मोदी विरोध से बड़ा सवाल लोकतांत्रिक परंपराओं को बचाए रखना है


Big questions about Modi's opposition to preserving democratic traditions

 

2014 में सोशल मीडिया पर बीजेपी-आरएसएस की ट्रोल आर्मी बुरी तरह काबिज़ थी. पिछले कुछ सालों से बीजेपी की आईटी सेल बहुत सुनियोजित तरीके से काम कर रही थी. लोगों के दिमागों पर अपना प्रभाव डालने के लिए भारत में पहली बार इंटरनेट का उपयोग किया जा रहा था.

इस क्रम में सैकड़ों नए वेबसाइट्स डिज़ाइन किये गए; सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले ब्लॉग्स बनाए गए; यूट्यूब पर सैकड़ों की तादात में वीडियोज़ डालकर उनको बूस्ट किया गया; हजारों फेसबुक पेज बनाकर उनको पॉपुलर बनाया गया, तमाम फेक आईडीज़ बनाकर फेसबुक और ऑरकुट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को हाइजैक कर लिया गया. इस काम में करोड़ों का बजट निवेशित किया गया और हजारों की तादात में वालंटियर्स सोशल मीडिया नेटवर्क्स में जोड़े गए.

यह वो समय था जब तक बीजेपी के विरोधी अन्य दलों ने इंटरनेट और सोशल मीडिया की नयी ताकत को नहीं पहचाना था. मोदीजी के नेतृत्व में भाजपा ने अमेरिकन मॉडल पर चुनाव प्रचार की शुरुआत की थी, जो अन्य दलों के लिए तब तक एक नयी चीज थी. इस तरीके में बैंडवैगन इफ़ेक्ट पैदा करने की कोशिश की गयी ताकि लोगों के मनोविज्ञान को कब्ज़े में लिया जा सके. बैंडवैगन इफ़ेक्ट में लोग दूसरे लोगों की देखादेखी वो काम करने लगते हैं जिसमें भले ही उनका विश्वास न हो. इसके लिए लोगों के चारों तरफ़ किसी ख़ास विचार को पोषित करने वाले प्रतीक इतनी बड़ी तादात में फैला दिए जाते हैं कि लोगों का दिमाग़ उन तस्वीरों से भर जाता है.

मोदी की फोटो, कमल के फूल वाला बीजेपी का चुनाव चिह्न, भगवा रंग का राजनीतिक इस्तेमाल, कैचलाइन की तरह गढ़े गए नारे जैसे “हर-हर मोदी, घर-घर मोदी” आदि लोगों को इतनी जगह और इतनी बार दिखाए गए कि लोगों को यकीन हो गया कि मोदी अजेय हैं और इनका मुकाबला नहीं किया जा सकता. दरअसल इस मेगा प्रोजेक्ट के लिए मोदी ने पैसा जुटाने के लिए कुछ चुनिंदा कॉर्पोरेट घरानों से उसी तरह का समझौता किया जैसा कभी हिटलर ने जर्मनी की हाते बुर्जुवाजी के साथ किया था. नतीज़ा यह कि बीजेपी 2014 के चुनावों में ऐसा प्रचंड बहुमत लेकर आई जिसकी ख़ुद बीजेपी-आरएसएस को भी उम्मीद नहीं थी.

इसके बाद अन्य दलों को भी सोशल मीडिया की अहमियत समझ आई और उन्होंने अपने दलों की आईटी सेल्स पर ध्यान देना शुरू किया. लेकिन 2014 का झटका इतना मजबूत था कि कांग्रेस को उससे उबरने में काफ़ी वक्त लगा. इसके बीच कुछ इंडिविजुअल्स ने जवाबी कार्यवाही का मोर्चा संभाला. इनका किसी पार्टी के साथ कोई सीधा लेना-देना नहीं था लेकिन इन लोगों ने बीजेपी-आरएसएस के दुष्प्रचार की काट के लिए माल-असबाब जुटाने शुरू किए. सोशल मीडिया पर सक्रिय इन इंडिविजुअल्स को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि जब हर तरफ डर और खौफ़ का माहौल था, इन लोगों ने मोदी की न सिर्फ़ आलोचना शुरू की बल्कि उनकी खिल्ली उड़ाई.

इस बीच राहुल गांधी ने आरएसएस-बीजेपी पर राजनीतिक हमला बोलते हुए अपनी आईटी सेल को संगठित किया और मोदी सरकार पर बेहद आक्रामक रुख अपनाते हुए अपने हिसाब से नैरेटिव को बदलने की कोशिश की. लेकिन यह मुख्यधारा की राजनीतिक दलों के बस की ही बात थी कि वो मोदी की राजनीतिक ज़मीन को खिसका सकते थे. यह बात महत्वपूर्ण है कि राहुल गांधी को छोड़ कोई भी अन्य राजनीतिक दल या उसके नेता इस तरह मोदी के विरुद्ध आक्रामक नहीं हुए.

2017 के अंत तक आते-आते राहुल गांधी ने काफ़ी हद तक डैमेज कंट्रोल कर लिया था और गुजरात चुनावों में उन्होंने बीजेपी को काफ़ी हद तक परेशान कर दिया. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ चुनावों में अंततः राहुल गांधी ने 2014 से बड़े धूमधाम से चले मोदी के दिग्विजय रथ को रोक दिया. इन तीन राज्यों में चुनावी हार ने मोदी और उनके रणनीतिकारों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दीं और फिर राफ़ेल का भूत इस तरह उनके पीछे पड़ा कि वो ख़ुद भी “चौकीदार चोर है” के नारे में उलझ गए.

इस तरह 2019 के चुनाव परसेप्शन के मामले में किसी भी तरह से एकतरफ़ा चुनाव नहीं हैं. अगर जमीनी स्तर पर बीजेपी-आरएसएस अब भी मजबूती से हिंदुत्व, सैन्य राष्ट्रवाद और मोदीजी की महामानव इमेज को फैलाने में कहीं ज्यादा सक्रिय है तो केन्द्रीय विमर्श को काफ़ी हद तक बैकफुट पर धकेल दिया गया है. लेकिन बीजेपी-आरएसएस और उसके विरोधी सोशल मीडिया में एक बहुत बुनियादी फ़र्क है. एक तरफ़ जहाँ बीजेपी-आरएसएस का एजेंडा ऊपर से तय होता है और उनके लोग पूरी एकजुटता के साथ उसको आगे फैलाते हैं, कांग्रेस से फिलहाल सहानुभूति रखने वाला वर्ग समय-समय पर कांग्रेस की चुनावी रणनीति और निर्णय क्षमता पर सवाल खड़े करता रहता है.

यह एक लोकतांत्रिक प्रवृत्ति है और निश्चित ही इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलना चाहिए जिसमें लोगों के साथ परस्पर वाद-संवाद से ही नीतियों का निर्धारण तय हो. लेकिन इस प्रवृत्ति ने पिछले दिनों कई बार असहज स्थितियां पैदा की हैं जिसका सीधा लाभ बीजेपी-आरएसएस को मिलता लग रहा है. दरअसल, इंडिविजुअल या व्यक्ति की किसी अन्य के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती इसलिए वो कोई भी बात कहते हुए ख़ुद को छोड़ किसी की परवाह नहीं करता है.

फिर सोशल मीडिया अक्सर दो बुराइयों को न्यौता देता है—एक, नार्सिसिज़्म और दूसरा पॉपुलिस्म. एक में इंसान ख़ुद से ही इतनी मुहब्बत करने लगता है कि किसी दूसरे की कोई गुंजाइश नहीं बचती. दूसरे की वजह से हर वक़्त लोग एक चकल्लसी मोड में रहने लगते हैं और यह सोचने में लग जाते हैं कि कौन सी बात कहने से लोग उनको ज्यादा पसंद करेंगे. ये दोनों पूंजीवादी संचार युग में ‘विशेषज्ञता’ का अपहरण कर लेने और लोगों को आभासी दुनिया में ही फंसाए रखने के लिए अनिवार्य कारक हैं. सोशल मीडिया ने महत्वपूर्ण विमर्शों में गंभीरता का स्पेस कम कर दिया है और अब लोगों की व्यक्तिगत राय और त्वरित प्रतिक्रियाएं-व्याख्याएं ही आधिकारिक विमर्श का पक्ष-प्रतिपक्ष हैं.

हांलिया मामला बनारस में बीएसएफ के पूर्व जवान तेजबहादुर यादव का है. निश्चित रूप से चुनाव लड़ना तेजबहादुर का संवैधानिक अधिकार है और उसका हनन करना संविधान की भावना के विरुद्ध है. लेकिन सोशल मीडिया पर कई लोग बिना आगा-पीछा सोचे बनारस की लड़ाई को तेज बहादुर बनाम मोदी बनाने को उतारू हैं. बगैर यह सोचे कि मोदी के बरक्स एक सैनिक को खड़ा करके, उसकी सैनिक पहचान को गौरवान्वित करने और उसे प्रतिरोध का प्रतीक बनाने के क्या नफे-नुकसान हैं. क्योंकि ठहर के सोचने और इतिहास से सबक लेने के बजाय चकल्लस हमारा केंद्रीय आचरण बनता जा रहा है.

अगर सैनिक से सैनिक टकराए वाली हालत आए तो आपको क्या लगता है आप मोदी को मात दे पाएंगे? वो बनारस में तमाम पूर्व सैनिकों की फौज़ लाकर लाकर नंगे सैन्यवाद का वो नाच नाचेंगे कि लोगों को लोकतंत्र को गोद में लेकर भागना पड़ेगा. गलत तरीक़ों से चुनाव लड़ने के मामले में मोदी विरोधी लोग उतना नीचे नहीं गिर सकते, जितना मोदीजी पिछले पांच सालों में पहले ही गिर चुके हैं. तेजबहादुर बीएसएफ की टीशर्त पहनकर चुनाव प्रचार करते हैं, उसके साथी भी अक्सर उसी ड्रेस में दिखाई देते हैं.

लेकिन मोदी तो लोगों से बालाकोट और पुलवामा के नाम पर पहले से वोट मांग रहे हैं और घूम-घूमकर पाकिस्तान को धमका रहे हैं. यह सोचना कि तेजबहादुर बनारस में मोदी को हरा देंगे, यह एक बचकानी चिलिक मात्र है. अगर उनका पर्चा सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार भी कर लिया जाता है और वो समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के तौर पर महागठबंधन के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे तब भी यह सोचना बेकार है कि वो मोदी के बरक्स एक कठिन चुनौती पेश करेंगे.

लेकिन अगर हम यह मान भी लें कि कांग्रेस अपने प्रत्याशी अजय राय को हटाकर तेजबहादुर को समर्थन दे देती है तो भी तेजबहादुर मोदी को हारने की हालत में होंगे, तो भी तात्कालिक फायदे के लिए एक दूरगामी ख़तरा हमारे सामने है. अभी तक बीजेपी को छोड़कर किसी भी अन्य पार्टी ने सेना को राजनीतिक प्रचार का हथियार नहीं बनाया है. यहां तक कि बीजेपी के वीके सिंह जैसे लोग भी रिटायर होकर जब राजनीति में आए तो सेना की वर्दी और अस्मिता को उन्होंने राजनीतिक मुद्दा नहीं बनाया है.

यहां तक कि योगी द्वारा भारतीय सेना को ‘मोदीजी की सेना’ कहे जाने पर न सिर्फ़ उन्होंने आपत्ति जताई बल्कि उसे आपराधिक कृत्य भी कहा. भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी जमी हैं और हाल ही में डेढ़ सौ से ज्यादा उच्च सैन्य अधिकारियों ने चिट्ठी लिखकर चुनावों में सेना के नाम का इस्तेमाल करने के प्रति अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की तो यह विश्वास और पुख्ता हो गया कि भारतीय सेना अभी भी लोकप्रिय नियंत्रण में रहने के फायदे जानती है. बीजेपी और मोदी जो कर रहे हैं उसकी वो जानें लेकिन उनके विरोध के नाम पर कहीं हम लोग इतने उतावले न हो जाएं कि लम्बे समय में बनाई गई लोकतांत्रिक परम्पराओं को ख़ुद ही ताख पर रखने लगें. सोशल मीडिया पर एक खबर तैर रही थी कि तेजबहादुर का नामांकन खारिज़ होने से बीएसएफ में गुस्सा है. डर इस बात का है कि अगर सेना चुनावी विमर्श के केंद्र में आ गई तो लोकतंत्र का क्या होगा?

1946 में रॉयल नेवी विद्रोह के समय गांधी, नेहरू, पटेल सहित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिकतर नेताओं ने सैनिकों से उनकी बैरक में वापस जाने की अपील की थी. उस समय और उसके बाद भी राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व के इस निर्णय की बहुत तीखी आलोचना हुई लेकिन दरअसल वो लोग सेना के विद्रोह की प्रवृत्ति में छिपे गहरे ख़तरे को पहचानने वाले तथा गंभीर और अलोकप्रिय होने के खतरे उठाने को तैयार लोग थे. उनका मानना था कि सेना को ब्रिटिश सरकार के अधीन रहते हुए उससे बग़ावत का अधिकार नहीं है.

क्योंकि एक बार अगर सेना की अपनी सरकार से बगावत करने की आदत पड़ गयी तो फिर सरकार कोई हो, यह आदत आज़ाद हिन्दुस्तान में जाएगी नहीं. लेकिन दूसरी तरफ़, मुस्लिम लीग ने एक मुस्लिम सैनिक रशीद खान की वजह से इस बग़ावत को खूब हवा दी थी और खुलकर भारतीय नेताओं की खिल्ली उड़ाई थी.

सोच का यही फ़र्क दरअसल हिंदुस्तान और पाकिस्तान के सपने को अलग करता था. आज़ाद हिन्दुस्तान में मोदी ने भारतीय सेना को अपनी सेना कहा तो सैकड़ों वरिष्ठ सैन्य अधिकारी उसके विरोध में सामने आए लेकिन अगर पाकिस्तान होता तो वहां सेना को लोकतंत्र की पीठ में छुरा भोंककर तख्तापलट का एक और माकूल मौका मिल जाता. इस फर्क को बना रहने दीजिए वरना मोदी रहें या जाएं, हम अपनी बुनियाद को अपने हाथों से खोदने वालों में शुमार किए जाएंगे.

(लेखक आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संगठन राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के शिक्षक हैं.)


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