बीजेपी सिमटेगी 165 के आस-पास!


PUCL presented charge sheet against central govt

 

हां, पुराने आंकड़ों व जमीनी लड़ाई में विपक्षी एलायंस की केमिस्ट्री में इस सप्ताह अपनी गपशप, अपना आकलन है कि बीजेपी 2014 में जीती282 सीटों से कोसों दूर है. बीजेपी अपने बूते 165 सीट से अधिकतम 180 के बीच अटकेगी. इस बात का कोई मतलब नहीं है कि बीजेपी के सहयोगियों याकि एनडीए की शिवसेना, जनता दल (यू) आदि की कितनी सीटें आ रही हैं. अपना मानना है कि उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार 23 मई की शाम बीजेपी के 200 से कम आंकड़े पर तुरंत नरेंद्र मोदी को अंगूठा बताने वाला स्टैंड लेंगे. सहयोगी दलों के लिए मजबूरी तभी बनेगी जब बीजेपी अपने बूते कम से कम 225सीट ले कर आए.

इसलिए नंबर एक सवाल है बीजेपी की खुद की सीट कितनी संभव है? दूसरा सवाल है नतीजे गणित-केमिस्ट्री की हकीकत पर आएंगे या ईवीएम मशीन की धांधली से निकलेंगे? धांधली संभव है तो कुछ भी हो सकता है. मैं ईवीएम से अखिल भारतीय याकि 60-70 करोड़ मतदाताओं के वोटों में हेरी-फेरी की आंशका से सहमत नहीं रहा हूं. बावजूद इसके विचार तो आता है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह और उनकी प्रोपेगेंडा मशीनरी 300 सीट जीतने का हल्ला बनाए हुए है तो ऐसा कैसे?

जब 2014 के लोकसभा और 2017 के विधानसभा चुनाव की सुपर बीजेपी सुनामी में भी सपा-बसपा-रालोद के वोट यूपी में बीजेपी से ज्यादा थे. तीनों पार्टियों के आज के एलायंस के वोटों के आगे बीजेपी टिकती नहीं है तो कैसे अमित शाह कह रहे हैं कि बीजेपी यूपी में 72 नहीं, बल्कि 74 सीटें जीतेगी. ऐसा अहंकार तो ईवीएम मशीन की धांधली से ही संभव है.

हां, यूपी ही निर्णायक, टेस्ट केस है. यूपी की हकीकत में ही मोदी हवा के सारे तर्क फेल हैं. मैं कई बार आंकड़ों के साथ लिख चुका हूं कि 2014 व 2017 के विधानसभा चुनाव में जितने दलित, यादव, मुसलमान वोट सपा, बसपा को मिले थे, वह कोरवोट था. वे दलित-यादव-मुसलमान इधर से उधर डिग नहीं सकते. उलटे इनके साथ पीस पार्टी, कौमी एकता पार्टी, आप पार्टी, कांग्रेस को तब गए मुस्लिम वोट व पांच सालों में कन्वर्ट हुए मोदी विरोधी वोट भी अब एलायंस से जुड़ेंगे. इसलिए इस चुनाव में बीजेपी के गढ़ नोएडा, आगरा से ले कर कानपुर, गोरखपुर में भी बीजेपी उम्मीदवारों की हालात पतली है. यदि उस अनुसार वोटिंग है तो बीजेपी की पंद्रह सीट यूपी में नहीं बनती.

फिर भी मैं उस एक्स्ट्रीम में नहीं जा रहा हूं. मैं यूपी में बीजेपी की 20 से 25 के बीच सीट संभव मान रहा हूं. आज के आकलन में लोकसभा 2014 व विधानसभा 2017 (यूपी में) चुनाव के वोट आंकड़ों और बाकी प्रदेशों में भी बाद के विधानसभा चुनावों के वोटों वइस चुनाव में बीजेपी-एनडीए बनाम उसके खिलाफ बने एलायंस की पार्टियों के कुल वोट के आंकड़ों की गणित को ध्यान में रख कर विश्लेषण है. फिर लोकल जातीय-उम्मीदवार केमिस्ट्री, ग्राउंड जीरो रिपोर्टिंग के सार के साथ मोदी, मोदी हल्ले की 300 सीटों की हवाबाजी का हल्ला भी विचारा हुआ है.

पहला सवाल क्या 2014की 282 सीटें बीजेपी वापिस जीत रही है? ध्यान रहे 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी उत्तर भारत की बदौलत थी. इसमें भी तीन राज्यों की 134 सीटों में से उत्तरप्रदेश (71), बिहार (22) और झारखंड (12) में बीजेपी ने खुद 105 सीटें जीती थीं. 105 सीटों के उस ब्लॉक में विरोधी एलायंस के चलते बीजेपी के तोते उड़ने हैं.

बीजेपी सीटों का दूसरा ब्लॉक राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात और छतीसगढ़ का है. इनकी 91 सीटों में से 2014 के चुनाव में बीजेपी ने 88 सीटें जीती थीं. इस ब्लॉक में बीजेपी बनाम कांग्रेस में सीधा मुकाबला है. ध्यान रहे इन चारों राज्यों में बाद के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने या तो बराबरी की टक्कर दी या तीन राज्यों में बीजेपी को हरा कर अपनी सरकार बनाई. इस ब्लॉक में बीजेपी को कम से कम 27 सीटों का नुकसान है.

तीसरा ब्लॉक महाराष्ट्र, कर्नाटक का है जहां कि 76 सीटों में से बीजेपी ने 2014 में खुद 44 सीटें जीती थीं. इस ब्लॉक में भी बीजेपी को एलायंस से कड़ी टक्कर मिली है. 15 सीट का कम से कम नुकसान है.

चौथा ब्लॉक पूर्वोत्तर, छोटे प्रदेशों, व केंद्र शासित 17 प्रदेशों की 49 सीटों का है. इस ब्लॉक में से पश्चिम बंगाल और ओड़िशा के दो राज्यों में बीजेपी का ख्याल है कि बाकी जगह के नुकसान की भरपाई इन दो राज्यों से होगी. इस ब्लॉक में पश्चिम बंगाल, ओड़िशा और दक्षिण के राज्यों को भी जोड़ें तो ब्लॉक की कुल सीटों की संख्या 242 बनती है. 2014 के चुनाव में इसमें बीजेपी की कोई 49 सीटें थीं. इसी ब्लॉक में से पश्चिम बंगाल और ओड़िशा में बीजेपी 30 सीटों के जंप का ख्याल बनाए हुए है जो गणित की कसौटी में संभव नहीं है. अपना मानना है बीजेपी इस ब्लॉक की अपनी मौजूदा 49 सीटों में से जो सीटें (असम, गोवा, चंडीगढ़, लक्षद्वीप, हरियाणा, दिल्ली आदि में एक-एक, दो-दो का जो नुकसान होगा) गंवाएगी उसकी भरपाई बंगाल, ओड़िशा से हो जाए तो गनीमत है.

सो, गणित व केमिस्ट्री के अपने विश्लेषण में बीजेपी का कुल आंकड़ा 165 सीट या मोटे तौर पर 160-180 सीटों के बीच अटकेगा. ऐसा भी उत्तर भारत के राज्यों में मोदी,मोदी की हवाबाजी से बनी उदारता के चलते है.

मोदी की कथित आंधी में न लॉजिक, न गणित

सोचें, क्या 2014 की मोदी आंधी के वक्त जिन दलितों, जाटव, यादव, मुसलमान ने बीजेपी के खिलाफ वोट बसपा, सपा को दिया था वे क्या2019 के इस चुनाव में मोदी को वोट दे रहे हैं? क्या 2014 व 2017 से बड़ी आंधी यूपी में मोदी की आज है? यदि नहीं तो बीजेपी का सूपड़ा साफ है.

हां, यूपी में लड़ाई का फैसला सिर्फ इस बात पर है कि 2014, फिर 2017 के विधानसभा चुनाव, फिर 2018 के गोरखपुर, फूलपुर, कैराना उपचुनाव में जितना वोट सपा,बसपा, रालोद का था वह एलायंस के उम्मीदवारों को मिल रहा है या नहीं? कैसे यह उलटी गंगा बह सकती है कि मायावती का जाटव, अखिलेश का यादव व मोदी विरोधी जितना भी जो परंपरागत वोट, मुसलमान-ईसाई-आदिवासी-दलित वोट है वह नरेंद्र मोदी को वोट डाल दे रहा हो! ऐसा नहीं है. मतलब उलटी गंगा नहीं है. सो, बीजेपी साफ.

ऐसे ही सोचें कि पश्चिम बंगाल में 2014 में बीजेपी को 17 प्रतिशत वोट मिले, फिर 2016के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के घट कर 10 प्रतिशत वोट रह गए, लेफ्ट का बिखरा वोट तृणमूल का हुआ तो इस चुनाव में क्या बीजेपी के वोट अचानक 25 से 35 प्रतिशत जंपकर तृणमूल के 46 प्रतिशत के बराबर पहुंच 82 प्रतिशत के रिकार्ड मतदान में तृणमूल को हरा दे? क्या संभव है कि लेफ्ट का बिखरा वोट तृणमूल को नहीं, बल्कि बीजेपी को पड़े?

ऐसे ही सोचने वाली तीसरी बात है कि ओड़िशा में बीजेपी का पिछला 18 प्रतिशत वोट 44 प्रतिशत या 22 प्रतिशत वोट 45 प्रतिशत होबीजद को लोकसभा, विधानसभा चुनाव में हरा दे? हां, ओड़िशा में 2014 में नवीन पटनायक की बीजद के वोट बीजेपी से दोगुने से अधिक थे. जबकि इन पांच वर्षों में ओड़िशा के आदिवासी वैसे ही बीजेपी से बिदके हैं, जैसे बगल के झारखंड या छतीसगढ़ में बिदके हैं. लॉजिक कहता है कि जैसे 2014 में पूरे देश में मोदी आंधी थी वैसा असर ओड़िशा, बंगाल में भी पीक पर था. अब यह कैसे संभव है कि बाकी पूरे देश में बीजेपी, मोदी की सीटें कम, ज्यादा घटे लेकिन ओड़िशा व पश्चिम बंगाल में उलटी गंगा बहे?

सो, अमित शाह बंगाल में 23 से ज्यादा सीट या ओड़िशा में 12 से 15 सीट जीतने का भरोसा बता रहे हैं तो अपनी राय में वह भरोसा वैसा ही है जैसे उत्तरप्रदेश में उन्होंने 71 की जगह बीजेपी की 73 सीट होने का जुमला बोल जताया है. मोदी-शाह की गलती थी जो ममता बनर्जी की ऊर्जा कम आंकी. इन्होंने सोचा की सातों राउंड में कम-कम सीटों पर चुनाव करा ममता बनर्जी को थका देंगे. लेकिन ममता बनर्जी ने उलटे मोदी-शाह को थका दिया है. वे पहले चरण से ले कर अब तक मतदान के प्रतिशत को 82 प्रतिशत के आसपास टिकाए हुए हैं. मतदान कम होता तो बीजेपी के अवसरबनते.

सोचना यह भी जरूरी है कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि आठ महीने पहले विधानसभा चुनाव में बराबरी की लड़ाई हुई हो और लोकसभा चुनाव में जीतने वाली, सरकार बनाने वाली पार्टी का सूपड़ा साफ हो जाए? मतलब बीजेपी अपनी जीत के ब्लॉक-2 के गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश व छतीसगढ़ की 91 सीटों में से पिछली बार की तरह 88 सीटें याकि शत-प्रतिशत सीट वाली सुनामी का जो ख्याल बनाए हुए है, वह आठ महीने में गंगा को उलटा बहा देने की हवा है, और यह भी तर्कसंगत नहीं है. मतलब कमलनाथ, अशोक गहलोत के बेटे से ले कर ज्योतिरादित्य, दिग्विजयसिंह सभी के चुनाव हारने का जो प्रोपेगेंडा हुआ है वैसी आंधी आठ महीने पहले के चुनाव नतीजों के विपरीत की गंगा है. क्या ऐसे अचानक गंगा उलटी बह सकती है?

कतई नहीं. इसलिए नीचे के चार्ट में बीजेपी की अधिक सीटों के अनुमान के बावजूदयह नामुमकिन नहीं है कि  पिछले तमाम चुनावों के अनुभव, आंकड़ों के आधार पर बीजेपी-कांग्रेस की सीटों का अनुपात 60-40 का बने. मैं नहीं मानता कि अशोक गहलोत, कमलनाथ का बेटा हार रहा है या ज्योतिरादित्य हार सकते हैं उलटे आदिवासी-दलित- मुस्लिम बहुल सीटों में बीजेपी को अप्रत्याशित ज्यादा नुकसान हो सकता है.

ऐसे ही बीजेपी की जीत के नंबर तीन ब्लॉक महाराष्ट्र- कर्नाटक में इस दफा कांग्रेस-एनसीपी व कांग्रेस-जनता दल(एस) एलायंस की मौजूदा गणित-केमिस्ट्री व मतदान के आंकड़े बीजेपी के लिए खतरे की घंटी हैं. तर्क है कि कैसे मानें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में कांग्रेस- जनता दल (एस) को जो वोट मिले थे या 2018 के विधानसभा चुनाव में इन दोनों पार्टियों को अलग-अलग लड़ते हुए जो वोट प्राप्त हुए थे वे इनके अब एलायंस में पहले जैसे नहीं पड़ेंगे? या महाराष्ट्र में आदिवासी-दलित-मुसलमान वोटों ने अंबेडकर-ओवैसी के मोर्चे में अपना वोट जाया किया होगा न कि मोदी-बीजेपी सरकार के खिलाफ वैसी ही खुन्नस में वोट डाला होगा जैसे सहारनपुर में मुसलमान-दलितों ने बिना भटके बीजेपी को हरा सकने में समर्थ एलायंस उम्मीदवार को वोट दिया? महाराष्ट्र में दलित, आदिवासी, मुसलमान, मराठों की भावनाएं बतौर मौन जाया होगी और मोदी,मोदी का प्रोपेगेंडा वोट उस स्थिति में भी संभव है जब महाराष्ट्र में कुल मतदान प्रतिशत सामान्य से कम है?

तभी 2019 का यह चुनाव विचित्र है. मोदी-शाह की प्रोपेगेंडा मशीनरी, झूठ ने तर्क, गणित, केमिस्ट्री और भावनाओं सबको हाशिए में डाल मोदी हवा का झूठा ख्याल बनवाया है. तभी आश्चर्य नहीं जो हर कोई ईवीएम मशीन पर शक के सवाल लिए हुए है.

यूपी में बिगड़ा बीजेपी का गणित

हां, 23 मई को बीजेपी का नंबर एक खड्डा उत्तरप्रदेश होना चाहिए. प्रदेश की 80 सीटों में पिछली बार बीजेपी को 71 सीटे मिली थी. वह संख्या 15 से 23 सीटों के बीच बनती लगती है. इसलिए क्योंकि उत्तरप्रदेश में बसपा-सपा-रालोद का एलायंस जो वोट ले रहा है उसमें 2014 में पीस पार्टी, कौमी एकता, आप जैसी पार्टियों को मुस्लिम या मोदी विरोधी जो भी वोट मिला था वह एलायंस को जाता लग रहा है. दूसरी तरफ कांग्रेस अधिकांश सीटों पर कम ही सही बीजेपी का फारवर्ड वोट काट रही है. फिर पूर्वी उत्तरप्रदेश में सुहेलदेव पार्टीं, परिवर्तन पार्टी जैसी छोटी जातीय पार्टियों ने भी बीजेपी का जातीय  समीकरण बिगाड़ा है.

पांच राउंड के मतदान में यह भी लगा है कि मुसलमान वोट एलायंस बनाम कांग्रेस के उम्मीदवारों के चक्कर में बंट नहीं रहा है. मुस्लिम वोट एकमुश्त उसी को जा रहे है जिस उम्मीदवार में बीजेपी को हराने का ज्यादा दम और वोट आधार है.

सो गौर करें यूपी के अपने इस सीटवार आंकलन पर कि बीजेपी बनाम विपक्ष में सीट बंटवारा कैसे मुमकिन है? बीजेपी की अधिकतम 23 सीट बनती है. इसमें भी नोएडा से लेकर फतेहपुर सिकरी, अलीगढ़, उन्नाव, ,हमीरपुर, मिर्जापुर जैसी सीटों में किंतु परंतु है लेकिन 2014 के आंक़ड़े और कैमेस्ट्री व बीजेपी की हवा की कथित बातों से सीटों को भगवाई रंग में रंगा मानने में हर्ज नहीं है. सीट के आगे कोष्ठक में 2014 में बीजेपी को मिले वोट की संख्या है. 80 सीट में से बीजेपी के क्षेत्र ये है – गाजियाबाद(56), गौतमबुद्धनगर (50), बुलंदशहर (60), अलीगढ़ (48), हाथरस (52), मथुरा (53), आगरा (54), फतेहपुरसिकरी (51), एटा (51), बरेली (51), पीलीभीत (52), कानपुर(57),जालौन (49)उन्नाव (43), लखनऊ (54), अकबरपुर (50), हमीरपुर (46), झांसी (46), महाराजगंज (45), देवरिया (51) बांसगांव (47), वाराणसी (56), मिर्जापुर. कुल सीट 23 हुई.

अब जरा एलायंस, कांग्रेस के आंकड़ों,- गणित सेयूपी में विपक्ष की बनती सीटों को देखें. इन सीटों के आगे भी 2014में  एलायंस पार्टियों के मिले कुल वोट या उपचुनाव में मिले वोट और पीस पार्टी, कौमी एकता, सुहेलदेव पार्टी के पिछले वोटों का जिक्र समीकरण दर्शाने के लिए है.

सो गौर करें इन सीटों पर- सहारनपुर (58), मेरठ (48), कैराना (51), मुजफ्फरनगर (59), बिजनौर (52), नगीना(57), मुरादाबाद (49), रामपुर (43), संभल(57), अमरोहा(50), बागपत(67), फिरोजाबाद (59), मैनपुरी (74), बाराबंकी(53), बदायूं (63), आंवला (46), शाहजहांपुर (47),  धौरहरा (44), लखीमपुरखीरी (42), सीतापुर (51), हरदोई (57), मिसरिख (52), मोहनलालगंज (50), रायबरेली (64), अमेठी (56),  सुल्तानपुर (47), इटावा(49), कन्नौज (55), बांदा (49), कौशांबी (54), फूलपुर(47), फैजाबाद (35), इलाहाबाद(46),  प्रतापगढ़ (37), फर्रुखाबाद (38), फतेहपुर (46), गौंडा(51), अंबेडकरनगर(51), बहराइच (46), कैसरगंज (48), श्रावस्ती (46), डुमरियागंज (40), बस्ती(58), संतकबीरनगर(48), लालगंज(55), आजमगढ़ (63), घोसी (54), जौनपुर(59), मछलीशहर (46), गाजीपुर(52).बलिया(55), चंदौली (47), भदोही (49) गोरखपुर(49), कुशीनग(55), सलेमपुर (45), ऱॉबर्ट्सगंज (49). मतलब कुल 57 सीट.

फिर भी क्या 23 मई को यूपी में मोदी-शाह ईवीएम मशीन से74 सीट का नया रिकार्ड बनाएगें?

बिहार में गणित-केमिस्ट्री दोनों के सवाल 

राजनीति में कई बार सीधे गणित काम करती है. जैसे इस बार लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कर रही है. समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के वोट एक और एक मिल कर 11 हो रहे है. दिल्ली में भी यदि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी मिल जाते तो एक पश्चिमी दिल्ली सीट को छोड़ बाकी छह सीटों पर इनका वोट बीजेपी से ज्यादा होता. नतीजों के नजर से देखें तो 2015 में बिहार में इसका प्रमाण मिला था. राजद, जदयू और कांग्रेस का साझा वोट बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों से ज्यादा हो गया तो 2014 में शानदार जीत दर्ज करने वाला एनडीए बुरी तरह धराशायी हुआ.

उसी गणित को ध्यान रख नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने बिहार में नीतीश कुमार को पटाया. उनको लगा कि जैसे राजद के साथ जाकर नीतीश ने बाजी पलट दी वैसे ही उनके बीजेपी में आने से बाजी पलट जाएगी. तभी बीजेपी ने 2014 में सिर्फ दो सीट जीतने वाली नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 17 सीटें दीं. ध्यान रहे बीजेपी 2014 में 30 सीटों पर लड़ी थी और 22 पर जीती थी. यानी वह अपनी लड़ी सीटों की संख्या से 13 सीट कम लड़ रही है और जीती हुई पांच सीटें भी उसने नीतीश के लिए छोड़ी हैं. इस तरह बीजेपी की पांच सीटें चुनाव लड़ने से पहले ही कम हो गई हैं. अब उसका प्रयास अपनी 17 सीटों में से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने का है.

पिछले चुनाव में बीजेपी 30 सीटों पर लड़ी थी और उसे 29.40 फीसदी वोट मिला था. जदयू 38 सीटों पर लड़ी थी और उसे 15.80 फीसदी वोट मिले. बीजेपी की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी सात सीटों पर लड़ी थी और उसे 6.40 फीसदी वोट मिले थे. इस बार ये तीनों पार्टियां एक साथ लड़ रही हैं. अगर पिछली बार मिला उनका वोट मिला दिया जाए तो आंकड़ा 51.60 फीसदी का बनता है. दूसरी ओर 2014 में राष्ट्रीय जनता दल 27 सीटों पर लड़ी थी और उसको 20.10 फीसदी, उसकी सहयोगी कांग्रेस को अपनी लड़ी 12 सीटों पर 8.40 और एक सीट पर लड़ी एनसीपी को 1.20 फीसदी वोट मिले.

इस तरह विपक्ष का आंकड़ा करीब 30 फीसदी का बनता है. बीजेपी की उस समय सहयोगी रही राष्ट्रीय लोक समता पार्टी तीन सीटों पर लड़ी थी और उसको तीन फीसदी वोट मिला था. इस बार रालोसपा विपक्षी गठबंधन का हिस्सा है. सो, उसके तीन फीसदी वोट मिला कर राजद गठबंधन का कुल वोट 33 फीसदी का होता है. दोनों के वोट प्रतिशत में 18 फीसदी का भारी अंतर है.

पर बिहार में मौजूदा चुनाव को सिर्फ पिछले आंकड़ों के आधार पर नहीं समझा जा सकता है क्योंकि 2014 के बाद बिहार की राजनीति में बहुत बदलाव आया है. लालू प्रसाद और उनकी पार्टी बिहार की राजनीति में अछूत नहीं रह गई है. यह अछूतपन खत्म कराया खुद नीतीश कुमार ने. वे 2015 में लालू प्रसाद के साथ मिल कर चुनाव लड़े. सो, लालू प्रसाद के जंगल राज का नैरेटिव भी खत्म हो गया और उनका अछूतपन भी खत्म हुआ. उस चुनाव में राजद और जदयू दोनों सौ-सौ सीटों पर लड़े. राजद को 18.4 और जदयू को 16.8 फीसदी वोट मिले. 41 सीटों पर लड़ी कांग्रेस को 6.7 फीसदी वोट मिले थे. इन तीनों का आंकड़ा 42 फीसदी का बन गया. बीजेपी लोकसभा में मिले 29 फीसदी सीटों से घट कर 24 फीसदी पर आ गई. उसकी सहयोगी पार्टियों का वोट भी इसी अनुपात में घटा.

इस बार के चुनाव में बीजेपी की दो पुरानी सहयोगी पार्टियां – रालोसपा और हिंदुस्तान अवाम मोर्चा, राजद गठबंधन का हिस्सा है. बदली हुई परिस्थितियों में राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हम और नई बनी विकासशील इंसान पार्टी साथ मिल कर चुनाव लड़ रहे हैं. दूसरी ओर बीजेपी के साथ जदयू और रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा है. पिछले विधानसभा चुनाव के दो साल बाद नीतीश कुमार जब से वापस एनडीए के साथ लौटे हैं तब से एक बड़ा बदलाव यह हुआ है कि बीजेपी के साथ रहते हुए नीतीश ने नरेंद्र मोदी का विरोध करके अपनी जो सेकुलर छवि बनाई थी वह पूरी तरह से टूट गई है. वे मोदी को बीजेपी के चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाने का विरोध करते हुए बीजेपी से अलग हुए थे. इसलिए 2014 में उनको जो करीब 16 फीसदी वोट मिला था उसमें अच्छी खासी संख्या मुस्लिम वोट की भी थी. 2015 में भी वह वोट उनको मिला क्योंकि वे राजद और कांग्रेस के साथ लड़ रहे थे. पर इस बार यह वोट उनके साथ नहीं है. दूसरे, जब महादलित नेता के तौर पर जीतन राम मांझी का चेहरा उनके साथ था. वे भी अब उनके साथ नहीं हैं और महादलित चेहरा दिखाने के लिए उनको कांग्रेस से अशोक चौधरी को अपनी पार्टी में लाना पड़ा.

सो, बदली हुई परिस्थितियों में बिहार की राजनीति को समझने के लिए पार्टियों को पिछले दो चुनावों में मिले वोट को जोड़ कर नतीजे निकालने की बजाय बिहार के सामाजिक समीकरण को पहले समझना होगा. बिहार में पिछड़ी और अतिपिछड़ी जातियों की आबादी 51 फीसदी है, जिसमें अकेले यादव आबादी 14 फीसदी है. इनके अलावा कोईरी आठ और कुर्मी चार फीसदी हैं. अतिपिछड़ा आबादी 26 फीसदी है. मुस्लिम आबादी 17 फीसदी है. दलित और महादलित मिला कर 16 फीसदी वोट है और सवर्ण आबादी 15 फीसदी है. इसमें सबसे ज्यादा छह फीसदी भूमिहार हैं. ब्राह्मण पांच, राजपूत तीन और कायस्थ एक फीसदी हैं.

अब अगर गठबंधन की पार्टियों के वोट का हिसाब लगाएं तो राजद गठबंधन में यादव, मुस्लिम, गैर पासवान दलित, कोईरी और अतिपिछड़ी जातियों में से सबसे मजबूत मल्लाह शामिल हैं. इनका वोट 50 फीसदी से ज्यादा हो जाता है. 14 फीसदी यादव, 17 फीसदी मुस्लिम, 11 फीसदी गैर पासवान दलित, आठ फीसदी कोईरी और करीब चार फीसदी मल्लाह को मिलाएं तो 54 फीसदी वोट बनता हैं.

दूसरी ओर बचा हुआ 46 फीसदी वोट है, जिसमें 15 फीसदी सवर्ण, पांच फीसदी पासवान, चार फीसदी कुर्मी और मल्लाह छोड़ कर सारी अति पिछड़ी जातियां हैं, जिनकी आबादी 22 फीसदी के करीब है. यह गठबंधन के हिसाब से जातियों का एक मोटा बंटवारा है. इसमें से कुछ वोट इधर उधर भी होंगे. जैसे यादव वोट बीजेपी को भी मिलेंगे पर उसी तरह से कुछ सवर्ण वोट कांग्रेस को भी मिलेंगे और दूसरी सहयोगी पार्टियों को भी मिलेंगे. हर जाति का कुछ कुछ वोट सबको मिलेगा. पर मोटे तौर पर बिहार की जातियों के बंटवारे के हिसाब से राजद, कांग्रेस गठबंधन की पकड़ ज्यादा वोटों पर दिख रही है.

अब अगर सीटवार देखें, जहां बीजेपी चुनाव लड़ रही है तो वहां भी आंकड़ा ऐसा ही दिखेगा. बीजेपी जिन 17 सीटों पर लड़ रही है उनके नाम हैं – पाटलिपुत्र, पटना साहिब, आरा, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, शिवहर, मधुबनी, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, महाराजगंज, सारण, बक्सर, सासाराम, बेगूसराय, अररिया, औरंगाबाद और उजियारपुर. बीजेपी ने पिछली बार जीती जो पांच सीटें छोड़ी हैं, वे हैं – गया, वाल्मिकीनगर, सिवान, गोपालगंज और झंझारपुर. बहरहाल, बीजेपी जिन 17 सीटों पर लड़ रही है उसमें से दस सीटों पर उसकी स्थिति बहुत अच्छी मानी जा रही है. पर बाकी सात सीटों पर घमासान लड़ाई है. इस विश्लेषण का शुद्ध आधार सामाजिक समीकरण है. मोदी, मोदी के हल्ले के बावजूद बिहार में वोट जाति के आधार पर हो रहा है. मोदी, मोदी का सबसे ज्यादा हल्ला करने वाले भूमिहार पूर्वी चंपारण, मुंगेर, बेगूसराय, जहानाबाद जैसी अनेक सीटों पर अपनी जाति के उम्मीदवार के साथ गए हैं. ऐसे ही राजपूत वैशाली, बक्सर, बांका, महाराजगंज जैसी कई सीटों पर अपनी जाति के उम्मीदवार के साथ हैं.

सबसे पहले बीजेपी के लिए आसान मानी जा रही सीटों को देखें. पाटलिपुत्र, शिवहर, मधुबनी, दरभंगा, पश्चिमी चंपारण, मुजफ्फरपुर, महाराजगंज, सारण, बेगूसराय और औरंगाबाद की सीट बीजेपी के लिए आसान है. पाटलिपुत्र सीट पर राजद ने लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती को उतार कर रामकृपाल यादव के लिए लड़ाई आसान कर दी. वहां सवर्ण खास कर भूमिहार आबादी बहुत बड़ी संख्या में है, जिसका वोट बीजेपी को मिलेगा. इस सीट पर लालू खुद भी हारे हैं और मीसा भारती भी हार चुकी हैं.

शिवहर में तेज प्रताप और तेजस्वी के झगड़े में राजद ने मुस्लिम उम्मीदवार उतारा, जिससे रमा देवी की लड़ाई आसान हुई. अगर वहां राजद का राजपूत उम्मीदवार होता तो लड़ाई मुश्किल होती. मधुबनी में निर्दलीय लड़ गए डॉक्टर शकील अहमद ने बीजेपी के अशोक यादव की राह आसान कर दी है तो दरभंगा में राजद के अब्दुल बारी सिद्दीकी की वजह से वोटों का ध्रुवीकरण होना तय माना जा रहा है, जिसका फायदा बीजेपी के गोपाल जी ठाकुर को मिलेगा.

मुजफ्फरपुर सीट पर दो मल्लाह उम्मीदवारों का मुकाबला है. बीजेपी के अजय निषाद की स्थिति मल्लाह व दूसरी अति पिछड़ी जातियों और भूमिहार वोटों को ध्रुवीकरण की वजह से मजबूत है. महाराजगंज में बीजेपी और राजद दोनों के राजपूत उम्मीदवार हैं पर लालू प्रसाद के साले साधु यादव के निर्दलीय चुनाव लड़ने से वहां राजद को नुकसान हो रहा है. सारण सीट पर तेज प्रताप यादव खुद ससुर चंद्रिका यादव का विरोध कर रहे हैं. बेगूसराय में सीपीआई के कन्हैया कुमार और राजद के तनवीर हसन के लड़ने से बीजेपी को गिरिराज सिंह को फायदा हुआ है. औरंगाबाद सीट पर 1952 के बाद से सिर्फ राजपूत सांसद ही जीता है. इस बार भी इसी वजह से सवर्ण मतों का ध्रुवीकरण हुआ है. जीतन राम मांझी की पार्टी हम ने इस सीट पर कुशवाहा उम्मीदवार दिया पर वह पिछड़ी जातियों को एकजुट नहीं कर पाया.

अब जिन सीटों पर बीजेपी के लिए मुश्किल है उन पर नजर डालें. पटना साहिब, आरा, पूर्वी चंपारण, बक्सर, सासाराम, अररिया और उजियारपुर मुश्किल सीटें हैं. पूर्वी चंपारण सीट पर बीजेपी के दिग्गज नेता राधामोहन सिंह चुनाव लड़ रहे हैं. उनको रालोसपा के आकाश प्रसाद सिंह चुनौती दे रहे हैं. वे भूमिहार हैं और पूरे बिहार में नरेंद्र मोदी व बीजेपी का सबसे कट्टर समर्थक माने जाने वाले भूमिहार जाति के नाम पर उनको वोट कर रहे हैं. इस सीट पर 17 लाख वोट में ढाई लाख यादव और तीन लाख के करीब मुस्लिम हैं. दो लाख भूमिहार और डेढ़-डेढ़ लाख कुशवाहा व मल्लाह वोट हैं. राधामोहन सिंह की अपनी जाति का वोट सिर्फ 50 हजार है. वे करीब सवा तीन लाख वैश्य वोट के सहारे टक्कर देने की उम्मीद कर रहे हैं.

आरा सीट पर आरके सिंह की लड़ाई मुश्किल इसलिए हुई है क्योंकि राजद ने यह सीट सीपीआई माले के लिए छोड़ी है, जिसके राजू यादव चुनाव लड़ रहे हैं. ऐसे ही बक्सर में राजपूत मतदाता बीजेपी के अश्विनी चौबे को छोड़ कर राजद के जगदानंद सिंह के नारे लगा रहे हैं, इससे बीजेपी की मुश्किल बढ़ी है. सासाराम में मीरा कुमार की वजह से लड़ाई कांटे की टक्कर में बदली है. उजियारपुर सीट पर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय इस बार अपनी जाति के वोट नहीं ले पाए हैं तो बिहार में भूमिहार उम्मीदवार कम उतारने का दोषी मानते हुए भूमिहारों ने भी उनका विरोध किया है. इससे रालोसपा के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा की लड़ाई आसान हुई है.

झारखंड में गणित बीजेपी के खिलाफ

बिहार से उलट और उत्तर प्रदेश से मिलते जुलते अंदाज में झारखंड में गणित भी बीजेपी के खिलाफ है और सामाजिक समीकरण भी बीजेपी के खिलाफ है. वैसे बीजेपी ने सामाजिक समीकरण और वोट की केमिस्ट्री सही करने के लिए आजसू के साथ तालमेल का विस्तार किया है और पहली बार अपनी इस सहयोगी पार्टी को लोकसभा की एक सीट दी है. बीजेपी की सहयोगी आजसू इस बार गठबंधन में गिरिडीह लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही है, जहां पांच बार से बीजेपी जीत रही थी. झारखंड में आदिवासी के बाद सबसे ज्यादा मजबूत माने जाने  वाले महतो वोट के लिए बीजेपी ने आजसू को एक सीट दी, जहां से चंद्रप्रकाश चौधरी चुनाव लड़ रहे हैं.

उनके अलावा एक अपनी सीट पर भी बीजेपी ने महतो उम्मीदवार दिया है और इस बार राजद से लाकर अन्नपूर्ण देवी के रूप में एक यादव उम्मीदवार भी उतारा है. इस तरह बीजेपी ने आदिवासी के अलावा सवर्ण, वैश्य, महतो, यादव और दलित का समीकरण बनाने का प्रयास किया है.

पर बीजेपी के साथ मुश्किल यह है कि राज्य में रघुवर दास की सरकार ने जमीन से जुड़े कानूनों में जो बदलाव किया और डोमिसाइल कानून में जैसा बदलाव किया उससे जमीनी स्तर पर पार्टी का समीकरण बिखरा है. इसके बावजूद पार्टी के नेता मोदी, मोदी के हल्ले से कई सीटों पर चुनाव जीतने की उम्मीद कर रहे हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा, घर में घुस कर मारने वाले मोदी के भाषण और मुस्लिमफोबिया की वजह से कई जगह ध्रुवीकरण की उम्मीद की जा रही है. पर वोटों को गणित और सामाजिक समीकरण के हिसाब से देखें तो बीजेपी के लिए सारी सीटें मुश्किल लड़ाई वाली दिख रही हैं.

सबसे पहले 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव के आंकड़ें को देखें तब भी पता चलता है कि महागठबंधन बनने से क्या बदलाव होगा. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी सुनामी थी तब बीजेपी सभी 14 सीटों पर लड़ी थी और उसको 40 फीसदी वोट मिले थे. उसने 12 सीटें जीत ली थीं. उसकी सहयोगी आजसू तब अलग लड़ गई थी और उसको 3.7 फीसदी वोट मिले थे. उसका वोट बीजेपी के साथ जोड़ने पर उसका आंकड़ा 43.7 फीसदी का बनता है.

दूसरी ओर विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस को कोई सीट नहीं मिली थी पर उसे 13.3 फीसदी वोट मिले थे. झारखंड मुक्ति मोर्चा को 9.3 फीसदी वोट मिले और उसने दो सीटें जीतीं. बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम सभी 14 सीटों पर लड़ी और उसे 12 फीसदी वोट मिले. तृणमूल कांग्रेस पार्टी को 2.4 और राजद को 1.2 फीसदी वोट मिले थे. अगर विपक्ष के इस वोट को मिला दें तो इसका आंकड़ा 38 फीसदी वोट का बनता है. इस लिहाज से बीजेपी गठबंधन वोट में आगे है. पर विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा बदल गया. 2014 के अंत में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी 40 से घट कर 31.3 फीसदी पर आ गई. उसकी सहयोगी आजसू को 3.7 फीसदी ही वोट मिले. दोनों का वोट करीब 35 फीसदी बनता है. दूसरी ओर झारखंड मुक्ति मोर्चा को 20.4, कांग्रेस को 10.5 और जेवीएम को दस फीसदी वोट मिले. इनका साझा वोट प्रतिशत 41 फीसदी हो जाता है. यानी बीजेपी और उसकी सहयोगी से छह फीसदी ज्यादा. इसमें राजद और मधु कोड़ा की पार्टी का वोट भी इस बार कांग्रेस गठबंधन में जुड़ गया है.

बीजेपी इस बार 13 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. गिरिडीह सीट उसने आजसू को दी है बाकी – रांची, खूंटी, लोहरदगा, पलामू, चतरा, जमशेदपुर, सिंहभूम, हजारीबाग, धनबाद, कोडरमा, गोड्डा, दुमका और राजमहल सीटों पर बीजेपी लड़ रही है. इनमें से दुमका और राजमहल छोड़ कर बाकी 11 सीटें बीजेपी ने जीती थीं.

इस बार सारी विपक्षी पार्टियों के एक साथ आने से बीजेपी के लिए लड़ाई मुश्किल हुई है. जमीन से जुड़े दो कानूनों- संथालपरगना टेनेंसी एक्ट, एसपीटी और छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट यानी सीएनटी को बदलने के कारण बीजेपी आदिवासियों के बीच बेहद अलोकप्रिय हुई है. रांची से सटे कई जिलों में पत्थलगड़ी का अभियान भी बीजेपी विरोध का प्रतीक है, जिसमें आदिवासियों ने राज्य की सत्ता को मानने से इनकार कर दिया था.

इस तरह के अलग अलग कारणों से बीजेपी आदिवासियों और दलितों में अलोकप्रिय हुई है. गिरिडीह के ब्राह्मण सांसद रविंद्र पांडेय और कोडरमा के भूमिहार सांसद रविंद्र राय की टिकट काटने से बीजेपी के सबसे मजबूत सवर्ण समर्थक भी नाराज हैं. मुस्लिम और ईसाई मतदाता पूरी तरह से बीजेपी को हराने के लिए प्रतबिद्ध है, जिनकी संख्या झारखंड में अच्छी खासी है. इसका नतीजा यह है कि चार-पांच सीटों को छोड़ कर बाकी सीटों पर बीजेपी-आजसू गठबंधन की स्थिति अच्छी नहीं है.

सबसे बीजेपी के लिहाज से मजबूत सीटों पर नजर डालें. धनबाद, चतरा, हजारीबाग और जमशेदपुर को बीजेपी की मजूबत सीट माना जा सकता है. जमशेदपुर सीट जेएमएम के खाते में है, जिसने आदिवासी प्रत्याशी चंपई सोरने को उतारा है. इससे कास्मोपोलिटन संरचना वाले जमशेदपुर में लड़ाई बीजेपी के निवर्तमान सांसद विद्युत वरण महतो के लिए आसान हो गई है. ऐसे ही चतरा में महागठबंधन टूट गया है. कांग्रेस के मनोज यादव के मुकाबले राजद के सुभाष यादव भी मैदान में हैं. इससे तमाम नाराजगी के बावजूद बीजेपी के सुनील सिंह के लिए लड़ाई आसान हो गई है.

हजारीबाग में कांग्रेस ने आखिरी समय तक टिकट रोके रखा और अंत में पता नहीं किस वजह से कारोबारी गोपाल साहू को टिकट दे दिया, जिससे जयंत सिन्हा की लड़ाई आसान हो गई. धनबाद में कांग्रेस ने दरभंगा के निवर्तमान सांसद कीर्ति आजाद को उम्मीदवार बनाया है. उनके बारे में कहा जा रहा है कि सेलिब्रेटी उम्मीदवार होने की वजह से वे बहुत जुझारू अंदाज में नहीं लड़ रहे हैं.

हालांकि इसी इलाके की एक सीट से बीजेपी के विधायक संजीव सिंह के भाई के निर्दलीय चुनाव लड़ जाने से राजपूत बंटने की संभावना जताई जा रही है. अगर ऐसा होता है तो बीजेपी के लोकसभा उम्मीदवार पीएन सिंह के लिए लड़ाई आसान नहीं रह जाएगी. बीजेपी की सहयोगी आजसू के लिए गिरिडीह की सीट अपेक्षाकृत आसान दिख रही है. जेएमएम और आजसू दोनों के उम्मीदवार एक जाति से हैं और चुनाव से पहले आजसू उम्मीदवार चंद्रप्रकाश चौधरी ने जेएमएम के एक विधायक जेपी पटेल को तोड़ लिया. इससे समीकरण उनके पक्ष में दिख रहा है.

बाकी नौ सीटों पर महागठबंधन की स्थिति मजबूत दिख रही है. राजधानी रांची में बीजेपी ने अपने कई बार के सांसद रामटहल चौधरी की टिकट काट कर संजय सेठ को उम्मीदवार बनाया. अब रामटहल चौधरी निर्दलीय चुनाव लड़े हैं और कुर्मी वोट में बहुत बड़ी सेंध लगाई हैं. इसके उलट कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय के समर्थन में कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम और राजद गठबंधन ने पूरी ताकत लगा कर चुनाव लड़ा है. लोहरदगा और खूंटी दो सीटों का फैसला ईसाई मतदाताओं की वोटिंग से होता दिख रहा है. दोनों जगह ईसाई मतदाताओं की बहुत भारी संख्या है और कांग्रेस के उम्मीदवारों को उनका एकतरफा वोट मिला है. सिंहभूम सीट पर मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा कांग्रेस की टिकट पर लड़ रही हैं.

पिछली बार वे निर्दलीय लड़ी थीं और तब कांग्रेस के उम्मीदवार चंद्रसेन शिंकू को एक लाख 15 हजार वोट मिले थे. गीता कोड़ा इससे कम वोट के अंतर से हारी थीं. सो, इस बार कांग्रेस की टिकट से लड़ने पर उनको एडवांटेज माना जा रहा है. बीजेपी ने निवर्तमान सांसद लक्ष्मण गिलुआ को टिकट दिया है, जिनके खिलाफ एंटी इन्कंबैंसी भी मानी जा रही है. उधर कोडरमा में इस बार बीजेपी ने अपने सांसद रविंद्र राय की टिकट काट कर उनकी जगह राजद की नेता अन्नपूर्ण देवी को टिकट दिया है. उनके खिलाफ गैर यादव वोटों के ध्रुवीकरण की चर्चा है. आदिवासी और गैर यादव वोटों की वजह से मरांडी की स्थिति मजबूत मानी जा रही है.

संथालपरगना इलाके में गोड्डा सीट पर पिछली बार निशिकांत दूबे वोटों को बंटवारे से जीती थे. कांग्रेस के फुरकान अंसारी को उन्होंने 60 हजार वोट के अंतर से हराया था, जबकि मरांडी की पार्टी जेवीएम के प्रदीप यादव को एक लाख 92 हजार वोट मिले थे. इस बार प्रदीप यादव महागठबंधन से लड़ रहे हैं और तभी उनकी स्थिति मजबूत मानी जा रही है. दो अन्य सीटें दुमका और राजमहल की हैं, जो पिछली बार भी जेएमएम ने जीती थी. इस बार भी शिबू सोरेन और विजय हांसदा की स्थिति मजबूत मानी जा रही है. बिहार से सटे इलाके की पलामू सीट पर राजद के उम्मीदवार घूरन राम की स्थिति बीजेपी के निवर्तमान सांसद वीडी राम के मुकाबले अच्छी मानी जा रही है.

साभार: नया इंडिया 


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