दलित पॉप में झलकता अस्मिता का संघर्ष


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गीत, संगीत का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन के अतिरिक्त सूक्ष्म मानवीय इच्छाओं और आशाओं का प्रकटीकरण है. इसी संदर्भ में देश में दलित उद्भव के गीत दलितों के बीच बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं. दलित गायकों की एक नई पौध खड़ी हो गई है. यह सिलसिला लगभग पिछले एक दशक से दिखाई दे रहा है. इन गीतों की शुरुआत पंजाब से मानी जा सकती है. ये दलित गीत मुख्य तौर पर इस प्रकार के हैः-

1.        दलित संतो यथा गुरु रविदास, वाल्मिकी की शिक्षाओं पर आधारित गीत

2.        सामाजिक, राजनीतिक उद्भव की बात करने वाले गीत

3.        निजी इच्छाओं, उद्भव, बराबरी का दावा, जातीय दमन, उत्पीड़न का वर्णन करने वाले गीत

भारत मे अभी भी लोकप्रिय मनोरंजन माध्यमों में दलित पात्र न के बराबर होते थे, अब फंड्री, सैराट के माध्यम से दलित फिल्मों ने भी दस्तक दी है. ऐसे समाज मे जहां जाति बताने पर भेदभाव की आशंका हो, खासतौर पर दलित होने पर तो यह समस्या और भी बढ़ जाती है, इस प्रकार के गीत क्यों बढ़ रहे हैं. इसका बड़ा कारण अपनी एक नई पहचान बताना है.

दलितों को लेकर आम बोलचाल की भाषा में नकारात्मक स्टीरियोटाइप समाज में व्याप्त हैं, जातीय नाम का बार बार इन गानों में उल्लेख करना उसी नकारात्मक पहचान से मुक्ति पाने का संघर्ष भी है. दलित सदैव दीन हीन ही दर्शित होते हैं.

कंठ कलेर के गाने ‘पुत्त रविदास गुरु दे’ के वीडियो में आलीशान गाड़ियों एवं भव्य महलनुमा मकान दर्शित है. पंजाब के दलित उद्भव में कनाडा, अमेरिका, यूरोप गए दलितों और उनके ऊंचे होते आर्थिक हालात के कारण भी इन गानों एवं अन्य कलाओं में बढ़ोतरी हुई है.

आर्थिक रूप से सशक्त होने के बाद  पंजाब  के  दलित अपनी मजबूत दावेदारी पेश कर रहे हैं. पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी दलित जातियों के युवक अपनी अपनी जातीय पहचान पर दावेदारी करते हुए एलबम्स निकाल रहे हैं, यूट्यूब पर आज बहुतायत में ये गीत उपलब्ध हैं. इन गीतों के कारण होने वाला बदलाव धीमा जरूर है लेकिन मजबूत है. अब रविदास जयंती, अम्बेडकर जयंती, वाल्मीकि जयंती में दलितों के पास झूमने के लिए अपने सामाजिक गीत हैं, अब वे श्रृंगार रस के फिल्मी गीतों पर आश्रित नहीं रहे.

इन गीतों को गाने वाले ,लिखने वाले ज्यादातर व्यक्ति निम्न मध्यम वर्ग एवं मध्यम वर्ग के दलित हैं जो इस बात का सूचक भी है कि आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर भी तथाकथित हीन जाति का पुछल्ला लगा रहता है इसलिए जातीय नाम को एक नई पहचान देनी है.

पंजाब के दलित सिख गायक परमजीत पम्मा का कहना है कि उन्होनें 2009 में ऑस्ट्रिया में हुई रविदासी सम्प्रदाय के संत रामानंद जी की हत्या के बाद दलितों को लेकर गीत गाने शुरू किए. इस विषय में उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि पंजाब में जाट जाति को गंवार एवं मूर्ख समझा जाता था, उसके बाद जाट जाति के गायकों ने अपनी जाति का महिमामंडन करते हुए अनेक गीत गाए. ये गीत फिल्मों में आए, कैसेटस/सीडी आई, धीरे-धीरे समाज में यह जाट गीत स्वीकार्य हो गए. एक दिन दलित गीतों की स्वीकार्यता भी सर्वसमाज में होगी और दलितों की छवि में परिवर्तन होगा. यह एक नए कल्चर की शुरूआत है. एक समानांतर कल्चर की शुरुआत.

समाजशास्त्री एतोनियों ग्राम्सी ने कहा था कि किसी भी विचारधारा का संस्थानिक एवं कल्चरल आधार होता है. यह कल्चरल आइडियॉलॉजी ही किसी बड़ी राजनीतिक शक्ति का आधार होती है. बहुजन समाज पार्टी के कई कल्चरल दस्ते भी इन गीतों का प्रचार रैलियों में करते रहे हैं.

प्रतिशत के हिसाब से पंजाब में दलितों की सबसे ज्यादा संख्या है. पंजाब में लगभग 29 प्रतिशत दलित हैं. पंजाब में भूस्वामी जाति जाट है एवं उनका दलितों के साथ कई स्तरों पर संघर्ष भी होता है. पंजाब के गांवो में दलित सिखों एवं जाट सिखों के अलग-अलग गुरुद्वारें भी दिखाई देते हैं. दलितों के इन गावों को जाटों का ही काउंटर कल्चर कहा जा सकता है. ऐसे बहुत से गाने हैं जिनमें जाटों की वीरता का उनके उच्च सामाजिक स्तर का बखान होता है.

गायक परमजीत सिंह पम्मा कहते हैं कि हम दूसरी जातियों के गाने पर क्यों नाचे जब हम अपनी जाति के ऊपर बने हुए गानों पर भी नाच सकते हैं. उन्हें सुन सकते हैं. 

पंजाबी गायक एस.एस. आजाद की एल्बम ‘‘पूत चमार दे’’ से इस सिलसिले की शुरुआत हुई थी. यह एल्बम 2010 में आई थी. कुछ लोगों के अनुसार यह एल्बम ‘पूत जाट दे’ के जवाब में आई थी. इस एल्बम में एक गीत के बोल थे ‘हाथ लेकर हथियार, जब निकले चमार’’

ऐसा ही एक गीत है ‘‘वाल्मिकियां के मुंडे नहीं डरदे, मजहबी सिखा दे मुंडे नहीं डरदे.’’ गिन्नी माही का एक गीत आजकल यूट्यूब पर बहुत प्रसिद्ध हुआ “मैं फैन बाबा साहिब दी, जिन्ना लिखिया सी संविधान.”

पंजाबी की शीर्ष गायिका मिस पूजा भी दलित समाज से हैं. मिस पूजा ने कई दलित गीत गाए जिनमें एक बहुत प्रसिद्ध है, “सारे कर लो एका, बेगमपुरा बसाना है.” बेगमपुरा, गुरू रविदास की ऐसी संकल्पना है जहां कोई गम ना हो.

बेगमपुरा की संकल्पना यूरोपियन समाज में कल्पित यूटोपिया के समान है बल्कि उससे कही ज्यादा विकसित हैं. क्योंकि गुरु रविदास के वचन थे, ‘‘ऐसा चांहू राज में, जहां रहे सभी प्रसन्न, मिले सभी को अन्न. इस प्रकार की संकल्पना में राजनीतिक विचारधारा के बीज है जो गीतों के रूप में प्रकट हुई है.

पंजाब के रविदासी डेरों की भी इन गीतों के प्रसार में भूमिका हैं. डेरा सचखंड बल्ला ने रविदासी गीतों की कई सीडी तैयार करवा के रिलीज की. पंजाब की देखादेखी आज लगभग पूरे भारत में दलित उद्भव के गीत गाए जा रहे हैं. जिनमें दलित अपने जातीय नामों का उल्लेख करके समाज में एक सम्मानित स्थान पाने का प्रयास कर रहे हैं. पंजाब के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, यूपी में ऐसे अनेक दलित गीत लिखे जा रहे हैं और वीडियो रिकॉर्ड करके सीडी की शक्ल में और यूट्यूब पर भी पोस्ट किए जा रहे हैं. यूट्यूब पर इस प्रकार के गीतों पर भद्दे जातीय कमेंट भी आते हैं.

दलित गायक रूप लाल धीर का कहना है कि हमारा संगीत दलित समर्थक है ना कि किसी जाति के खिलाफ.  इस प्रकार के गीतों को दलित पॉप और चमार पॉप कहा जा रहा है.

कला के इस माध्यम से पहचान और अस्मिता का यह संघर्ष आकर्षक हो जाता है क्योंकि इसमें रचनात्मक संघर्ष की झलक दिखाई पड़ती है और हिंसा को बढ़ावा नहीं मिलता. ऐसे समाज में जहां जातीय अपमान को प्रतिष्ठित करते मुहावरें प्रचलित हों वहां अस्मिता के लिए दलित गीतों का विकास जरूरी भी है.

लेखक ने नेपाल एवं भारत की दलित राजनीतिक कला पर पीएचडी की है.


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