क्या कांग्रेस लगा पाएगी घुमंतू समुदाय के जख्मों पर मरहम?


congress presented its plan for nomads

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2 मई 2019 का कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी का एक फेसबुक पोस्ट कहता है, ‘विमुक्त और अर्ध-घुमंतू जनजातियों ने लंबे समय तक भेदभाव और उपेक्षा का सामना किया है. हमारी सरकार ‘आदतन अपराधी अधिनियम, 1952′ को तुरंत रद्द करेगी, जो भेदभाव और उत्पीड़न का कारण बना हुआ है. कांग्रेस विमुक्त और अर्ध-घुमंतू जनजातियों की जनगणना और आंकड़ों लिए विशेष जनगणना का वादा करती है.’

घुमंतू, एवं विमुक्त समुदाय का अर्थ क्या है?

आरंभिक युगों में पूरी दुनिया में मनुष्यों के ऐसे समुदाय रहे हैं जो अपने जानवरों और जीवन के लिए आवश्यक चीजों के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाते थे. वे कहीं बसे नहीं थे और अपनी जीवन शैली से राज्य की संरचना में एक धक्का मार देते थे. वे राज्य की उस निर्मिति में समाहित नहीं हो पाते रहे हैं, जो अपने नागरिकों को विभिन्न प्रकार के पहचान पत्रों और सुशासित दायरों में सीमित करने का प्रयास करती है.

भारत की एक बड़ी जनसंख्या घुमंतू रही है. उनके पेशों के बारे में अमरकोष बताता है कि वे नाचने, गाने और करतब दिखाने के लिए जाने जाते थे. पुराणों के लिखे जाने से पहले घुमंतू जन वंशावलियाँ भी गाया करते थे. उनका पेशा ही वंशावलियों को सुरक्षित रखकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित करना था. विश्वंभरशरण पाठक और रोमिला थापर का काम दिखाता है कि सूत, मागध और कुशीलवों ने एक लंबे समय तक इतिहास को सुरक्षित रखा. भारतविद ए. एल. बाशम ने लिखा है कि आठवीं शताब्दी में अरबों की सिंध विजय के बाद मनोरंजन करने वाले समूह यूरोप और अफ्रीका तक जाते थे. पाँचवीं शताब्दी में ससानी राजा बहराम गूर ने दस हजार संगीतज्ञों को आमंत्रित किया और उन्हें पशु, अन्न और गधे दिए, जिससे वे वहाँ बस सकें. उन्होंने पशुओं और अन्न को खा लिया और पहले की भांति घूमते रहे. फिर भी यह घूमना निरूद्देश्य नहीं होता था. वास्तव में घुमंतू समूह परिवहन का हिस्सा थे. घोड़ों, खच्चरों, ऊँटों और बैलों के कारवां के द्वारा उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को जोड़ दिया था.

उपेक्षा, बहिष्करण, कलंक और हिंसा के सामूहिक अनुभव

एक लंबे समय से यह समुदाय उपेक्षा, बहिष्करण, कलंक और राज्य एवं मुख्यधारा के समाज की हिंसा का शिकार रहा है. उनका सम्मान छीन लिया गया और एक प्रकार से उन्हें इतिहास से बेदखल कर दिया गया. इसलिए मीरा राधाकृष्णन ने इन समुदायों को इतिहास से बेइज़्ज़त किए गए लोग कहा है. 1871 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट पास किया गया था, जिसमें 200 के करीब समुदायों को अपराधी घोषित कर दिया गया. इस एक्ट को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब और अवध में लागू किया गया. इसने पुलिस को बहुत अधिकार दिए. समुदायों को पुलिस थाने में जाकर अपना पंजीकरण करवाना होता था. पुलिस उन्हें एक लाइसेंस देती थी. वे पुलिस की अनुमति के बिना जिले से बाहर नहीं जा सकते थे. यदि वे अपना स्थान बदलते तो इसकी सूचना पुलिस को देनी होती थी.

बिना पुलिस की अनुमति से यदि समुदाय का कोई सदस्य एक से अधिक बार अपनी बस्ती या गांव से अनुपस्थित रहता था तो उसे तीन वर्ष तक का कठोर कारावास का भागीदार होना पड़ता था. उनके लिए स्पेशल रिफॉर्म कैंप की भी व्यवस्था की गई जिसमें उन्हें सुधारा जाना होता था. इसका एक प्रभाव यह पड़ा कि घुमंतू लोग बसने लगे और इसी के साथ वे जहाँ भी बसे उस बस्ती को पुलिस की सीधी नजर में लाया गया. इन बस्तियों को कलंकित बस्ती होने में देर ना लगी.

1871 के क्रिमिनल ट्राइब एक्ट से स्थानीय जमींदारों को भी जोड़ दिया गया था जिसमें जमींदारों को न केवल पंजीकरण में पुलिस की सहायता करनी होती थी बल्कि वे पंजीकृत समुदायों के सदस्यों की खोज-खबर भी रखते थे. पचास वर्ष बाद 1921 में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट का विस्तार किया गया और कई अन्य समुदाय इस कानून की जद में ले आए गए.

संविधान सभा और आज़ाद भारत में घुमंतू और विमुक्त समुदाय

इन समुदायों को कोई नारायण गुरु, जयपाल सिंह मुंडा, डाक्टर आंबेडकर और डाक्टर लोहिया नहीं मिला. उनकी समस्याएं और जीवन उस तरह से पढ़े-लिखे लोगों की नजर में नहीं आ सका जैसे आदिवासी और दलित जनों की समस्याएं और जीवन सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में आए. फिर भी भारत के लिए संविधान बनाने वाली संविधान सभा में एच. जी. खांडेकर जैसे दलित राजनेता थे जिन्होंने इनके मुद्दे उठाए. संविधान सभा की बहसों में इन घुमंतू और विमुक्त समुदायों की बात एच. जे. खांडेकर ने बड़ी ही शिद्दत से उठायी थी. श्री खांडेकर दलित नेता थे और संविधान सभा में मध्य प्रांत और बरार का प्रतिनिधित्व करते थे.

12 जनवरी 1947 को उन्होंने भारत की संविधान सभा के समक्ष कहा कि दुःख की बात यह है कि हिंदुस्तान के अंदर एक करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें जन्म लेते ही बिना किसी जुल्म के जरायमपेशा बना दिया जाता है और हिंदुस्तान के अंदर करीबन कई लाख लोग हैं जिनकी औरतें, आदमी और बच्चों को इस कानून के मातहत जरायमपेशा बना दिया गया है. चाहे वह चोर हों या न हों, लेकिन जिस दिन वे जन्मते हैं, उस दिन से उन्हें चोर बना दिया जाता है.

21 नवम्बर 1949 को उन्होंने संविधान सभा का ध्यान एक बार फिर आकर्षित करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संविधान के अधीन बोलने की आजादी और कहीं भी आने-जाने की आजादी दी जा रही है लेकिन देश के एक करोड़ अभागे नागरिकों को आने जाने की आजादी नहीं है. यहाँ के अपराधी जनजातियों को कहीं भी आने-जाने की सुविधा अभी प्राप्त नहीं है. इस संविधान में इनके बारे में कुछ नहीं कहा गया है. क्या शासन ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ को हटाकर उन लोगों को स्वतंतत्रा प्रदान करेगा ?

खांडेकर साहब की बात सुनी गई. 1952 में 1871 का क्रिमिनल ट्राइब एक्ट समाप्त कर दिया गया. जो समुदाय ‘नोटीफाइड’ थे, अब वे ‘डि-नोटीफाइड’ हो गए. पहले वे चोर कहे जाते थे. अब कहा गया, ‘अब आप चोर नहीं माने जायेंगे.’ लेकिन यह आजादी कुछ ही दिन की थी. पुलिस और गृह विभाग के दवाब में ‘हैबीचुअल ऑफेंडर एक्ट’ पारित किया गया. इसके तहत वे फिर पुलिस की निगहबानी में आ गए.

आज की राजनीति में घुमंतू, एवं विमुक्त समुदाय जरुरी कैसे हो गए हैं?

राहुल गाँधी और कांग्रेस ने इसी एक्ट को समाप्त करने की बात की है. यदि ऐसा हो सका तो यह एक ऐतिहासिक कदम होगा. सदियों से संतप्त समुदायों के लिए यह कदम मरहम का काम करेगा.

वास्तव में अब इन समुदायों को और ज्यादा उपेक्षित नहीं किया जा सकता है. आज घुमंतू और विमुक्त समुदायों के लोग भारतीय राजनीति और चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की हालत में आ गए हैं. कम से कम ग्रामसभा के स्तर पर वे चुनाव जीत रहे हैं. विधानसभा और लोकसभा के चुनाव भी वे प्रभावित कर रहे हैं.

इन समुदायों की बेहतरी के लिए पिछले दस वर्षों में उनके लिए दो आयोग गठित किए जा चुके हैं. एक का गठन डाक्टर मनमोहन सिंह के समय हुआ और दूसरे का गठन नरेंद्र मोदी के समय.

यूपीए के समय गठित बालकृष्ण रेनके कमीशन ने 2008 में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में इनकी संख्या 10 से 12 करोड़ बताई थी. उसने इन समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत आरक्षण की वकालत की थी. इसके लिए भारत के संविधान के अनुच्छेद 330 और अनुच्छेद 332 में संशोधन की भी सिफारिश की गई थी. इन समुदायों के लिए विशेष शैक्षिक कार्यक्रम और वजीफों के साथ ही साथ स्वास्थ्य पर ध्यान देने की बात की गई थी. कुछ छोटे-मोटे कदम उठाए भी गए लेकिन रेनके कमीशन की अधिकांश सिफारिशों को ठंडे बस्ते में ही रखा गया.

इसके बाद 2014 में एनडीए की सरकार आई. उसने भिकूजी इदाते कमीशन गठित किया. इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है. इदाते आयोग ने कहा है कि यह समुदाय गरीबों में भी सबसे ज्यादा गरीब, सबसे ज्यादा हाशियाकृत है और सामाजिक कलंक, बहिष्करण और अत्याचारों का शिकार है. आयोग ने एक ऐसे संविधान संशोधन की सिफारिश की है जिसके द्वारा उनके लिए अलग श्रेणी बनाई जा सके. सरकार उन्हे मजबूत विधिक और संवैधानिक उपायों से लैस करे जिससे उनका उत्पीड़न रूक सके. अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए बने आयोगों की तर्ज पर नीति आयोग ने उनके लिए एक स्थायी आयोग गठित करने की सिफारिश की है. वर्ष 2019 में प्रस्तुत बजट में भी इन समुदायों के लिए एक छोटी सी राशि का आवंटन किया गया था. अहमदनगर और त्रिपुरा की अलग- अलग रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा भी है उनकी सरकार घुमंतू समुदायों के कल्याण के लिए काम कर रही है.

इधर कांग्रेस ने इन समुदायों के लिए अपनी सांस्कृतिक नीति भी घोषित की है. उसने अपने घोषणा पत्र में घुमंतू समुदायों की भाषा को भी शासन में प्रयोग में लाने की बात की है. वास्तव में इन समुदायों की भाषा और साहित्य की लगातार उपेक्षा की गई है. यदि कोई भी सरकार यह काम करती है तो निश्चित ही यह एक बेहतर कदम होगा.


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