जीरो बजट खेती की संभावनाएं और चुनौतियां
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 17वीं लोकसभा के पहले बजट भाषण में ‘जीरो बजट प्राकृतिक खेती’ का जिक्र करते हुए जड़ों की ओर लौटने पर जोर दिया. आज खेती में बढ़ती लागत से किसानों की आर्थिक परेशानी बढ़ी है और खेती में कीटनाशक और उर्वरकों पर बढ़ती निर्भरता से स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों खतरे में हैं. ऐसे में जीरो बजट प्राकृतिक खेती या जीरो बजट खेती एक विकल्प बनकर उभरी है.
जीरो बजट खेती को आगे बढ़ाने पर जोर देते हुए निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में कहा, “हमें इस इनोवेटिव मॉडल को दूसरी जगहों पर भी अपनाना चाहिए, कई राज्यों में किसान इसमें पारंगत हो चुके हैं. स्वतंत्रता के 75वें साल में इस तरह के कदम किसानों की आय को दोगुना करने में मददगार होंगे.”
आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश सहित देश के कई राज्य जीरो बजट खेती की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं. बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्यों में भी सरकार ने अपनी नीति में आर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने का लक्ष्य रखा है.
जीरो बजट प्राकृतिक खेती क्या है?
जीरो बजट प्राकृतिक खेती सदियों से चली आ रही परंपरागत खेती का ही परिवर्तित रूप है. जिसमें किसी भी प्रकार के रसायन जैसे कि रासायनिक खाद, कीटनाशक और अन्य पीड़कनाशकों का इस्तेमाल नहीं होता है.
अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के मुताबिक जीरो बजट खेती का विचार सबसे पहले रासायनिक खाद, कीटनाशक और भरपूर सिंचाई आधारित हरित क्रांति के विकल्प के तौर पर महाराष्ट्र के कृषि वैज्ञानिक पद्म श्री सुभाष पालेकर ने 1990 में दिया.
पालेकर का मानना है कि किसानों पर बढ़ते कर्ज और आत्महत्या की प्रमुख वजह खेती में बाहरी लागत के बढ़ते दाम हैं. इसके साथ ही खेती में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और भूमि की उर्वरा शक्ति प्रभावित हो रही है. बाजार से निर्भरता खत्म करने से किसानों के खर्च में कटौती होगी और उन्हें लोन लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इससे कई छोटे किसानों को कर्ज के फंदे से मुक्ति मिल सकती है.
जीरो बजट प्राकृतिक खेती में रसायनिक खाद की जगह भूमि की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति को बढ़ावा देने पर जोर दिया जाता है. इसमें रासायनिक खाद के विकल्प के तौर पर ‘जीवमृथा’ का इस्तेमाल होता है. इसे देशी गाय के गोबर, गौमूत्र, गुड़, दाल का आटा, पानी और मिट्टी का किण्वित माइक्रोबियल मिश्रण से बनाया जाता है. ये सभी स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होते हैं और किसान को इसे बाजार से खरीदने की जरूरत नहीं होती है. यह जैविक मिश्रण खेत की उर्वरा शक्ति को बढ़ाने के साथ-साथ सूक्ष्म जीवों और केचुओं को सक्रिय कर खेतों में होने वाली जैविक प्रक्रियाओं को बढ़ावा देता है और तीन साल के बाद खेत को बाहरी उर्वरक की जरूरत नहीं रह जाती है.
पालेकर के मुताबिक 200 लीटर जीवमृथा घोल का छिड़काव महीने में दो बार खेतों में करना चाहिए.
इसी तरह से बीजों को फंगस और अन्य क्षतियों से बचाने के लिए स्वदेशी और प्राकृतिक तरीके से बने बीजअमृत से उपचारित करने की सलाह दी जाती है. इसे नीम के पत्ते और छाल, तम्बाकू और हरी मिर्च के मिश्रण से बनाया जाता है. यह बीजों को कीट और अन्य पीड़कों से बचाने में काफी मददगार साबित हुआ है.
जीरो बजट प्राकृतिक खेती में मिट्टी में वायु के प्रवाह, नियंत्रित सिंचाई, बहुफसल, मेढ़ बनाना, खेत की ऊपरी मिट्टी की उर्वरा शक्ति बढ़ाने पर जोर होता है. पालेकर ऑर्गेनिक खेती के मुख्य तत्व वर्मी कंपोस्ट के हिमायती नहीं है. उनका मानना है कि इस तरह के वर्मी कंपोस्ट में यूरोपियन रेड विग्लर (खास तरह का केंचुआ) का इस्तेमाल होता है, यह हानिकारक धातुओं को अवशोषित कर लेता है जो भूमिगत जल और मिट्टी को जहरीला बनाते हैं.
जीरो बजट प्राकृतिक खेती जरूरी क्यों है?
खेती में बढ़ती लागत और किसानों के कर्ज के दुरूह चक्र के बाद जीरो बजट प्राकृतिक खेती की जरूरत बढ़ गई है. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस(एनएसएसओ) की ओर से जारी डाटा के मुताबिक 70 फीसदी किसान अपनी कमाई से अधिक खर्च करते हैं और आधे से अधिक किसान कर्ज में डूबे हैं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में 90 फीसदी से अधिक किसान कर्ज में दबे हुए हैं. यहां प्रत्येक परिवार पर औसतन एक लाख रुपये का कर्ज है. साल 2020 तक किसानों की आय को दोगुना करने के लक्ष्य में कृषि लागत घटाने और उन्हें लोन से बचाने के लिए जीरो बजट कृषि और पैदावार बढ़ाने के लिए बहुफसल को बढ़ावा देने का प्रावधान है.
कितना कारगर है जीरो बजट खेती?
जीरो बजट खेती के मिले-जुले परिणाम देखने को मिले हैं. साल 2017 में आंध्र प्रदेश में एक अध्ययन में दावा किया गया कि जीरो बजट खेती को अपनाने से लागत में जबरदस्त कमी दर्ज की गई और पैदावार में वृद्धि हुई. जबकि पालेकर के गृह राज्य महाराष्ट्र में ही किसानों ने पैदावार में कमी आने के बाद कुछ साल बाद दोबारा प्रचलित तरीके से खेती करनी शुरू कर दी.
जीरो बजट खेती को लेकर राज्यों की नीति क्या है?
इकॉनोमिक सर्वे के मुताबिक राज्य की सरकारों के सहयोग से फिलहाल करीब 1,000 गांव के 1.6 लाख किसान जीरो बजट खेती कर रहे हैं. जबकि स्वतंत्र रूप से करीब 30 लाख किसान किसी न किसी तरह से जीरो बजट खेती की तकनीक को अपनाया है.
किसानों के संगठन कर्नाटक राज्य रथ संघ ने राज्य में जीरो बजट खेती को अपनाने के लिए अभियान चलाया और लोगों को इसके बारे में जानकारी मुहैया करवाई.
जून 2018 में आंध्र प्रदेश ने साल 2024 तक 100 फीसदी प्राकृतिक खेती का लक्ष्य रखा है. इसके तहत राज्य की 80 लाख हेक्टेयर जमीन को रसायनों के उपयोग से मुक्त करना है.
कितनी तैयार है सरकार?
आम बजट 2019 में जीरो बजट खेती पर जोर के बावजूद केन्द्र सरकार ने इसके लिए अलग से कोई फंड जारी नहीं किया है. केन्द्र सरकार ने पहले से चल रही दो केन्द्रीय योजनाओं-राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाय) और परंपरागत कृषि विकास योजना के लिए जारी फंड के इस्तेमाल की अनुमति राज्य सरकार को दे दी है. राज्य सरकार इस फंड का इस्तेमाल जीरो लागत खेती, वैदिक फार्मिंग, प्राकृतिक कृषि, गौ कृषि और अन्य परंपरागत खेती की तकनीक को बढ़ावा देने के लिए कर सकने में स्वतंत्र है.
इस साल कृषि और संबंधित सेक्टर को गति देने और हरित क्रांति की मुख्य योजना आरकेवीवाय के लिए 3,745 करोड़ रुपये जारी किए गए हैं. इसके साथ ही परंपरागत कृषि योजना के लिए 325 करोड़ रुपये का फंड दिया गया है.
आंध्र प्रदेश सरकार ने दावा किया है कि पिछले ढाई साल में जीरो बजट खेती को आगे बढ़ाने के लिए इन दोनों योजनाओं के तहत मिले फंड में से 249 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं. राज्य का अनुमान है कि 60 लाख किसानों को इसके दायरे में लाने के लिए 17,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त फंड की जरूरत होगी.
नीति आयोग, पालेकर के विचारों और जीरो बजट खेती के प्रमोशन में काफी सक्रिय रहा है. हालांकि इससे जुड़े विशेषज्ञ जीरो बजट खेती को देश भर में फैलाने और आगे बढ़ाने से पहले अलग-अलग क्षेत्रों में इसके दूरगामी परिणामों पर व्यापक अध्ययन की बात कहते हैं.
इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च, उत्तर प्रदेश के मोदीपुरा, पंजाब के लुधियाना, उत्तराखंड के पंतनगर, हरियाणा के कुरुक्षेत्र में जीरो बजट से बासमती चावल और गेहूं की खेती के परिणामों का अध्ययन कर रही है.
नीति आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार ने कहा कि अगर परिणाम सकारात्मक रहे तो जीरो बजट खेती की तकनीक को संस्थानों के द्वारा लोगों तक पहुंचाया जाएगा. आंध्र प्रदेश में इस खेती के परिणामों पर सरकार की नजर है. सबकुछ ठीक रहा तो राज्य को आवश्यक फंड मिलने का रास्ता साफ हो जाएगा.