास्तव में भारतीय हिंदू समाज में इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं की दुर्दशा का कारण सामाजिक और सांस्कृतिक अधिक है. यदि हम पौराणिक हिंदू ग्रंथों को देखें तो उसमें आपको कोई तलाक जैसा प्रावधान कहीं नहीं मिलेगा. इसका कारण सामाजिक और सांस्कृतिक है. असल में पूरी दुनिया के अधिकतर धर्म जहां विवाह को एक सामाजिक समझौता मानते हैं तो वहीं भारतीय हिंदू समाज के लिए स्त्री और पुरूष का वैवाहिक संबंध जन्म-जन्मांतर का होता है और इसका निर्णय समाज नहीं बल्कि ऊपर परलोक में ही होता है. अब जिस संबंध का निर्धारण परलोक में होता है तो जाहिर है कि उसे धरती पर तो किसी कानून से बदला नहीं जा सकता है.
यही कारण है कि भारत का संविधान तैयार होने के समय हिंदू कोड बिल और उसमें महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए किए गए प्रावधानों का डटकर विरोध किया गया था. हिंदू कोड बिल में तलाक का प्रावधान था तो वहीं महिलाओं को पैतृक संपति में अधिकार हासिल था. इसके अलावा देश में पहली बार बहुविवाह की प्रथा पर रोक और उसे गैर कानूनी बनाने का प्रावधान भी डॉक्टर अबेंडकर ने किया था. जिसका आरएसएस और उसके संगठनों ने डटकर विरोध किया था. आरएसएस और उससे जुड़े हुए संगठन हिंदू कोड बिल के विरोध में सड़कों पर उतरे और हिंदू कोड बिल को संविधान के साथ लागू नहीं होने दिया गया.
हिंदू कोड बिल के प्रावधानों बहुविवाह को गैर कानूनी घोषित करने और महिलाओं को तलाक, संपत्ति में अधिकार के खिलाफ मार्च 1948 में एक एंटी हिंदू कोड बिल कमिटी का गठन किया गया. इस कमिटी का मानना था कि किसी को भी हिंदू समाज के पर्सनल मामलों में दखल देने का अधिकार नहीं है. आज जो तर्क मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड दे रहा है एंटी हिंदू कोड बिल के तर्क उससे कई गुणा आगे और हास्यास्पद थे. अपनी मर्जी से शादी करने और तलाक के अधिकार और पैतृक संपत्ति में महिला की हिस्सेदारी को हिंदू विरोधी बताया गया.
यह लड़ाई केवल तर्कों तक ही नहीं थी बल्कि आरएसएस ने इसे मैदान में भी साकार किया. जिसके लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में 11 दिसंबर 1949 को एक जनसभा का आयोजन किया गया. आरएसएस के नेताओं ने एक के बाद एक अपने भाषणों में हिंदू कोड बिल का विरोध किया. संघ और उसके सहयोगी नेताओं ने मनु और याज्ञवल्क्य के बनाए गए विधान को अक्षुण्ण और अपरिवर्तनीय बताया और उसे बचाने के लिए देश में सैंकड़ों जनसभाओं का आयोजन किया गया. पूरे देश में घूम घूमकर संघ और उसके संगठनों ने हिंदू कोड बिल में महिलाओं को सशक्त करने वाले प्रावधानों को चुनौती दी.
बीजेपी के आदर्श नेता और बीजेपी और संघ के एक प्रेरणा स्रोत श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस लड़ाई के एक अहम हिस्सा थे और ना केवल श्यामा प्रसाद मुखर्जी बल्कि हाल ही तक बीजेपी की राजनीति के जीवंत आदर्श रहे अटल बिहारी वाजपेयी भी इस महिला सशक्तिकरण विरोधी लड़ाई में पीछे नहीं थे. 1949 के उस दौर में अटल बिहारी वाजपेयी संघ से जुड़े हुए अखबार पांचजन्य के संपादक थे और यदि आप दिसंबर 1949 के उनके अखबार में छपे आलेखों के शीर्षकों को पढ़े तो हिंदू महिला सशक्तिकरण विरोध में अटल की भूमिका और उनके मानस को समझ सकते हैं. उनके अखबार के आलेखों के शीर्षक काफी रोचक थे जिसमें वो कहते हैं, “यह कोड बिल दांपत्य संबंधों पर कुठाराघात है. यह वैवाहिक संस्था को तोड़ने वाला बिल है.”
30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या के बाद बापू की हत्या पर मिठाई बांटने वाले लोग हिंदू कोड बिल के विरोध में बापू के नाम का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूके. पांचजन्य ने अपने एक अंक में हिंदू कोड बिल विशेषकर तलाक का विरोध करते हुए लिखा था, “बापू ने भी कभी तलाक पर कुछ नहीं कहा” अर्थात वह भी यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में थे. ध्यान रहे बापू की हत्या के बाद संघ पर रोक के साथ ही ऑर्गेनाइजर के प्रकाशन पर भी रोक लगा दी गई थी. संघ से जुड़े समाचार पत्रों ने अपने विरोध में उन्होंने केवल हिंदू कोड बिल को ही निशाना नहीं बनाया बल्कि पूरे संविधान को निशाना बनाया और कहा कि डॉक्टर अंबेडकर का तैयार किया गया “संविधान अंग्रेजी बैंड पर डांस जैसा है” और नवनिर्मित संविधान और कुछ नहीं “भानुमति का पिटारा भर है.”
यहां तक इन ब्राह्मणवादी ताकतों ने साफ कहा कि हमारे दिलों में मनु बसे हैं और मनुस्मृति हमारा दंड विधान है. हम मनु और याज्ञवल्क्य के होते किसी अंग्रेजी संविधान को नहीं मान सकते हैं. ध्यान रहे भारतीय संविधान और महिलाओं को मिलने वाले अधिकारों का ऐसा विरोध करने वाले अखबार के संपादक अटल बिहारी वाजपेयी थे. इसके अलावा संघ से जुड़े हुए दूसरे समाचार पत्र ऑर्गेनाइजर ने भी इसी प्रकार से हिंदू कोड बिल और संविधान का विरोध किया यहां तक कि तिरंगे को भी खारिज करते हुए अपने अखबार के मुखपृष्ठ पर भगवा झंडे के समर्थन में द्विभाषी आलेख और संपादकीय छापा और शीर्षक दिया हमारा ध्वज (अवर फ्लेग). इस आलेख में तिरंगे को खारिज करते हुए भगवा तिकोने ध्वज को ही अपना राष्ट्रीय ध्वज बताया गया था. हिंदू महिलाओं के अधिकारों का विरोध करने वाली वही राजनीति और ब्राह्मणवादी संस्कृति आज मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के नाम पर जान देने के लिए तैयार है.
दरअसल संघ और उससे जुड़े हुए सभी संगठन और लोग बुनियादी तौर पर महिला सशक्तिकरण के विरोधी हैं आज मौका मिलते ही उन्होंने महिला सशक्तिकरण के सवाल को हिंदू मुसलमान में बांटकर रख दिया है. उनका मुस्लिम महिलाओं के प्रति प्रेम केवल उनकी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति का हिस्सा ही है और कुछ नहीं. बहुविवाह प्रथा को गैर- कानूनी बनाए जाने पर कोहराम मचाने वाला और महिलाओं को तलाक का अधिकार अथवा संपत्ति में अधिकार मिलने पर हिंदू धर्म को और अपने संस्कृति को खतरे में बताने वाला संघ इस सवाल पर राजनीति करके देश में यह संदेश देना चाहता है कि मुस्लिम महिला विरोधी हैं और हम महिला अधिकारों के वकील हैं. जबकि सच तो यह है कि औरतों को सती होने और जौहर को महिमामंडित करने वाले नेता कैसे महिला सशक्तिकरण के पैरोकार हो सकते हैं.