नोटबंदी खा गई निवेश, लेकिन सरकार नहीं बताना चाहती ये सच!


nirmala sitharaman announces merger of ten banks

 

क्या पचास साल से अधिक पुराने इनकम टैक्स एक्ट, 1961 को नए नियमों से बदलने का प्रस्ताव रखने वाली टास्क फोर्स की रिपोर्ट को केवल इसलिए दबा दिया गया क्योंकि यह अनजाने ही सही लेकिन फॉर्मल सेक्टर पर नोटबंदी से पड़े नकारात्मक प्रभाव के बारे में डेटा प्रदान कर रही थी?

असल में सितंबर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इनकम टैक्स एक्ट, 1961 को दोबारा से ड्राफ्ट करने की बात कही थी. 22 नवंबर 2017 को वित्त मंत्रालय ने प्रत्यक्ष कर को लेकर नए नियम-कानूनों को ड्राफ्ट करने के लिए एक टास्क फोर्स को नियुक्त किया था.

19 अगस्त 2019 को टास्क फोर्स की यह रिपोर्ट वित्त मंत्रालय के समक्ष पेश की गई.

टैक्स डिपार्टमेंट के कार्पोरेट कंपनियों और व्यक्तियों के वार्षिक टैक्स रिटर्न डाटाबेस का अध्ययन करते हुए रिपोर्ट में नए प्रत्यक्ष कर कानून के लिए नियमों को ड्राफ्ट करने के साथ दो वैकल्पिक दृष्टिकोणों को सामने रखा गया.

टास्क फोर्स की इस रिपोर्ट ने इस बात के सबूत पेश किए कि नोटबंदी से कॉरपोरेट कंपनियों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा हो सकता है.

इस रिपोर्ट में दिखाया गया कि वित्त वर्ष 2016-17 में कंपनियों का कुल निवेश गिरकर 4,25,051 करोड़ हो गया. पिछले वित्त वर्ष के मुताबिक इसमें 60 प्रतिशत की कमी आई.

2010-11 से लेकर 2016-17 तक अगर सात वित्त वर्षों में अगर कंपनियों के कुल निवेश की बात करें तो जीडीपी में हिस्सेदारी के प्रतिशत के रूप में यह कमी बहुत ज्यादा नजर आती है. इन वित्त वर्षों में कंपनियों के कुल निवेश की जीडीपी प्रतिशत हिस्सेदारी क्रमश: 15, 10.5, 10.2, 9.8, 9.0, 7.5 और 2.7 प्रतिशत रही.

जरूरी बात यह है कि कंपनियों के निवेश में आई कमी के आंकड़े कंपनियों के अपने हैं ना कि किसी सर्वे से. इस तरह से ये आंकड़े इस बात के पक्के सबूत हैं कि नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदी को जन्म देने में एक बड़ा योगदान दिया है.

इस रिपोर्ट में एक और स्तब्ध करने वाला तथ्य सामने आया कि जिन 7,80,216 कंपनियों ने वित्त वर्ष 2016-17 में टैक्स रिटर्न फाइल किया, उनमें से लगभग 46 प्रतिशत ने अपने बहीखाते में घाटे की बात कही. वित्त वर्ष 2012-13 में घाटे में रहने वाली कंपनियों का हिस्सा केवल तीन प्रतिशत था. मात्र चार वित्त वर्षों में यह 42 फीसदी बढ़ गया.

इस रिपोर्ट में बताया गया कि वित्त वर्ष 2012-13 से लेकर 2016-17 में विनिर्माण क्षेत्र में टैक्स रिटर्न फाइल करने वाली कंपनियों की हिस्सेदारी में कमी आई है. वित्त वर्ष 2012-13 के मुकाबले 2016-17 में यह कमी 47.3 प्रतिशत रही. इसी प्रकार कॉरपोरेट टैक्स देनदारी भी 19 प्रतिशत से बढ़कर 21 प्रतिशत हो गई. वहीं डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स देनदारी भी 1 प्रतिशत से बढ़कर 2 प्रतिशत हो गई.

रिपोर्ट में सामने आया कि वित्त वर्ष 2012-13 के बाद मुनाफा कमाने वाली कंपनियों ने मुनाफे को निवेश करने की जगह उसे अपने पास बनाए रखा.

मोदी सरकार ने वित्त वर्ष 2016-17 की जीडीपी वृद्धि दर को संशोधित करके 7.1 से 8.2 प्रतिशत कर दिया था. इस प्रकार जीडीपी वृद्धि दर के हिसाब से नोटबंदी वाला वित्त-वर्ष मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में सबसे बेहतर रहा. ये तब है जब नोटबंदी वाले वित्त वर्ष में लगभग हर क्षेत्र में बिक्री कम होने की खबरें आईं.

इस तरह सरकार द्वारा वित्त-वर्ष 2016-17 के संशोधित जीडीपी वृद्धि दर के आंकड़े कॉमन सेंस के खिलाफ हैं. प्राइवेट एजेंसियां इन संशोधित आंकड़ों पर पहले ही सवाल उठा चुकी हैं और अब सामने है कि कॉरपोरेट टैक्स फाइलिंग के आंकड़े भी इनके ऊपर सवाल उठा रहे हैं.

वित्त मंत्रालय ने टास्क फोर्स की इस रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया है. यह देखना होगा कि क्या रिपोर्ट पहले चर्चा के लिए पेश की जाएगी या फिर इसे सार्वजनिक करने से पहले कॉरपोरेट टैक्स रिटर्न के उन आंकड़ों को छुपा लिया जाएगा, जो यह बता रहे हैं कि नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र से आगे जाकर संगठित क्षेत्र पर भी नकारात्मक प्रभाव डाला.

इससे पहले सरकार एनएसएसओ के उन आंकड़ों को ना केवल रोक चुकी है, बल्कि उन पर सवाल भी उठा चुकी है, जिनमें बेरोजगारी दर के पिछले 45 सालों में सर्वाधिक होने की बात कही गई है. ये आंकड़ें 2019 आम लोकसभा चुनाव के पहले ही आ गए थे, लेकिन सरकार ने अपनी सहूलियत के हिसाब से इन्हें चुनाव के बाद ही जारी किया था.

यह आलेख मूल रूप से अंग्रेजी दैनिक ‘द हिंदू’ में प्रकाशित हुआ है. इसकी लेखिका पूजा मेहरा दिल्ली स्थित पत्रकार हैं. हमने उनके आलेख के मुख्य अंशों का हिंदी अनुवाद पेश किया है.


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