तलाक निजी मामला, सामाजिक ठेकेदारी का विषय नहीं


RSS chief's convoy collides with bike, child dies

 

हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि शिक्षित और संपन्न परिवारों में तलाक के मामले ज्यादा होते हैं जिसका कारण अभिमान है और इसका समाधान सिर्फ हिंदू धर्म में है.

संघ के इतिहास और भागवत के खुद के पिछले कई सारे बयानों के मद्देनजर ये बात हैरानी पैदा नहीं करती. देश के मौजूदा हालात इसी सोच और विचारधारा का नतीजा है जहां शिक्षा संस्थानों और जेएनयू और जामिया जैसे विश्वविद्यालयों पर सरकार का हमला और छात्रों पर पुलिस की बर्बरता एक आम हो चुकी है. शायद भागवत के लिए बेटी बचाओ का यही अर्थ है कि एक ऐसे हिंदू समाज का निर्माण करना जहां बेटियां बस अपने घरों की रसोई तक ही महदूद रहें.

भागवत का बयान आरएसएस और बीजेपी की पूरी विचारधारा को बहुत ही कम शब्दों में समेट कर हमारे सामने रखती है. हमारे समाज में पहले से ही तलाक को एक सामाजिक धब्बे के रूप में लिया जाता है और तलाकशुदा महिलाओं का जीवन एक रोजाना जंग में तब्दील हो जाता है जहां वह रिश्तेदारों और समाज से लड़ती रह जाती है.

आरएसएस की मनुवादी विचारधारा औरत के स्वतंत्र जीवन को पूरी तरह से नकार कर उसे सिर्फ उसके पिता, भाई, बेटे की जागीर के रूप में देखता है, जिन रिश्तों के बाहर न उसका कोई वजूद है न कोई जीवन. जहां दुनिया के दूसरे हिस्सों में जीवन का संवाद बदलने की वजह से शादी को नए रूप में देखने और परिभाषित करने की जरूरत पर बात चल रही है तो वहीं वहीं भारत में अभी भी भागवत जैसे लोग तलाक को अनैतिक और एक बुरी चीज के तौर पर पेश करते हैं.

ज्यादातर आर्थिक कारणों के चलते लोग खराब और सड़ी गली शादियों को निभाने पर मजबूर हो जाते हैं और उसमें फंसे रह जाते हैं जिसका उन पर, उनके बच्चों और पूरे परिवार पर एक बहुत ही बुरा असर पड़ता है. यह मानसिक और भावनात्मक रूप से उनके लिए हानिकारक साबित होता है जो कि समाज के लिए भी किसी भी तरह से लाभदायक नहीं है.

भाषा और उसमें मौजूद बारीकियां समाज के आईने की तरह ही होती हैं और शायद इसीलिए हमारे समाज में इसे ‘शादी का बंधन’ कहा जाता है, हम शादी को दो लोगों के बीच के संबंध की बजाय इसे एक बंधन के रूप में ही लेते हैं. किसी बंधन में रिश्ते की गुंजाइश कम ही होती है और फिर उस पर जिंदगी भर निभाने का भार लाद कर उसकी संभावनाएं और भी कम हो जाती हैं.

वहीं शादीशुदा लोगों को एक दूसरे का जीवन साथी कहा जाता जो खुद में तलाक विरोधी ही है और संकेत करता है कि शादी करने वाले लोगों को एक दूसरे के साथ जिंदगी भर रहना चाहिए. कम पढ़े लिखे और आर्थिक रूप से तंग परिवारों से ताल्लुक रखने वाले लोग के लिए उनका परिवार और समाज तलाक लेना नामुमकिन बना देता है और न ही उन लोगों में इस चीज की कोई सामाजिक स्वीकृति है. इसका यह मतलब हरगिज नहीं है कि यह लोग अपनी शादियों में खुश हैं या उनमें अलग होने की कोई प्रवृति ही मौजूद नहीं है.

इंसानी जीवन गतिशील होता है और वक्त के साथ मानसिक और भावनात्मक रूप से विकसित होता जाता है. हर व्यक्ति का यह विकास अलग दिशा और अलग गति से होता है. इंसान का बदलता व्यक्तित्व लाजिम कर देता है कि उसके रिश्तों में भी बदलाव आये पर जहां किसी भी तरह के बदलाव को बुरे नजरिए से देखा जाए वहां प्रगति विरोधी और प्रतिगामी सोच संबंध की जगह बंधन को ही मजबूत करने में लग जाती है.

महिलाओं ने एक लंबे संघर्ष के बाद पढ़ने लिखने, नौकरी करने की आजादी हासिल की है और अभी भी ये बहुत लंबे समय तक चलेगी. शादी लोगों के जीवन का हिस्सा हो सकती है न कि उनका पूरा जीवन और इस बात से नई पीढ़ी वाकिफ है. एक सभ्य समाज में शादी, तलाक, और वैकल्पिक रिश्तों सभी के लिए जगह होनी चाहिए.

दुनिया में आज भी भारत में तलाक के मामले और देशों के मुकाबले बहुत ही कम हैं पर इसकी वजह हिन्दू समाज या रिवायती सोच नहीं बल्कि आर्थिक परेशानियां हैं. लोग अपनी आर्थिक तंगियों के चलते खराब शादियों में फंसे रह जाते हैं और इससे सबसे बुरी तरह प्रभावित महिलाएं ही रहती हैं. खराब शादियों में फंसी महिलाएं जिनमें घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाएं भी आती हैं. अर्थिक परेशानी के साथ-साथ इस बात से भी डर कर उन शादीयों को निभाने पर मजबूर हो जाती हैं कि तलाक को उन्हीं की नाकामी और कमियों का नतीजा ठहराया जाएगा. और तलाक की कम संख्या की सबसे बड़ी वजह उससे जुड़ा सोशल स्टिग्मा ही है न कि खुशहाल शादीशुदा जिन्दगी.

भागवत भारतीय समाज और हिन्दू समाज में कोई खास फर्क नहीं देखते और अपने हिन्दू राष्ट्र के सपने से बाहर नहीं आ पाते हैं. भारत के अलग अलग धर्मों के लोगों के लिए तलाक को राकने के लिए वह हिन्दू समाज के सिवाय कोई विकल्प नहीं मानते. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की इस विचारधारा में और उन लोगों की विचारधारा में कोई फर्क नहीं है जो इस्लामी शरीयत को ही दुनीया की हर समस्या का समाधान मानते हैं.

समाज में विभिन्न किस्म की संस्थाएं एक तरह से इंसानों की जरूरतों के जवाब के तौर पर उभरी हैं तो जहां शादी एक सामाजिक संस्था है वहां एक गुंजाइश तलाक के लिए भी है क्योंकि दोनों ही मनुष्यों की जरूरतों और स्वाभाविक प्रवृतियों पर आधारित हैं. एक बुरी शादी में फंसे रहने से बेहतर तलाक है पर उसके साथ इस बात पर भी बात होनी चाहिए कि क्या तलाक लेने की वजह या स्वीकृति सिर्फ उसी सूरत में होनी चाहिए जब वह शादी बहुत ही बुरी हो चुकी हो? शादी का बुरा होना ही नहीं दो लोगों का मुख्तलिफ होना भी तलाक की जायज वजह है. और किसी शादीशुदा जोड़े के तलाक की वजह उनका निजी मामला है, समाज को वह वजह ढूंढना और उसे स्वीकृति देने या न देने के कार्य से खुद को मुक्त रखना चाहिए.

भागवत के बयान में बहुत से आम लोगों की विचारधारा बसी है और समाज के लिए यह प्रतिगामी सोच बहुत ही खतरनाक है क्योंकि यह लोगों के निजी जीवन और फैसलों को रूढ़िवादी नैतिकत के चश्मे से देखता है.

(लेख में व्यक्त विचार लेखिका के निजी हैं.)


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