जनादेश के पहलू
सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन ने विशाल जीत हासिल की है. इसके साथ ही वे तमाम अनुमान धूमिल हो गए, जिनमें 2014 में बीजेपी को एंटी इन्कबेंसी का नुकसान होने का अंदेशा जताया गया था. अब ये स्पष्ट है कि देश के मतदाताओं के बहुमत ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में फिर भरोसा जताया है.
बहरहाल, ये सवाल अब भी प्रासंगिक है कि क्या ये आम चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा गया और क्या यह समान धरातल पर लड़ा गया? यह नहीं भूला जा सकता कि इस आम चुनाव के दौरान निर्वाचन आयोग समेत तमाम संवैधानिक संस्थाओं की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठे. चुनाव आयोग मतगणना से एक दिन पहले तक ईवीएम को लेकर कायम शंकाओं का निवारण नहीं कर सका. नरेंद्र मोदी समेत सत्ताधारी पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा आचार-संहिता के कथित घोर उल्लंघन के मामलों में उसने कभी भी तत्परता से कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति नहीं दिखाई. जब संवैधानिक संस्थाएं अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लें, तो लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुचिता और पारदर्शिता पर संदेह स्वयं गहरा जाते हैं. यह कहने का मतलब बीजेपी की जीत पर संदेह जताना नहीं है. इस तरफ इंगित करने का मतलब यह है कि ऐसी संस्थाओं के ऐसे आचरण से स्वच्छ जनादेश भी लांछित हो जाता है.
इसमें संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी बहुत मजबूत स्थिति में चुनाव मैदान में उतरी थी. कारपोरेट मीडिया, उद्योग जगत और देश के प्रभुत्वशाली तबकों की मदद उसे हासिल थी. इसके साथ 2014 वाला राजनीतिक कथानक कहीं अधिक आक्रामक ढंग से मतदाताओं के सामने रखने मेंवो सफल हुई. बालाकोट हमले की पृष्ठभूमि में बने “राष्ट्रवाद” के मुहावरे को उसने खुलकर प्रचारित किया. चुनाव रुझानों से साफ है कि उसके इस मुहावरे को मतदाताओं ने हाथों-हाथ लिया. इसके बहाने बीजेपी बहुत हद तक बढ़ती बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था की खस्ताहाल हालत और जमीनी मुद्दों से ध्यान भटकाने में सफल रही है.
कांग्रेस ने ‘न्याय’ और ऐसी ही जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिए जो सोशल-डेमोक्रेट मॉडल खड़ा करने की कोशिश की, वह मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर सका. नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के चारों ओर औद्योगिक जगत और कारपोरेट मीडिया की मदद से बनाए गए आभामंडल ने निश्चित ही इस चुनाव में भी अपनी निर्णायक भूमिका निभाई है. इन चुनाव नतीजों का एक अफसोसजनक पहलू यह है कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक विमर्श की शर्तें उत्तरोत्तर भावनात्मक मुद्दों से तय हो रही हैं. बहरहाल, इस रूप में अपना नैरैटिव रखने में बीजेपी ने सफलता हासिल की है, और अब देश की बागडोर पांच साल के एक ऩए कार्यकाल के लिए उसके पास है.