राफेल सौदे में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में छिपाई हकीकत


centre silent in note to supreme court on pmo role in rafale deal

 

कल अंग्रेजी अखबार दि हिन्दू ने दावा किया था कि राफेल सौदे में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ने दखल दिया. अखबार ने 24 नवंबर 2015 की तारीख वाले रक्षा मंत्रालय का एक नोट के हवाले से यह दावा किया था कि पीएमओ की ओर से राफेल सौदे में किए गए दखल से रक्षा मंत्रालय और सौदे के लिए बने भारतीय खरीद दल की स्थिति कमजोर हुई.

जाहिर है कि इस खबर के सामने आने के बाद देश की राजनीति में भूचाल आ गया. जहां राहुल गांधी ने राफेल सौदे में सीधे तौर पर प्रधानमंत्री के शामिल होने का आरोप लगाया, वहीं रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने संसद में दि हिन्दू की रिपोर्ट को गड़े मुर्दे उखाड़ने वाला कहा. उन्होंने रिपोर्ट के दावों को खारिज करते हुए कहा कि सौदे की प्रगति को जानना हस्तक्षेप नहीं कहा जा सकता.

हालांकि रिपोर्ट में एक तथ्य ऐसा भी था, जिसका नरेंद्र मोदी सरकार के पास अब तक कोई सीधा जवाब नहीं है. रिपोर्ट के अनुसार, अक्टूबर 2018 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि राफेल सौदे में पीएमओ की कोई भूमिका नहीं रही है.

वास्तव में, कोर्ट में दाखिल अपने जवाब में सरकार ने दो अहम बातों को छुपाया है. सरकार ने कोर्ट को बताया था कि राफेल सौदे पर बातचीत वायु सेना के डिप्टी-चीफ के नेतृत्व वाली सात सदस्यीय समिति ने ही की है. इसमें पीएमओ की कोई भूमिका नहीं रही है.

हालांकि सरकार ने कोर्ट में इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी कि पीएमओ फ्रांस के रक्षा मंत्री के कूटनीतिक सलाहकार से 36 राफेल एयरक्राफ्ट के सौदे पर समानांतर बातचीत कर रहा था. असल में, रक्षा मंत्रालय की ओर से गठित खरीद समिति (आईएनटी) इस सौदे पर फ्रांस सरकार से औपचारिक बात कर रही थी.

सुप्रीम कोर्ट में दायर केंद्र के जवाब को मामले में अन्य याचिकाकर्ताओं के साथ साझा किया गया था, जिसमें सौदे के संबंध में रक्षा मंत्रालय की ओर से उठाई गई आपत्तियों का कहीं भी जिक्र नहीं है.

दूसरी अहम बात है दोनों देशों के बीच हुए इस सौदे पर फ्रांस सरकार की ओर से कोई संप्रभु गारंटी नहीं दी गई. इसकी जगह भारत सरकार ने फ्रांस सरकार से लेटर ऑफ कंफर्ट (Letter of Comfort) मांग की थी. संप्रभु गारंटी के तहत सौदे के नियम और शर्तों के संबंध में गारंटी दी जाती है. यह कानूनी तौर पर मान्य होता है जबकि लेटर ऑफ कंफर्ट के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती. सरकार इस बारे में भी सुप्रीम कोर्ट में चुप रही.

इसके अलावा, सरकार ने कहा था कि राफेल के दाम, डिलवरी और रखरखाव जैसे तमाम पक्षों पर भारतीय खरीद दल (आईएनटी) ने ही फ्रांस सरकार से बात की है.

सरकार ने बताया, “आईएनटी ने सौदे पर फ्रेंच प्रतिनिधियों से मई 2015 और अप्रैल 2016 के बीच बातचीत हुई. इस दौरान उनके बीच कुल 74 मीटिंग हुई.” आईएनटी ने राफेल सौदा डिफेंस एक्विजिशन काउंसिल (डीएसी) की देख-रेख में किया. डीएसी रक्षा मंत्री की अध्यक्षता में देश में होने वाली रक्षा खरीद के लिए बना सबसे अहम विभाग है.

इन मीटिंग में आईएनटी ने डीएसी के निर्देश पर राफेद के दाम, रखरखाव की शर्ते, डिलवरी, इंटर गवर्मेंट एग्रीमेंट की शर्तों पर बातचीत की.

आईएनटी ने सौदे पर अपनी फाइनल रिपोर्ट 21 जुलाई, 2016 को तैयार की थी. इसके बाद रिपोर्ट 4 अगस्त, 2016 को अनुमति और चर्चा के लिए रक्षा मंत्रालय को सौंप दी. इसके बाद रक्षा मंत्रालय ने सौदे पर वित्त मंत्रालय के साथ न्याय और कानून मंत्रालय के सुझाव लिए.

लेकिन इस पूरे जवाब में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं है कि इस दौरान सौदे में सरकार का क्या हस्तक्षेप रहा जबकि दि हिन्दू के दावे से यह स्पष्ट है कि फ्रांस सरकार से सौदे में गारंटी के तौर पर ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ लिया.

इतना ही नहीं न्याय और कानून मंत्रालय ने पीएमओ से इस फैसले पर मंत्रालयों की मीटिंग में सवाल खड़े किए थे. मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए कहा था कि सौदे के लिए संप्रभु गारंटी लेना जरूरी है.

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में याचिकाकर्ता यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और प्रशांत भूषण ने भी सवाल खड़े किए थे कि ‘लेटर ऑफ कंफर्ट’ की कोई कानूनी वैधता नहीं होती है. प्रशांत भूषण ने याचिका में कहा था कि, “इस सौदे में देश का काफी रुपया लगा है. अगर भविष्य में दसाल्ट एवियेशन विमान की डिलीवरी करने से मना कर देती है तो कौन जिम्मेदार होगा? कानून मंत्रालय ने यह फैसला पीएमओ पर छोड़ दिया था.”

कोर्ट की सुनवाई से भी पता चलता है कि कानून मंत्रालय ने फ्रांस सरकार से संप्रभु गारंटी न दिए जाने पर सवाल खड़े किए थे. मंत्रालय ने दोनों देशों के बीच 23 सितंबर, 2016 को साइन हुए इंटर गवर्मेंट एग्रीमेंट से पहले ही इस पर सवाल खड़े कर दिए थे.

इन सभी तथ्यों से साफ हो गया है कि सरकार ने सौदे में अपनी भूमिका होने की बात छुपाई है. सरकार लगातार ‘संप्रभु गारंटी’ को ‘लेटर ऑफ गारंटी’ जैसा ही बताती रही जबकि दोनों में बहुत बड़ा फर्क था.


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