बुनकर चीन से मुकाबला तो नहीं कर पाए, बर्बाद जरूर हो गए


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ठीक पांच बरस पहले 24 अप्रैल, 2014 को आबो-हवा में एक अजीब सी कैफ़ियत थी. बनारस बकौल मार्क ट्वेन इतिहास से भी पुराना नगर ख्वाबों का दरीचा मालूम पड़ रहा था. बस चंद रोज का फासला और जिंदगी संवर जाने ही वाली थी. एक ऊंची जगह से दूर-दराज से आया कोई वैभवशाली आदमी बता रहा था, “न ही मुझे किसी ने भेजा है, न मैं खुद आया हूं मुझे मां गंगा ने बुलाया है.”

भीड़ दम साधे सुन रही थी जिनमें इतिहास की रवायतें ढोते आ रहे बुनकर भी शामिल थे. कहीं कोई सवाल-जवाब नहीं था, बनिस्पत आंखों में छलकती उम्मीद के.

देश का निज़ाम बदलने की तैयारी रफ्तार में थी. अवाम इस बेगैरत उम्मीद पर जीने मरने की कसमें खाने लगी कि कोई उसकी ज़िन्दगी को बदल देगा. उसकी परेशानी को जादू की छड़ी जैसे होने वाले असर के साथ रफा-दफा कर देगा. अलाउद्दीन का चिराग उसके हवाले कर दिया जाएगा.

चंद रोज बाद वही मसीहाई तेवर देश का प्रधानमंत्री होता है. लोग-बाग़ अपने बटुवे में पड़ी रेजगारी गिनते हैं और पता चलता है उनका कम होना बदस्तूर जारी है. तो फिर वो अच्छे दिन का वादा क्या था? क्या वो कोई तिलिस्मी कहानी थी जो हमें हमारे बचपन में सुनाया गया? और उन बुनकरों का क्या हुआ जो इस उम्मीद में थे की कोई उनकी जिंदगी में बढ़ते जा रहे गांठ को खत्म कर देगा.

उस वक़्त तो भावी प्रधानमंत्री ने खुद कहा था, “मैं बुनकरों की जिंदगी को बेहतर बनाना चाहता हूं. बुनकरों के कपड़े को टेक्नोलॉजी, मार्केटिंग और डिजाइनिंग से जोड़ने पर काशी का बुनकर भी चीन से मुकाबला कर सकता है.” तब भावी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यहीं तक नहीं रुके थे, उन्होंने आगे कहा, “मेरे ऊपर भरोसा रखिए बनारस के बुनकर भाइयों, मैं एक साल के भीतर दुनिया में आपके हुनर का डंका बजा दूंगा.”

वो कोई कीमियागर का दावा था

पांच साल बीत गए. मोदी सरकार के गिनती के दिन बचे हैं. देश में नई सरकार की तैयारी चल रही है. नरेन्द्र मोदी एक बार फिर उसी इलाके से उसी जनता के सामने हैं. लेकिन हाल यह है कि बनारस का बुनकर चीन से मुकाबला तो नहीं कर पाया, बर्बाद जरूर हो गया.

यह कोई इकबालिया बयान नहीं है, सरकारी फाइलें ही चीख-चीख कर बुनकरों की बर्बादी बयान कर रही है. और केन्द्र की मोदी सरकार को बुनकरों की दयनीय हालत का कोई इल्म तक नहीं है. मार्च 2017 में कपड़ा राज्य मंत्री अजय टम्टा ने एक सवाल के जवाब में सदन को बताया था, सरकार को बुनकरों की दयनीय स्थिति से जुड़ी कोई रिपोर्ट नहीं मिली है. हालांकि प्रधानमंत्री ने एक साल के भीतर ही उनकी जिंदगी को बदल कर रख देने का वादा कर आए थे.

यही नहीं मोदी सरकार ने बुनकरों के लिए चलाए जा रहे विभिन्न योजनाओं में 87 फीसदी तक की भारी वित्तीय कटौती की है. राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम(एनएचडीपी) में 62 फीसदी की कटौती की गई. 2013-14 में इस योजना के तहत 433 करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता का प्रावधान था, वहीं 2016-17 तक यह घटकर 160 करोड़ तक आ गया. इसी तरह हथकरघा बुनकर व्यापक कल्याण योजना में भी 71 फीसदी की कटौती देखने को मिली है. 2013-14 में इस योजना के हिस्से 95 करोड़ का बजट था जो 2016-17 में घटकर महज 28 करोड़ रह गया. हैंक यार्न जिसे हथकरघों के लिए सबसे बेहतर माना जाता है,के लिए दिए जाने वाले वित्तीय सहायता में 84 फीसदी की कटौती की गई है. 2015-16 में हैंक यार्न पर 10 फीसदी सब्सिडी के रूप में जहां 143 करोड़ खर्च किया गया था, तीन साल के भीतर ही 2018-19 में 23 करोड़ तक आ गया.

एक बुनकर दिन-रात लगकर अपनी महीन कारीगरी से ऐसे कपड़े बुनता है जिसकी हर तरफ धूम होती है. देश-विदेश में हजारों लाखों के दाम में बिकते हैं. उसकी यह कारीगरी किसी बंद, अंधेरे सीलन भरे कमरे में चल रही होती है. चारों ओर फैला रुई और गर्द का गुबार उसके फेंफड़ों तक जाता है. और धीरे-धीरे उसका जिस्म चलता फिरता बीमारी का घर होता है. टीबी इन बिमारियों में आम है. हालात यह है कि या तो बुनकर बेमौत मर रहे होते हैं या बदहाली से तंग आकर आत्महत्या कर बैठते हैं. राष्ट्रीय चेनेथा जन समख्या का मानना है कि 2014 से 2017 के बीच ही बनारस में 50 बुनकरों ने आत्महत्या की है. हालांकि सदन में कपड़ा मंत्री ने ऐसी जानकारी को एकदम नकार दिया है. यही नहीं उनकी बेहतर जिंदगी का वादा करने वाली मोदी सरकार ने भी उनके लिए चलाई जा रही स्वास्थ्य बीमा योजना में 87 फीसदी की भारी कटौती की है. प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो के मुताबिक बुनकरों की स्वास्थ्य बीमा योजना के लिए 2013-14 में 49.21 करोड़ का फंड था जो 2016-17 में घटकर 6.63 करोड़ रह गया.

प्रधानमंत्री के संसदीय इलाके में बुनकरों की हालत

साल 2014 के चुनावी मौसम में नरेन्द्र मोदी के तमाम वादों की हकीकत कुछ ऐसी हैं कि बुनकर आज भी उसी बदहाली में जी रहे हैं. इसका बयान सरकार की ओर से कराए गया सर्वे में सामने आया है. कपड़ा मंत्रालय की ओर से कराए गए इस सर्वे में यह बात सामने आई है कि बनारस में बुनकरों की माली हालत में कोई बदलाव नहीं आया है. सरकार के स्वच्छता अभियान के बावजूद उसी तरह गंदी बस्तियों में रहने को मजबूर हैं. वो आज भी बिजली, पानी, सड़क से कोसों दूर हैं. सामाजिक सुरक्षा के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं है. मोदी सरकार की जन-धन योजना हो या प्रधानमंत्री बीमा योजना, उन्हें योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाया.

वैसे तो बुनकर हमेशा से तंगहाल जिंदगी जीने को अभिशप्त रहे हैं लेकिन नोटबंदी ने उनके पेट पर लात मार दी. मीडिया रिपोर्ट्स बताती हैं कि नोटबंदी से पहले जहां वो 100-125 रुपये तक कमा लेते थे इसके बाद से उनका यह रोजगार भी जाता रहा. वजह यह रही कि जब धंधा ही नहीं बचा तो मजदूरी कहां से मिलती. हालत यह हुई है कि बुनकर अपना घर-बाड़ छोड़कर दूसरे शहरों में विस्थापित हो रहे हैं. डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब एक दशक पहले तक करीब पांच लाख बुनकर इस रोजगार से जुड़े थे. वहीं विस्थापना की वजह से इनकी तादात दो लाख रह गई है.

बनारस की कई पहचान है. इनमें से एक बुनकरों का शहर होना भी है. कोई यहां आकर अपनी चर्चा में बनारस के घाट की ही तरह बुनकरों को शामिल नहीं करे तो उसकी बात पूरी नहीं होती. इस इलाके के कामगारों को लेकर 2014 के चुनाव प्रचार में प्रधानमंत्री ने कहा था कि बुनकरों को लेकर उनकी होलिस्टिक एप्रोच है. मतलब एक ऐसा सपना जो उनकी जिंदगी में रौशनाई भर देगा. सवाल आज भी वही है. बल्कि और गहरे हो चले हैं. बुनकर बर्बाद हो गए या उन्हें बर्बाद होने को छोड़ दिया गया? प्रधानमंत्री के होलिस्टिक एप्रोच का क्या हुआ? बुनकर चीन से कहां तक मुकाबला कर पाया?


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