आखिर फिल्मों से क्यों आहत हो जाती हैं धार्मिक भावनाएं?


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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमेशा से ही बहस का विषय रहा है. फिल्में समय-समय पर धीमी पड़ती इस बहस की आग में घी डालने का काम करती रहती हैं. फिल्म पद्मावती पर तमाम हो हल्ला मचने के बाद बीते दिनों एक दूसरी फिल्म केदारनाथ पर जमकर बहस हुई. यह फिल्म अंतरधार्मिक प्रेमकथा पर आधारित है.

भारत जैसे देश में जहां धर्म का राजनीति के साथ बुरी तरह से घालमेल है, दक्षिणपंथी संगठन अक्सर फिल्मों में धर्मिक मामलों को लेकर आपत्ति जताते रहते हैं.

अब इन संगठनों को केदारनाथ फिल्म के साथ ही विरोध और हिंदुत्व के खोखले प्रदर्शन का एक मौका और मिल गया. इस फिल्म में एक हिंदू ब्राह्मण लड़की और एक मुस्लिम पिट्ठू (तीर्थ यात्रियों को पीठ पर ठोने वाला) के बीच प्रेम संबंधों को दिखाया गया है.

फिल्म का टीजर रिलीज होने के साथ ही विवाद की खबरें आने लगी थी. इसकी रिलीज को रोकने की मांग लेकर कुछ धार्मिक संगठन उत्तराखंड हाईकोर्ट भी पहुंच गए. लेकिन कोर्ट ने इस मामले में दखल देने से इनकार कर दिया. कोर्ट ने इस संबंध में फैसला स्थानीय प्रशासन पर छोड़ दिया.

कोर्ट के दखल से इनकार के बाद कट्टरवादी हिंदू संगठनों ने हिंसा का रुख अख्तियार कर लिया. विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू युवा वाहिनी जैसे संगठनों ने फिल्म के पोस्टर फाड़ डाले. सिनेमाघरों को धमकियां दी गईं. फिल्म से जुड़े लोगों के खिलाफ नारेबाजी की गई, उनके पुतले जलाए गए.

इसके बाद मजबूर होकर उत्तराखंड के स्थानीय जिला प्रशासन ने राज्य के सात जिलों में फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी.

विरोध कर रहे हिंदू संगठनों का कहना है कि यह फिल्म लव जिहाद को बढ़ावा देती है. शायद गोहत्या के बाद लव जिहाद वह विषय है जिस पर 2014 के बाद से सबसे ज्यादा खींचतान मची है.

अगर बात करें इस फिल्म के कथानक की तो सारा अली खान और शुशांत राजपूत अभिनीत इस फिल्म की कहानी एक हिंदू पंडित की बेटी और एक मुस्लिम पिट्ठू के बीच प्रेम संबंधों के इर्द-गिर्द घूमती है.

नायक-नायिका के प्रेम संबंधों की खबर जब धर्म के झंडाबरदारों को लगती है तो धार्मिक भावनाओं का तूफान आ जाता है.

कई बार फिल्मों पर विवाद को पब्लिसिटी स्टंट के तौर पर भी देखा जाता है. इससे फिल्मों को प्रचार भी मिलता है. फिर विवादित चीज अक्सर लोगों को आकर्षित करती है.

ऐसे विवादों से किसी को लाभ हो ना हो धर्म की आंच पर अपनी रोटियां सेकने वालों को मौका जरूर मिल जाता है.

राजनीति प्रेरित कट्टरवादी संगठन विरोध का कोई मौका नहीं चूकना चाहते. फिल्म अच्छी है या बुरी यह एक अलग विषय है, बाकी विरोध का मकसद तो सिर्फ राजनीतिक आकाओं का तुष्टिकरण है.


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