चुनावी मौसम में निर्भया हेल्पलाइन 181 की हेल्प कौन करेगा?


article on women helpline service 181 in delhi

 

देश की राजधानी दिल्ली में दिसम्बर 2012 में निर्भया कांड हुआ था. मुल्क को शर्मसार करने वाले इस कांड ने जनता में उबाल ला दिया था. बड़ी संख्या में लोग खासकर युवा सड़कों पर उतर आए थे. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवाओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था.

दिन ही नहीं रात को भी जब हजारों विद्यार्थी (इस मुहिम में उन्होंने शिक्षकों, कर्मचारियों और आम जनमानस को भी जोड़ लिया था या यूं कहिए वे संवेदनशीलता का परिचय देते हुए अपने से जुड़ते चले गए थे) मोमबत्तियां लेकर परिसर से बाहर निकले तो मीडिया के जरिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पटल पर निर्भया कांड की गूंज सुनाई दी.

मामले की गंभीरता देखते हुए डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली तत्कालीन यूपीए सरकार और दिल्ली की शीला दीक्षित के नेतृत्व वाली सरकार ने भविष्य में इस तरह की घटनाओं से बचा जा सके, इसके लिए अनेक कदम उठाए थे. इन्हीं कदमों में से एक कदम निर्भया के नाम पर शुरू की गई 181 दिल्ली महिला हेल्पलाइन थी. राजधानी में महिलाओं की सुरक्षा और किसी भी संकट में सहायता पहुंचाने को ध्यान में रखकर 31 दिसम्बर 2012 को दिल्ली सचिवालय में इस हेल्पलाइन की नींव पड़ी थी.

शीला दीक्षित सरकार ने दर्जनों महिलाओं में से 17 अनुभवजन्य महिलाओं को इस हेल्पलाइन के संचालन के लिए चुना था. महिलाओं की यह टीम दिल्ली के साथ-साथ पूरे एनसीआर इलाके में पीड़ित महिलाओं को सहायता उपलब्ध कराने लगी. इतना ही नहीं एनसीआर से निकलकर वह दूसरे राज्यों तक पहुंचने लगी. चंद दिनों में शीला सरकार का यह प्रयोग सफल होता दिखा.

दिल्ली सचिवालय में तृतीय तल पर मुख्यमंत्री दफ्तर के सामने कमरा नंबर 301 से संचालित हो रही हेल्पलाइन में खुद मुख्यमंत्री शीला दीक्षित रुचि दिखाती रहीं. हेल्पलाइन में हर रोज 1500 से 2000 तक कॉल्स आने लगीं.

लेकिन साल 2013 में हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद आप सरकार (आप और कांग्रेस की गठबंधन सरकार) के आते ही हेल्पलाइन में हस्तक्षेप किए जाने लगे. हेल्पलाइन में काम कर रही महिलाओं की तीन महीने की तनख्वाह रोक दी गई. कुछ समय बाद इसे सामान्य प्रशासन विभाग से महिला और बाल विकास विभाग को सौंप दिया गया. नित नए प्रयोगों के बावजूद महिलाएं काम करती रहीं और पीड़ित महिलाओं को मदद मुहैया कराती रहीं.

गठबंधन सरकार का गठबंधन ज्यादा दिन नहीं टिका, लिहाजा दिल्ली में मध्यावधि विधानसभा चुनाव हुए तो विराट बहुमत लेकर अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की सरकार बनाई. नई सरकार के बनते ही हेल्पलाइन में एक बार फिर प्रयोग होने लगे. इसी प्रयोग के तहत उसे दिल्ली महिला आयोग के हवाले कर दिया गया. नए नेतृत्व ने महिला कर्मचारियों की अनेक सुविधाओं पर ब्रेक लगा दिया. हेल्पलाइन को कॉल सेंटर में बदलने का खेल किया जाने लगा.

एक दिन फरमान सुनाया गया कि नारायणा इण्डस्ट्रीज एरिया में केयरटेल कंपनी के ऑफिस में जाकर काम होगा. यानी हेल्पलाइन को एक निजी कंपनी को सौंप दिया गया. कहा गया कि अगर वहां जाने से किसी को ऐतराज है तो वह घर बैठ सकता है. वैसे जॉब स्टेटस के बारे में बताया गया कि उसमें किसी तरह का बदलाव नहीं आएगा. हालांकि उनका यह कहना गलत था. बावजूद महिलाओं ने उनकी बात पर यकीन किया.

अगले दिन वो सब केयरटेल पहुंचीं, जहां उनकी सेफ्टी का बंदोबस्त नहीं था. बाथरूम में कुंडी तक नहीं थी. कंपनी में पूरा स्टाफ पुरुषों का था. काम शुरू किया तो सीआरएम (ऑपरेटिंग सिस्टम) पर केस सेव नहीं हो रहे थे.

पुरुष स्टाफ की उपस्थिति में पीड़िता से बात करने व केस डिस्कस करने में असुविधा हो रही थी. हर तरह की परेशानियों से लड़कर आगे बढ़ने वाली महिलाओं को कार्यस्थल पर भी अनेक बार अनुचित व्यवहार झेलना पड़ता है. ऑक्सफेम इंडिया का सर्वे बताता है कि भारत में 17 फीसदी महिलाएं कार्यस्थल पर यौन शोषण का शिकार होती हैं.

इसी बीच 25 मार्च को केयरटेल के नुमाइंदों ने हेल्पलाइन की कर्मचारियों के साथ मीटिंग की, जिसमें बताया गया कि आप सभी का पुराना जॉब स्टेटस बदल जाएगा. सभी को महिला आयोग से इस्तीफा देकर केयरटेल में नए सिरे से ज्वाइन करना होगा. यहां सीनियर-जूनियर कुछ नहीं होगा. सभी का स्टेटस कॉलर का होगा. किसी भी प्रकार की छुट्टी नहीं होगी, जो पहले से मेडिकल या मैटरनिटी लीव पर हैं, उनकी जॉब नहीं रहेगी. कैब सुविधा भी नहीं मिलेगी.

ये फरमान सुनने के बाद हेल्पलाइन की महिलाओं के पैरों के नीचे से मानो जमीन खिसक गई. उन्होंने मशविरा किया और विरोध के रास्ते पर चलना तय किया. उसी विरोध के परिणाम स्वरूप वह 26 मार्च को दिल्ली सचिवालय पहुंची. हेल्पलाइन ठप होने पर भी आयोग के जिम्मेदारों ने उनसे मिलना उचित नहीं समझा. मजबूरन वह गेट नंबर 6 के सामने सड़क पर धरने पर बैठ गईं.

अपने साथ हुए इस व्यवहार की जानकारी मुख्यमंत्री और आयोग अध्यक्ष को मेल के जरिए दी. इसी के साथ अपनी मांगें रखीं, लेकिन आज दस दिन बाद भी मुख्यमंत्री को इन महिलाओं से मिलने की फुरसत नहीं मिली. हालांकि आयोग के सदस्य सचिव ने उनके प्रतिनिधि मंडल को मिलने के लिए बुलाया तो वहां भी दो टूक कह दिया गया कि आयोग अब इस हेल्पलाइन को नहीं चला सकता, इसलिए इसे केयरटेल के हवाले कर दिया गया है. अब वहीं काम करना होगा. इसका विरोध करते हुए तब से महिलाएं आंदोलनरत हैं. लेकिन महिला सुरक्षा के नाम पर सत्ता में आए मुख्यमंत्री केजरीवाल इन महिलाओं से मिलना नहीं चाहते. वह चुनावी रैलियों में व्यस्त हैं.

एक तरफ हेल्पलाइन की महिलाओं की पीड़ा है तो दूसरी तरफ केजरीवाल का चुनावी रैलियों में किए जा रहे महिला सुरक्षा के बड़े-बड़े दावे. सवाल उठता है कि जिस हेल्पलाइन के जरिए दिल्ली और एनसीआर की महिलाओं को सुरक्षा का एक आधार मुहैया कराया गया, उसे संचालित करने वाली महिलाओं से मिलकर समस्या का समाधान करने के बजाए वो महिला सुरक्षा के मसले पर सिर्फ राजनीति कर रहे हैं.

असल में महिलाओं की सुरक्षा अथवा महिला संबंधी विषय किसी भी राजनीतिक दल के एजेंडे में नहीं हैं. इसकी बानगी इस चुनावी बेला में भी देखने को मिल रही है. कांग्रेस का घोषणापत्र जारी हो गया है जिसने वादा किया है कि अगर वह सरकार में आती है तो विधानसभाओं और संसद में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा, लेकिन चार अप्रैल तक घोषित किए गए 344 उम्मीदवारों में से महज 47 महिलाओं (13.7 प्रतिशत) को उसने टिकट दिया है. बीजेपी ने 374 प्रत्याशियों में से महज 45 महिलाओं (12 प्रतिशत) पर विश्वास जताया है. हां, तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल ने अवश्य बड़ा कदम उठाया है. तृणमूल ने जहां 42 में से 14 महिलाओं (40.5 प्रतिशत) तो बीजू जनता दल ने 19 में से सात (36.8 प्रतिशत) पर भरोसा जताया है. इसके अलावा सभी क्षेत्रीय दल दो से तीन फीसदी ही महिलाओं पर भरोसा जता रहे हैं. अनेक दल ऐसे भी हैं जिनका इस पर भी विश्वास नहीं है.

राजनीतिक दलों की महिलाओं को टिकट देने में दिख रही कोताही बताती है कि जिस तरह से पिछली लोकसभा में हर 10 पुरुष सांसद पर महज एक महिला सांसद थी लगभग वही रवैया सत्रहवीं लोकसभा में भी देखने को मिलेगा. दलों का यह रवैया बताता है कि जिस तरह से केजरीवाल महिलाओं के मसले पर संवेदनशील नहीं दिखते लगभग वही हालत सभी दलों की है. यहां कांग्रेस की आलोचना करने से पहले यह जान लेना होगा कि निर्भया कांड के समय जिस कांग्रेस को सबसे अधिक कोसा गया उसी ने वर्मा कमेटी का गठन ही नहीं किया बल्कि उसकी सिफारिशों को लागू किया. उसी कांग्रेस की दिल्ली सरकार ने 181 जैसी हेल्पलाइन को आकार दिया, जिसका अस्तित्व आज खतरे में है.

मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल एक तरफ कहते हैं कि मोदी सरकार उनको काम नहीं करने देती है. यह बात उन्होंने एक अप्रैल को कैंट में सभा को संबोधित करते हुए भी कही कि “हमारे हर काम में केंद्र सरकार अड़ंगा लगा रही है. स्कूल, अस्पताल और सीसीटीवी कैमरे की फाइलों को रोका गया था. आप सरकार ने लड़-लड़ के काम करवाए हैं….भूखे रहकर कब तक सरकार चलेगी. लड़ते नहीं तो चार साल में ये बेहतरीन काम नहीं होता….केंद्र सरकार पूरा पैसा दे तो दिल्ली को सिंगापुर से बेहतर बनाया जा सकता है.”

केजरीवाल को कौन समझाए कि मोदी उनको जब पूरा पैसा देंगे तो उसे सिंगापुर अवश्य बनाएं, लेकिन फिलहाल भविष्य के उसी सिंगापुर में हेल्पलाइन की महिलाओं की पीड़ा सुनने और उन्हें उनके अधिकार देने से उन्हें किसने रोका है? उन महिलाओं को वह क्यों एक निजी कंपनी के हाथों सौंपने पर आमादा हैं?

हेल्पलाइन का क्यों निजीकरण किया जा रहा है. वह भी उस कंपनी के हाथों, जिसका महिला मसलों को लेकर कोई काम नहीं है. ऐसा फैसला लेने से पहले आयोग ने उन महिलाओं को नोटिस तक नहीं दिया. इसी आयोग के नेतृत्व में पिछले दिनों महिलाओं की सुरक्षा को लेकर महिला सुरक्षा यात्रा निकली थी, जिसमें तेजाब हमले की शिकार महिलाओं की पीड़ा और जद्दोजहद दिखी थी.

तेरह दिन की सुरक्षा यात्रा में शामिल महिलाओं ने रोजाना करीब तीस किलोमीटर का सफर तय करते हुए दिल्ली की सड़कों और गलियों तक अपनी पीड़ा लोगों से साझा की. महिला शोषण से जुड़े मामलों में यह सबसे प्रभावी बदलाव है. इसका असर अब सामाजिक-पारिवारिक परिवेश में भी देखने को मिल रहा है.

असल में देखा जाए तो बदलाव की यह शुरुआत निर्भया कांड के बाद सामने आई है. समाज के इस सकारात्मक सहयोग ने निर्भया के परिजनों का भी मनोबल बढ़ाया. लोग आक्रोशित हो सड़कों पर उतरे, निर्भया पर सवाल उठाने के लिए नहीं बल्कि आरोपियों को सजा दिलवाने के लिए. लेकिन उसी निर्भया हेल्पलाइन को बचाने और उसे संचालित करने वाली महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए लोग सामने नहीं आ रहे. निर्भया कांड को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने वाले मीडिया की भूमिका भी कठघरे में है.

चार अप्रैल को विभिन्न शहरों में महिलाओं ने अपनी मांगों को लेकर जब मार्च निकाला तो इन महिलाओं को उम्मीद थी कि उनकी मांगों को मीडिया उठाएगा. दिल्ली में मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक जुलूस निकला. ये महिलाएं उसमें शामिल भी हुईं, लेकिन इनकी आवाज दबी रह गई. फिलहाल इस चुनावी बेला में हेल्पलाइन की इन महिलाओं को इंतजार है कि उन्हें कब हेल्प मिलेगी?


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