सहकारिता से बीजेपी नेता करते रहे खुद का उद्धार
मध्य प्रदेश (मप्र) में सहकारिता को बढ़ावा देने के लिए नारा गढ़ा गया था कि ‘सहकारिता बिना नहीं उद्धार’. कभी आंदोलन का रूप ले चुका सहकारिता अभियान सफलता की अधिक सीढ़ियां नहीं चढ़ पाया. बीजेपी सरकार में तो सहकारिता आंदोलन की कमर तोड़ने के भरपूर षड्यंत्र हुए.
विधानसभा से पारित अधिनियम को ताक पर रखकर सहकारी बैंकों के चुनाव ही नहीं करवाए गए. नियमानुसार चुनाव न होने पर अधिकतम एक साल के लिए ही प्रशासक नियुक्त किया जा सकता है, मगर चुनाव न होने के कारण प्रदेश में 38 जिला सहकारी केंद्रीय बैंकों में से डेढ़ दर्जन बैंक चार सालों तक प्रशासक के अधीन रहे.
यानी बीजेपी सरकार ने सहकारिता में जनता के प्रतिनिधित्व को कम करने के ही जतन किए. अब जब पड़ताल की जा रही है तो पता चल रहा है कि किसानों के नाम पर बीजेपी सरकार में करोड़ों का कर्ज माफी घोटाला हुआ है. सहकारिता मंत्री डॉ. गोविंद सिंह का दावा है कि यह घोटाला हजार करोड़ से अधिक का है. जांच बता रही है कि किसानों की आड़ में बीजेपी नेताओं और अफसरों ने खुद का उद्धार किया.
मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री बनते ही कमलनाथ ने किसान कर्जमाफी की फाइल पर हस्ताक्षर किए और उस आदेश के क्रियान्वयन का काम शुरू हुआ तो एक-एक कर जिलों से किसानों के नाम पर गड़बडि़यों की परतें खुलने लगीं. अब पता चल रहा है कि प्रदेश की सहकारी बैंक व समितियां भ्रष्टाचार की गिरफ्त में हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में इनका ही जबर्दस्त नेटवर्क है और हर सहायता चाहे राशन हो या खाद-बीज, कर्ज बांटने का काम सरकार की पहुंच इन बैंकों और समितियों के माध्यम से ही किसानों तक है. इन बैंकों व समितियों में फर्जी ट्रैक्टर ऋण से लेकर नकदी ब्याज पर चलाने, परिजनों को बैंक की राशि बांटने, वेयरहाउस में अनाज रखे बिना कर्ज लेने सहित कई मामले उजागर हो चुके हैं.
अब तक प्रसारित सूचनाओं के अनुसार प्रदेश में धान और गेहूं खरीदी के हिसाब में 17 करोड़ रुपये का गबन, कर्जमाफी योजना में 108 करोड़ रुपये की अनियमितता, भर्ती में गड़बड़ी जैसे कई मामले उजागर हो चुके हैं. जबलपुर, बालाघाट, नरसिंहपुर, मंडला, सिवनी, सीधी और शहडोल बैंक की डेढ़ सौ से ज्यादा समितियों के गेहूं और धान खरीदी के हिसाब में 17 करोड़ रुपए की गड़बड़ी पाई गई.
यही कारण है कि मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इन घोटालों की विशेष जांच कराने का ऐलान कर दिया है. अब तक हुए खुलासे तो सिर्फ कुछ नमूने हैं. गहराई से पड़ताल होगी तो पता चलेगा कि बीजेपी राज में किसानों के हित में जितनी घोषणाएं की गईं, जितना पैसा बांटा गया, वह उन तक पहुंचा ही नहीं.
कैसे-कैसे घपले हुए हैं, इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है. सीधी जिला सहकारी बैंक ने किसानों को 1100 ट्रैक्टर का कर्ज देना बताया. एक जिले में एक साथ इतने ट्रेक्टर का कर्ज कैसे? पता चला कि यहां से फाइनेंस किए गए करीब 114 ट्रैक्टर किसी अन्य के नाम पर पंजीकृत हैं.
रजिस्टर में जिन्हें ट्रैक्टर का नंबर बताया गया वे तो मोपेड सहित अन्य दुपहिया वाहनों के नंबर हैं. कहीं मृत किसानों के नाम पर कर्ज दिखा दिया गया तो कहीं जिन्होंने कर्ज लिया ही नहीं उन्हें कर्जदार बताकर पैसा रख लिया गया.
जरा विस्तार में जाएं तो पता चलता है कि बीजेपी सरकारों ने सहकारिता की कमर तोड़ने का ही काम किया. जो सहकारिता अभियान अपने पैरों पर खड़ा हो रहा था उसकी स्वायत्तता खत्म कर उसे पंगु बना दिया गया. उसे सरकार की योजनाओं का प्रसारक बनाया लेकिन उसकी आत्मनिर्भरता नष्ट कर दी गई.
बीजेपी सरकार प्राथमिक कृषि साख सहकारी समितियों के चुनाव कराने से बचती रही है, क्योंकि उसे भय था कि किसान आंदोलनों के चलते ग्रामीण इलाकों में पार्टी की पकड़ कुछ कमजोर हुई है.
इस नाराजी का असर सहाकारी समितियों के चुनाव पर भी पड़ता. लिहाजा सरकार समितियों के चुनाव एक साल तक टाल रही है. चुनाव न करवा कर अपने लोगों को पदस्थ कर किया गया. प्रशासनिक अधिकारियों ने सहकारिता को प्रशासन की तरह चलाया भ्रष्टाचार की घुन पूरी व्यवस्था को लील गई.