क्या बिहार में शराबबंदी गरीब विरोधी है?
बिहार में शराबबंदी लागू हुए करीब तीन साल हो चुके हैं. इस फैेसले को लेकर शुरुआत में मिलीजुली प्रतिक्रियाएं थीं. मगर आज यह आम धारणा बन गई है कि गरीबों की भलाई के नाम पर लिया गया यह फैसला मोटे तौर पर न केवल असफल है बल्कि यह एक गरीब विरोधी फैसला साबित हो रहा है. शराबबंदी में सबसे अधिक गरीब ही निशाने पर हैं.
इस कानून के तहत जिन्हें सबसे पहले सजा सुनाई गई, वे जहानाबाद जिले में सूबे के सबसे कमजोर तबके मुसहर समाज से आने वाले दो गरीब मस्तान मांझी और पेंटर मांझी थे.
विपक्ष लगातार इस नाकामयाबी को सामने रख रहा है. विपक्ष का यह भी आरोप है कि शराबबंदी के बाद बिहार पुलिस का ध्यान अपराध नियंत्रण से ज्यादा शराब जब्ती पर है और इस कारण बिहार में अपराधी नियंत्रण से बाहर है और गरीब परेशान हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स ऐसे आरोपों की तस्दीक कर रही हैं. शराबबंदी कानून पर संशोधन संबंधी विधेयक पर चर्चा के दौरान बीते साल 23 जुलाई को नीतीश कुमार ने भी सदन में यह माना था कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है. उस दिन नीतीश कुमार ने सदन में कुछ आंकड़े रखे थे लेकिन यह नहीं बताया कि अब तक इस कानून से कौन सा तबका क्यों और कितना परेशान होता रहा है.
वहीं मई, 2018 में अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सरकारी आंकड़ों के हवाले से ही अपनी एक रिपोर्ट में यह बताया था कि शराबबंदी कानून से गरीब और वंचित वर्ग ही सबसे ज्यादा परेशान हो रहे हैं. तब अखबार ने पटना, गया और मोतिहारी सर्किल के तीन केंद्रीय जेलों, 10 जिला जेलों और नौ उप जेलों के आंकड़ों का विश्लेषण किया था. सूबे में कुल आठ जेल सर्किल हैं और इन तीन सर्किलों में ही शराबबंदी के दो वर्षों, अप्रैल, 2016 से मार्च, 2018 के बीच हुई करीब 1.22 लाख गिरफ्तारियों में से लगभग 67 प्रतिशत गिरफ्तारियां हुई थीं.
रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक सूबे में अनुसूचित जाति यानी एससी की आबादी 16 फ़ीसदी है, जबकि शराबबंदी कानून के तहत हुई कुल गिरफ्तारियों में 27.1 फ़ीसदी लोग एससी के ही हैं. अनुसूचित जनजाति यानी एसटी की गिरफ्तारी के आंकड़े तो चैंकाने वाले थे जिनकी आबादी बिहार में मात्र 1.3 फीसदी है. गिरफ्तारी में एसटी का प्रतिशत अपनी आबादी का करीब पांच गुणा यानी 6.8 फ़ीसदी था.
बिहार के हर चार नागरिकों में से एक ओबीसी (करीब 25 फीसदी आबादी) है, लेकिन शराबबंदी के तहत जेल में बंद हर तीसरा व्यक्ति (गिरफ्तारी का 34.4 फ़ीसदी) इस वर्ग से आता है. इन आंकड़ों के मुताबिक कमज़ोर वर्ग में केवल ईबीसी की गिरफ्तारी ही उनके आबादी के मुकाबले अनुपातिक रूप से कम हुई थी. सूबे में ईबीसी आबादी 26 फीसदी के आसपास है और गिरफ्तारी तब 19.2 फ़ीसदी थी.
माना जाता है कि ऐसे ज़मीनी हालत के कारण ही बीते साल 23 जुलाई को नीतीश कुमार सरकार द्वारा बिहार में पूर्ण शराबबंदी के लिए लागू कानून में संशोधन संबंधी विधेयक लाया गया.
‘शराब की पहले जितनी ही खपत’
दूसरी तरफ अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान टाइम्स ने 19 जुलाई, 2018 को प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया कि शराबबंदी के बाद भी बिहार में शराब की पहले जितनी ही खपत हो रही है.
अखबार कहता है कि जिन दो वित्तीय वर्षों (2017-18 और 2018-19) के दौरान बिहार में उत्पाद राजस्व शून्य रहा है उस बीच बिहार के तीन पड़ोसी राज्यों, पश्चिम बंगाल, झारखंड और उत्तर प्रदेश, में इस राजस्व में तेज वृद्धि दर्ज हुई है. दरअसल 2017-18 और 2018-19 में इन तीन राज्यों के राज्य उत्पाद राजस्व में वार्षिक वृद्धि 2001-02 के बाद से सबसे ज्यादा रही है.
इन आंकड़ों के आधार पर केवल दो ही निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं- पहला यह कि 2016-17 के बाद बिहार के पड़ोसी राज्यों में शराब की खपत में असमान वृद्धि हुई है या दूसरा, इन राज्यों से बिहार में शराब की भारी तस्करी हो रही है. कहने की जरूरत नहीं कि तमाम तथ्य दूसरे निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं. अखबार भी इस नतीजे पर पहुंचता है कि बिहार में अवैध रूप से शराब बेचे जाने की रिपोर्ट्स के अचूक सबूत बताते हैं कि बिहार में पड़ोसी राज्यों से शराब की धड़ल्ले से तस्करी हो रही है.
सरकार ने नहीं दिया वैकल्पिक रोजगार
बिहार में शराबबंदी के बाद शराब का जो गैरकानूनी धंधा पनपा है वह भारी मुनाफा देनेवाला व्यवसाय बन गया है. पेशेवर अपराधियों को दूसरे जुर्म के मुकाबले यह धंधा कहीं ज्यादा सुरक्षित लगता है. बिहार में पुलिस-प्रशासन और शराब माफिया के नापाक गठजोड़ के उदाहरण अक्सर सामने आते रहते हैं. इस धंधे में एसपी स्तर तक के अधिकरियों की मिलीभगत के प्रत्यक्ष उदाहरण सामने आए हैं. और सरकार आम तौर पर बड़े संगठित माफियाओं पर कार्रवाई नहीं कर पा रही है.
बीते साल 26 नवंबर को आयोजित हुए नशा मुक्ति दिवस के मौके पर नीतीश कुमार ने भी सार्वजनिक रूप से आला अधिकारियों से पूछा कि अवैध शराब की धर-पकड़ में केवल ड्राइवर या खलासी ही पकड़े जा रहे हैं या कारोबारी और उनकी मदद करने वाले सरकारी अफसर भी?
साथ ही शराब तस्करी से एक और चिंताजनक बात यह सामने आ रही है कि बड़े पैमाने पर बच्चों और युवाओं का इसमें इस्तेमाल किया जा रहा है. इसमें लगे बच्चे और युवा भी आम तौर पर कमजोर तबके से ही हैं. एक बड़ी समस्या यह है कि तरह-तरह की देसी और विदेशी शराब आसानी से बनाई जा रही है और कई बार यह जहरीली शराब के रूप में सामने आता है.
वहीं ताड़ी और देसी शराब के धंधे से ज्यादातर गरीब और पिछड़े वर्ग के लोग जुड़े हुए थे, जिनकी आमदनी और रोजगार का यही एकमात्र जरिया था. शहर से लेकर ग्रामीण स्तर तक हजारों लोग प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देशी-विदेशी शराब के रोजगार से जुड़े हुए थे. लेकिन शराबबंदी को लागू करते समय सरकार शराब के पेशे से जुड़ी बड़ी आबादी के रोजगार और पुनर्वास से संबंधित पहलुओं पर पर्याप्त ध्यान देने में नाकाम रही. सरकार ने उन्हें रोजगार का बेहतर विकल्प दिए बिना ही उनकी आजीविका को नष्ट कर दिया. इस नजरिए से भी शराबबंदी का फैसला गरीब विरोधी लगता है और माना जाता है कि इस कारण भी इस पेशे से जुड़ी आबादी का एक हिस्सा, युवा और अन्य लोग आजीविका के लिए शराब के अवैध व्यापार में शामिल हो गए हैं.
जरूरत है बहुआयामी हस्तक्षेप की
इन तथ्यपरक आलोचनाओं से इतर महिलाएं, खास कर ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं और सामजिक कार्यकर्ता यह जरूरत कहते हैं कि ऐसे परिवार जहां पुरुष शराब का सेवन करते थे, उन परिवारों में पहले के मुकाबले अब महिलाओं के साथ होने वाली घरेलू हिंसा में कमी आई है. इस फैसले के हुए व्यापक सामाजिक बेहतरी की बात करें तो शाम के बाद घर से लेकर चौक-चौराहों तक और शादी-विवाह में होने वाला हंगामा घटा है.
लेकिन बिहार में शराबबंदी की व्यापक विफलता का सबसे बड़ा कारण है कि यह एक सरलीकृत नजरिए पर आधारित है जिसमें सभी पीनेवालों को अपराधी मान लिया गया है. जबकि इसका बेहतर तरीका यह है कि पहले समाज को शराबबंदी के लिए पूरी तरह तैयार किया जाए और इसके लिए सतत अभियान चलाना सबसे बेहतर तरीका दिखाई देता है. साथ ही यह भी समझने की जरुरत है कि शराबबंदी एक समाज सुधार अभियान है कोई प्रशासनिक फैसला या राजनीतिक एजेंडा नहीं और सामाजिक सुधार केवल जागरूकता बढ़ाने के द्वारा किया जा सकता है, कानून के दवाब से नहीं.
माना जाता है कि नीतीश सरकार के शराबबंदी के फैसले के पीछे सामजिक से ज्यादा राजनीतिक कारण रहे हैं. दरअसल नीतीश कुमार के शासन में ग्रामीण स्तर तक लाइसेंसी शराब की दुकानों का नेटवर्क फैलाया गया. इससे बिहार को यह फायदा हुआ कि जहां उसे 2005 में शराब से करीब 500 करोड़ रुपये का राजस्व मिलता था, वह 2014-15 में बढ़कर करीब 4,000 करोड़ रुपये हो गया. लेकिन दूसरी ओर 2015 के आते-आते नीतीश कुमार यह लगने लगा कि उन्होंने बड़े जतन से महिलाओं का जो स्वतंत्र मतदाता वर्ग तैयार किया है वह बहुत परेशान है. महिला संगठनों द्वारा शराब की भट्ठी तोड़ने, उनके शराबबंदी के लिए किए जाने वाले विरोध-प्रदर्शन जैसी घटनाओं के जरिए यह बात सामने आने लगी.
ऐसे माहौल में एक कार्यक्रम में महिलाओं की ही मांग पर उन्होंने 2015 के चुनावों के बाद सत्ता में आने पर शराबबंदी की घोषणा कर दी और सरकार बनने पर इसे लागू भी किया. मगर एक तरफ नीतीश सरकार ने अधूरी तैयारियों और गैर-व्यवहारिक तरीके से शराबबंदी लागू किया तो दूसरी ओर समय-समय पर सभी दल इसका विरोध और समर्थन भी राजनीतिक वजहों से करते हैं.
(लेखक बिहार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)