‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ को बनना होगा जन आकांक्षाओं का दस्तावेज


common minimum program of opposition parties should be stand on people welfare

 

2019 के लोकसभा चुनाव में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को मात देने के लिए विपक्षी पार्टियों की एकता औपचारिक आकार लेती हुई दिख रही है. 13 फरवरी की शाम एनसीपी नेता शरद पवार के आवास पर हुई विपक्षी दलों के नेताओं की बैठक में यह फैसला हुआ कि विपक्ष का एक ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ तैयार किया जाए और मसौदे को तैयार करने की जिम्मेदारी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को दी गई.

एक तरह से देखा जाए तो विपक्षी एकता की दिशा में यह बड़ा कदम है. हालांकि, सिर्फ ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ निर्णायक जीत के लिए पर्याप्त नहीं माना जा सकता. इसके साथ-साथ लोकसभा सीटों पर विपक्षी पार्टियों के बीच का गठबंधन ही कोई कारगर प्रभाव डाल पाएगा. लेकिन इतना तो तय है कि न्यूनतम साझा कार्यक्रम एक ऐसा दस्तावेज है, जो मतदाताओं को भावी सरकार की नीतियों की झलक दे सकता है (अगर उसका ठीक से प्रचार किया जाए).

‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ गठबंधन की राजनीति का एक खास हिस्सा रहा है. 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद जब केंद्र में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो पहली बार न्यूनतम साझा कार्यक्रम की व्यवस्था को औपचारिक रूप मिला. ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ में संयुक्त मोर्चा सरकार ने लोकसभा चुनाव की जीत को केंद्र में धर्मनिरपेक्ष, उदार और लोकतांत्रिक गठबंधन सरकार के लिए जनादेश बताया था.

1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए ने लोकसभा चुनाव के पहले ही न्यूनतम साझा कार्यक्रम की घोषणा कर दी थी. ताकि मतदाताओं को गठबंधन की एकता का संदेश दिया जा सके. उस ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ में बीजेपी ने राम मंदिर समेत उन सभी विवादित मुद्दों से पल्ला झाड़ लिया था, जिससे गठबंधन की अन्य पार्टियों को आपत्ति थी.

यूपीए का गठन 2004 के चुनाव के बाद हुआ था, इसलिए सरकार बनने के बाद ही ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ तैयार हो सका. न्यूनतम साझा कार्यक्रम में ही राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून का जिक्र था, जिसे बाद में नरेगा/मनरेगा कहा गया. 2009 में यूपीए को दोबारा बहुमत हासिल हुआ. बावजूद इसके कि अमेरिका से परमाणु समझौते के मसले पर 2008 में ही वामपंथी दलों ने उसका साथ छोड़ दिया था.

2014 में एनडीए ने मिलकर लोकसभा चुनाव तो लड़ा था, लेकिन बीजेपी को अपने बूते ही बहुमत हासिल हो गया. इसका नतीजा यह हुआ कि मोदी सरकार को किसी ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ की जरूरत ही महसूस नहीं हुई. देश में जो एकाधिकारवादी और व्यक्तिवादी सत्ता निर्मित हुई है, यह उसकी बड़ी वजह है. कई राजनीतिक विशेषज्ञ आंकड़ों और विश्लेषण के आधार पर यह बता चुके हैं कि गठबंधन सरकार और ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ जनहित में ज्यादा फायदेमंद होते हैं.

लेकिन सवाल उठता है कि विपक्षी दलों के ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ में ऐसे कौन से मुद्दे होने चाहिए, जो पिछली सरकारों से अलग हों और मतदाताओं की उम्मीदों पर खरा उतरें? इसके लिए जनता की समस्याओं और आकांक्षाओं की सही पहचान जरूरी है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि आर्थिक उदारवाद की नीतियों की कई नाकामियों की वजह से दुनिया के ज्यादातर देशों में एक दक्षिणपंथी उभार आया है. और उसकी अलग-अलग अभिव्यक्ति हम देख रहे हैं. भारत भी इससे अछूता नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से देश में जो धार्मिक उन्माद और कट्टरता का माहौल बना है, वो मोटे तौर पर इसी की देन है. लेकिन यहां इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि दुनिया भर में दक्षिणपंथी उभार का मुकाबला यथास्थितिवादी नीतियों से नहीं, बल्कि ज्यादा स्पष्ट जनपक्षधर नीतियों से किया जा रहा है.

भारत के विपक्षी पार्टियों के पास भी यही विकल्प है. सत्ता परिवर्तन के लिए राजनीतिक दृष्टि में एक बड़े बदलाव की जरूरत है. बशर्ते, सिर्फ चुनाव जीतना ही उनका मकसद न हो, बल्कि जनता के विश्वास को बनाए रखने और देश की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों में एक सकारात्मक और सार्थक हस्तक्षेप की मंशा हो.

फिलहाल दो ऐसे दस्तावेज सार्वजनिक दायरे में मौजूद हैं जो विपक्षी दलों के ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ की बुनियाद बन सकते हैं. खुद कांग्रेस पार्टी ने ही मार्च, 2018 में हुए अपने महाधिवेशन के दौरान कई मसौदा दस्तावेजों को पेश किया था. उनमें भारत में आर्थिक स्थिति, राजनीतिक परिस्थिति, कृषि, रोजगार, गरीबी उन्मूलन और विदेश नीति को लेकर कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव हैं. मसलन, करोड़ों युवाओं के लिए रोजगार उत्पन्न करना, गरीबों के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था करना, एक व्यवस्थित श्रम नीति बनाना, ठेका मजदूरों के शोषण को रोकना, सबके लिए आर्थिक समृद्धि, महिला सशक्तिकरण, किसान और किसानी की रक्षा आदि. राहुल गांधी ने पिछले दिनों रायपुर में यह बात भी कही थी कि सत्ता में आने पर गरीबों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी का कानून भी बनाया जाएगा.

इसके अलावा दूसरा दस्तावेज इस साल फरवरी के पहले सप्ताह में गणमान्य नागरिकों के एक समूह ‘रिक्लेमिंग द रिपब्लिक’ ने जारी किया है. इस समूह के सदस्यों में पूर्व जज, नौकरशाह, वकील, पत्रकार, प्रोफेसर, अर्थशास्त्री आदि शामिल हैं. उन्होंने नई सरकार के लिए 19 बिंदुओं का एजेंडा सामने रखा है. इसमें ज्यादातर मुद्दों को शामिल किया गया है. लोकतांत्रिक अधिकारों, सामाजिक न्याय, कल्याणकारी राज्य और प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर कई ऐसे सुझाव दिए गए हैं, जो भावी सरकार की कार्यनीति का हिस्सा हो सकते हैं.

ये मुद्दे इसलिए भी अहम हैं क्योंकि मौजूदा सरकार के दौरान सामाजिक-राजनीतिक मूल्य और संस्थाओं का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई बहुत जरूरी है.

लेकिन ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ अस्पष्ट वादों और बड़ी-बड़ी बातों का दस्तावेज नहीं हो सकता. इस मामले में 2014 का अनुभव भारतीय जनता के लिए एक बड़ी सीख रही है. इसलिए जरूरी यह है कि विपक्षी पार्टी लोगों की ठोस जरूरतों को समझते हुए ‘न्यूनतम साझा कार्यक्रम’ बनाएं और उसे लागू करने की ढृढ़ता भी दिखाएं. क्योंकि सवाल सिर्फ यह नहीं है कि 2019 में सरकारी किसकी बनेगी, सवाल देश के भविष्य का भी है.


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