बिहारः स्वास्थ्य सेवा में कोताही और मरते बच्चे


Bihar: Children suffering from lack of health care and dying

 

बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में बीते 15 दिनों में मस्तिष्क ज्वर के साथ-साथ एक्यूट इन्सेफेलाइटिस सिंड्रोम से 93 से ज्यादा बच्चों की मौत पर कहा जा सकता है कि भारत चांद पर (चंद्रयान-2 मिशन के तहत) जल्द ही उपग्रह छोड़ने वाला है परन्तु एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम से अपने बच्चों की जान बचाने में अक्षम है. वह भी ऐसे राज्य में जहां पिछले कुछ सालों से सुशासन का दावा किया जाता रहा है.

बीबीसी संवाददाता प्रियंका दुबे ने लंबे समय से वायरस और इंफेक्शन पर काम कर रहीं वरिष्ठ डॉक्टर माला कनेरिया से बात करके बच्चों की मौत के कारणों को समझने की कोशिश की. डॉक्टर कनेरिया के मुताबिक, “बच्चों की मौत एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम की वजह से हो रही है या सामान्य दिमागी बुखार या फिर जापानी इनसेफेलाइटिस की वजह से, यह पुख्ता तौर पर कह पाना बहुत मुश्किल है. क्योंकि इन मौतों के पीछे कई कारण हो सकते हैं.”

“कच्चे लीची फल से निकलने वाले टॉक्सिन, बच्चों में कुपोषण, उनके शरीर में शुगर के साथ-साथ सोडियम का कम स्तर, शरीर में इलेक्ट्रोलाइट स्तर का बिगड़ जाना इत्यादि. जब बच्चे रात को भूखे पेट सो जाते हैं और सुबह उठकर लीची खा लेते हैं तो ग्लूकोज का स्तर कम होने की वजह से आसानी से इस बुखार का शिकार हो जाते हैं. लेकिन लीची इकलौती वजह नहीं है. मुजफ्फरपुर में इनसेफेलाइटिस से हो रही मौतों के पीछे एक नहीं, कई कारण हो सकते हैं.”

कारण कुछ भी हो अपने बाशिंदों की जान की रक्षा करना हर सरकार का प्रथम कर्तव्य है. दूसरी तरफ केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार बिहार पिछले पांच सालों में एक्यूट एनसेफेलाइटिस सिंड्रोम से 741 मौतें हुई हैं.

एक्यूट एनसेफेलाइटिस सिंड्रोम से होने वाली मौतें

पूरे देश में एक्यूट एनसेफेलाइटिस सिंड्रोम (Acute Encephalitis Syndrome) के कारण साल 2013 में 1273 मौतें हुई थीं जिनमें से बिहार में 143, साल 2014 में देशभर में इस बीमारी से हुई मौतों का आकड़ा 1719 था जिसमें से बिहार में 355 मौतें हुई थी. इसी तरह से साल 2015 में देशभर में 1210 मौतें हुई थीं जिनमें से 90 बिहार में, साल 2016 में देशभर में 1301 मौतें हुई थीं जिसमें से बिहार में 102 मौतें हुई थीं तथा साल 2017 के अंतरिम आकड़ों के अनुसार देशभ में एक्यूट एनसेफेलाइटिस सिंड्रोम से 1010 मौतें हुई थीं जिसमें से बिहार में 51 मौतें हुई थीं.

कुल मिलाकर, देखा जाए तो पिछले पांच सालों में देशभर में एक्यूट एनसेफेलाइटिस सिंड्रोम से 6513 मौतें हुई थीं जिसमें से बिहार में ही 741 मौतें हुई थीं. वैसे इन पांच सालों में बिहार की तुलना में असम में 1257, उत्तरप्रदेश में 2929, पश्चिम बंगाल में 1334 मौतें हुई थीं.

इसी तरह से जापानी एनसेफेलाइटिस से (Japanese Encephalitis) से बिहार में साल 2013 में कोई मौतें नहीं हुई थी, साल 2014 में दो मौतें, साल 2015 में 12 मौतें, साल 2016 में 25 मौतें तथा साल 2017 के अंतरिम आकड़ों के अनुसार 11 मौतें हुई थी.

स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च कम

बिहार ने साल 2015-16 में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति 491 रुपये याने अपने जीडीपी का 1.33 फीसदी खर्च किया था. इसकी तुलना में असम ने प्रतिव्यक्ति 1546, छत्तीसगढ़ ने प्रतिव्यक्ति 1354 रुपये, झारखंड ने प्रतिव्यक्ति 866 रुपये, मध्य प्रदेश ने प्रति व्यक्ति 716 रुपये, ओडिशा ने प्रति व्यक्ति 927 रुपये, राजस्थान ने 1360 रुपये, उत्तरप्रदेश ने 733 रुपये तथा उत्तराखंड ने 1765 रुपये खर्च किए.

इस तरह से बिहार ने EAG (Empowered Action Group)+ 1 States की श्रेणी के नौ राज्यों में स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च किया. EAG (Empowered Action Group)+ 1 States श्रेणी के राज्यों ने स्वास्थ्य पर औसतन 871 रुपये खर्च किए जोकि बिहार द्वारा खर्च की गई राशि से डेढ़ गुना से ज्यादा है.

अब स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च के बाद कैसे उम्मीद की जा सकती है कि स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर होंगी? इससे एक साधारण से आदमी के भी समझ में आ सकता है कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में जीवनरक्षक और आवश्यक दवाइयां पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं होंगी. एक सरकारी चिकित्सक ने मीडिया के सामने स्वीकार किया है कि अस्पताल में इस बीमारी में लगने वाले जीवनरक्षक दवाइयों का टोटा है.

दूसरी तरफ आकड़ें गवाह है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में अस्पताल में भर्ती होने पर औसत चिकित्सा व्यय तथा अन्य खर्च 13,626 रुपये आता है वहीं बिहार के शहरी इलाकों में अस्पताल में भर्ती होने पर यह खर्च 28,058 रुपयों का आता है. जाहिर है कि इसका अधिकतम हिस्सा मरीज के परिजनों को अपनी अंटी से चुकाने पड़ते हैं.

सरकारी स्वास्थ्य सेवाएं बदतर

अब बिहार में सरकारी चिकित्सों की क्या स्थिति है उस पर भी गौर फऱमाया जाए. बिहार सरकार द्वारा साल 2015 में केन्द्र सरकार को भेजे गए आकड़ों के अनुसार राज्य में कुल 3576 सरकारी एलोपैथिक चिकित्सक हैं प्रति 28391 व्यक्तियों पर एक सरकारी चिकित्सक उपलब्ध है जबकि देशभर में औसतन 11082 व्यक्तियों पर एक सरकारी एलोपैथिक चिकित्सक उपलब्ध है.

इस तरह से बिहार में सरकारी चिकित्सकों की संख्या नाकाफ़ी है. इसी कारण से मुज़फ़्फ़रपुर में एक सरकारी चिकित्सक को एक से ज्यादा इमरजेंसी वार्डो में जाकर सेवा देनी पड़ रही है.

इसी तरह से बिहार में रजिस्टर्ड नर्सों की संख्या क्रमश 8624 ऑक्सलरी नर्स मिडवाइफ, 9413 रजिस्टर्ड नर्स और रजिस्टर्ड मिडवाइफ और 511 लेडी हेल्थ विसिटर्स है जो कि अन्य राज्यों की तुलना में कम है.

जहां तक सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों की उपलब्धता की बात आती है तो बिहार के ग्रमीण इलाकों में 930 अस्पताल और वहां 6083 बिस्तर हैं एवं शहरी इलाकों में 103 अस्पताल और वहां पर 5936 बिस्तर उपलब्ध हैं.

औसतन बिहार में प्रति सरकारी अस्पतालों पर 1,00,589 व्यक्तियों के स्वास्थ्य का भार है और प्रति 8645 लोगों के लिए सरकारी अस्पताल में एक बिस्तर उपलब्ध है. जबकि पूरे भारत में औसतन एक सरकारी अस्पताल पर 55,591 लोगों की जिम्मेवारी है और प्रति 1844 लोगों के लिए सरकारी अस्पताल में एक बिस्तर उपलब्ध है.

टीवी पर दिखाया जा रहा है कि मुज़फ़्फ़रपुर के सरकारी अस्पताल में एक-एक बिस्तर पर दो-दो बच्चों का इलाज चल रहा है. उसके बाद आने वाले बच्चों को जमीन पर लिटाकर उनका इलाज किया जा रहा है.

जाहिर है कि इन सब खामियों के कारण एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम जैसी बीमारी होने पर बच्चों पर पर्याप्त् चिकित्सा सुविधा नहीं मिल पाती है फलस्वरूप मांओं की गोद हर साल सूनी होती जाती है.

यहां पर इस बात को भी समझना होगा कि सरकार द्वारा आयुष्मान भारत योजना के तहत प्रति परिवार को पांच लाख का बीमा करा देने से ज्यादा जरूरी है कि सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को उन्नत बनाया जाए यानी चिकित्सकों की संख्या में इज़ाफा किया जाए, अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या बढ़ाई जाए, सभी दवाएं इतनी मात्रा में उपलब्ध हो कि आपातकालीन स्थिति में भी इनकी कमी न होने पाए, अस्पतालों में आवश्यक चिकित्सा उपकरण हमेशा चालू हालत में उपलब्ध हों एवं अस्पतालों में मेडिकल एवं गैर-मेडिकल कर्मचारियों की संख्या में भी बढ़ोतरी की जाए.


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