बेघरों का घर दिल्ली


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दिल्ली के कालका मंदिर के पास के रैन बसेरे में रहने वाली राधा अपने बारे में बताती हैं कि उन्हें नहीं पता कि उनका अपना शहर कौन सा है. उन्होंने जब से होश संभाला है तब से यहीं कालका मंदिर के पास ही रहती आई हैं. राधा ने अपने जैसे ही एक आदमी से शादी की है. जिससे एक सात साल का बेटा है.

राधा के जीवनसाथी फिजिकली चैलेंज्ड हैं. राधा बताती हैं कि वो जिस रैन बसेरे में रहती हैं वो महिलाओं और छोटे बच्चों के लिए है. उनके पति बाहर खुले में या किसी दुकान के सामने सोते हैं. राधा कोठियों में काम करती हैं. इसके अलावा वो एक एनजीओ से भी जुड़ी हैं. कुल मिलाकर वो महीने के 6-8 हजार रुपये कमा लेती हैं. राधा और उनका परिवार खाना कालका मंदिर के भंडारे में खाते हैं.

राधा

निजामुद्दीन शेल्टर होम में रहने वाली रानी बताती हैं कि उनके परिवार में मां और पिताजी हैं. उनके माता पिता दूसरे रैन बसेरे में रहते हैं. चूंकि उनकी मां बुजुर्ग हैं तो वो और उनके पिता एक ही शेल्टर होम में रह लेते हैं. रानी आगे बताती हैं कि निजामुद्दीन शेल्टरहोम में खाना भी मिलता है. लेकिन जिस रैनबसेरे में उनके माता-पिता रहते हैं वहां नहीं मिलता. उनके लिए वो बाहर से खाना खरीदती हैं. रानी एक एनजीओं में नौ हजार मासिक के वेतन पर काम करती हैं.

अंतरंग क्षणों के लिए नहीं है निजी स्पेस  

जामा मस्जिद मीना बाज़ार के शेल्टर होम में रहने वाली तरन्नुम बताती हैं कि वो बचपन से ही दिल्ली में हैं. तरन्नुम फील्डवर्क करती हैं. उनके जीवनसाथी रिक्शा चलाते हैं, और रात में कहीं बाहर सोते हैं. जब मैंने उनसे पूछा कि अपनी अंतरंग क्षणों की जरूरत के लिए उन्हें निजी स्पेस मिल पाता है. तो वो इसका कोई जवाब नहीं देती. अलबत्ता एक गहरी वेदना उनकी आँखों में उतरती स्पष्ट दिखाई देती है.

यही सवाल जब मैंने एक पुरुष बेघर से पूछा तो उन्होंने बताया कि नहीं हमारे पास जगह नहीं हैं. इसके लिए वो किसी पार्क की झाड़ियां, पब्लिक शौचालय, सूनसान अंडरपास आदि जगहों का इस्तेमाल करते हैं. कई बार पकड़े जाने पर पुलिसवाले उन्हें प्रताड़ित करके उगाही भी करते हैं. 

रानी, मोना, तरन्नुम और राधा

बेघर स्त्री के सवाल

सराय काले खां के शेल्टर होम में रहनेवाली मोना के जीवनसाथी मजदूरी करते हैं. मोना बताती हैं कि मजदूरी का काम भी लगातार नहीं मिल पाता है. मोना के तीन बच्चे हैं. बड़े बच्चे की उम्र 10 वर्ष और सबसे छोटे की साढ़े पांच साल है. बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते हैं.

मोना पूछती हैं कि चार साल बाद जब मेरा बेटा 14 साल का हो जाएगा तब उसे मुझसे अलग कर दिया जाएगा. फिर मेरा बेटा मुझसे दूर कहीं बाहर सोने को विवश होगा. क्या मेरी अगली पीढ़ियां भी ऐसे ही रैनबसेरे में भटकते हुए जिंदगियां काटेंगी? क्या मेरा कोई आशियाना नहीं होगा कि जिसमें मेरा पूरा परिवार कभी एक साथ रह सके?          

नगर निर्माता हैं ये बेघर लोग

ये तो सिर्फ चार बेघरों की बातें हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक दिल्ली में ऐसे करीब डेढ़ लाख से ज्यादा लोग बेघर हैं. जबकि भारत में 9.77 लाख लोग बेघर हैं. बेघर होना सामाजिक, राजनीतिक डिसऑर्डर का लक्षण है. बावजूद इसके सरकारी और सामान्य भ्रांतियां बेघरों के बारे में ये है कि ये लोग भिखारी,चोर या ड्रग्स लेने वाले हैं  जोकि गलत है. इनपर मौसम की मार के साथ पुलिस की बेरहम मार भी पड़ती है. अधिकतर जगहों से पुलिस इन्हें बांग्लादेशी कहकर मार भगाती है.

90 फीसदी  बेघर कामगार लोग हैं. कोई वेंडर है, कोई मजदूर है, कोई रिक्शाचालक है, कोई पल्लेदारी करता है, कोई हॉकर है, कोई सफाईकर्मी है. कुल मिलाकर ये लोग नगर निर्माता हैं. बेघर लोग गरीबी के आखिरी पायदान के लोग हैं गांधी जिन्हें अंत्योदय कहा करते थे. इनके प्रति सम्मान की दृष्टि विकसित किए जाने की ज़रूरत है. इन्हें स्किल ट्रेनिंग दिए जाने की ज़रूरत है. जिन्हें समाज से कम मिला है उन्हें सरकार द्वारा ज्यादा दिया जाना चाहिए.

दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड के सदस्य विपिन राय कहते हैं, “रैन बसेरों से जुड़ी मीडिया की पूरी रिपोर्टिंग डेड स्कल डाटा पर चलती है.”

मीडिया रैन बसेरों की रिपोर्टिंग तब करती है जब उसे कोई मौत का आंकड़ा कहीं से मिलता है. भले ही वो आंकड़ा गलत ही क्यों न हो. विपिन राय बताते हैं कि मीडिया पूरे वर्ष के मौत के आंकड़े को ठंड से हुई मौत में जोड़कर दिखाती है. जबकि सबसे ज्यादा मौते जून-जुलाई में होती हैं. बेघरों को गर्मी और बरसात से बचाने के लिए रैन बसेरे बनाने का प्रावधान अभी हमारे देश में नहीं है इसीलिए अस्थायी रैन बसेरे बनाए जाते हैं.

IGSSS की सोशल ऑडिट रिपोर्ट

दिल्ली के 193 रैनबसेरों की सोशल ऑडिट करने वाली संस्था इंडो-ग्लोबल सोशल सर्विस सोसाइटी (IGSSS) ने नौ फरवरी 2019 को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में सोशल ऑडिट रिपोर्ट पेश की. IGSSS की रिपोर्ट के मुताबिक अधिकांश बेघर लोग ट्रांजिटरी फेस में रहते हैं माने आज यहां तो कल वहां.

कई ऐसे हैं जो बहुत समय से दिल्ली में हैं. ये एक जगह विशेष से आए हैं. इसमें 42 फीसदी यूपी के, 37 फीसदी बिहार के और कुछ पश्चिम बंगाल से हैं. इनके दिल्ली में रहने का कारण पूछने पर 84 फीसदी ने रोजगार, और 12 फीसदी बेघरों ने गरीबी को वजह बताया. इन बेघरों में 54 फीसदी  लोग 10 साल से ज्यादा समय से दिल्ली में रह रहे हैं.

96 फीसदी बेघर लोगों को कोई वोकेशनल ट्रेनिंग नहीं मिली है. इन बेघरों में 82 फीसदी  हिंदू हैं और 18 फीसदी मुस्लिम. दिल्ली के कुल बेघरों में 39 फीसदी दलित,  36 फीसदी ओबीसी और 17 फीसदी सामान्य वर्ग के हैं. इन बेघरों में 37 फीसदी  लोग 30-40 आयु वर्ग के, 21 फीसदी लोग 40-50 आयु वर्ग के और 33 फीसदी लोग 19-30 आयु वर्ग के हैं. इन बेघरों में 33 फीसदी शिक्षित और 67 फीसदी लोग अशिक्षित हैं.

बेघर आखिर कैसे और कहां सोते हैं

IGSSS रिपोर्ट बताती है कि 50 फीसदी बेघर लोग खुले फुटपाथ पर सोते हैं जबकि 22 फीसदी शेल्टर होम में और 21 फीसदी लोग दुकानों के सामने और 9 फीसदी लोग फ्लाईओवर के नीचे सोते हैं. एक महीने में 16-25 दिन काम पाने वाले 73 फीसदी हैं, जबकि 25 दिन से ज्यादा काम पाने वाले 20 फीसदी हैं.

बेघर कहां नहाते हैं ये पूछने पर पता चला कि 76 फीसदी  पुरुष सुलभ शौचालय में नहाते हैं. 10 फीसदी सरकारी शौचालय में. 38 फीसदी  बेघर महिलाएं खुले में नहाती हैं. 44 फीसदी सुलभ शौचालय में और 16 फीसदी शेल्टर होम में.

साठ फीसदी बेघरों ने बताया कि वे शेल्टर होम के बारे में जानते हैं. जबकि 70 फीसदी बेघरों ने बताया कि शेल्टर होम में जगह की कमी होने के चलते वो वहां नहीं जाते. बेघर लोगों का सबसे ज्यादा खर्चा खाने पर होता है. ये चौंकाने वाली बात इसलिए भी है कि दिल्ली में सैंकड़ों मंदिर और गुरुद्वारे चल रहे हैं जहां लंगर और भंडारा चलता है. इनमें से अधिकांश के पास करीब 73 फीसदी  के पास आधार कार्ड और 64 फीसदी के पास वोटर कार्ड है पर दिल्ली के बाहर का है.

डीडीए जैसी संस्था की क्रूरता

दिल्ली सरकार और केंद्रीय संस्थाओं के रस्साकशी का खामियाजा कई बार बेघर लोगों को भुगतना पड़ा है. चूंकि जमीन का मामला दिल्ली सरकार के पास अधीन नहीं है.

इंदु प्रकाश और बिनीत रॉय

मई 2017 में नीला गुम्बद निजामुद्दीन पर बने एक रैन बसेरे को डीडीए ने बिना किसी पूर्व सूचना के तोड़ दिया. रैन बसेरे में मौजूद सामानों को हटाने तक का समय नहीं दिया. विरोध करने पर रैन बसेरे में रह रहे स्त्रियों और बच्चों से मारपीट तक की गई थी. तब दिल्ली में कुल चार रैन बसेरे डीडीए द्वारा तोड़े गए.

डीडीए का आरोप था कि ये रैन बसेरे उसकी अनुमति के बगैर बनाए गए हैं. सुप्रीम कोर्ट के मॉनिटरिंग कमेटी के सदस्य इंदु प्रकाश की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने डीडीए पर तब रैनबसेरें को तोड़ने के लिए 25 लाख का जुर्माना किया था.


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