कड़वा घूंट पीने की मजबूरी


editorial on bangladesh election

 

बांग्लादेश के मतदाता जब रविवार को देश की नई संसद चुनने के लिए मतदान करने जाएंगे, तो उनके सामने चयन की कठिन चुनौती होगी. एक तरफ अवामी लीग के नेतृत्व वाला गठबंधन है- जो दस साल से सत्ता में है. इन दस वर्षों में बांग्लादेश ने उल्लेखनीय आर्थिक एवं सामाजिक प्रगति हासिल की है. रोहिंग्या शरणार्थियों को स्वीकार करने की प्रशंसनीय उदारता दिखाई. मगर हाल के वर्षों में शेख हसीना की सरकार ने अभिव्यक्ति की आजादी को संचुकित करने वाले कई कदम उठाए हैं. उसने जन आंदोलनों के प्रति कठोर रुख अपनाया. उसे देखते हुए ऐसे बहुत से लोग भी उससे नाराज हुए, जो पहले अवामी लीग की उदार नीतियों के कारण उसका समर्थन करते थे.

बहरहाल, शेख हसीना का जो विकल्प सामने है, वह कहीं ज्यादा भयावह है. यह विकल्प बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के नेतृत्व में बना लगभग 20 दलों का गठबंधन है. ये विकल्प इस बार एक नए चेहरे के साथ है. अदालत से सजायाफ्ता होने के कारण बेगम जिया के चुनाव लड़ने पर रोक लग गई है. तो उन्होंने इस बार नेतृत्व एक छोटे दल, गण फोरम के नेता कमाल हुसैन को सौंपा है. हुसैन कभी शेख हसीना के पिता शेख मुजीब-उर-रहमान के निकट सहयोगी थे. पाकिस्तान से अलग होकर जब बांग्लादेश बना, तब देश के नए धर्मनिरपेक्ष संविधान को तैयार करने वाली कमेटी का प्रमुख शेख मुजीब ने कमाल हुसैन को बनाया था. लेकिन आज वही हुसैन उस गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसमें कट्टरपंथी इस्लामी ताकतों की भरमार है. इसमें कुछ ऐसे समूह भी हैं, जिन पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल रहने के इल्जाम रहे हैं.

पांच साल पहले बीएनपी ने आम चुनाव का बहिष्कार किया था, क्योंकि शेख हसीना तटस्थ सरकार की देखरेख में चुनाव कराने पर राजी नहीं हुई थीं. नतीजा यह हुआ कि पूर्व राष्ट्रपति एच.एम. एरशाद की जातीय पार्टी प्रमुख विपक्षी दल बनकर उभरी. मगर इस बार उसने शेख हसीना की पार्टी से गठबंधन कर लिया है. इस तरह चुनाव में सीधा मुकाबला होना तय हुआ है. लेकिन इससे बांग्लादेश के विवेकशील नागरिकों के चयन करना आसान हुआ हो, ऐसा नहीं लगता.

अगर गहराई में जाकर देखें तो उनकी इस दुविधा का असल कारण देश में शांतिपूर्ण सत्ता परिवर्तन की संस्कृति का ना पनप पाना है. लंबे सैनिक शासन के बाद 1991 में जब देश में जनतंत्र की वापसी हुई, तब से दोनों प्रमुख पार्टियों ने कभी चुनाव में अपनी हार को सहजता से स्वीकार नहीं किया. उनका यही आरोप रहा कि उन्हें चुनावी धांधली से हराया गया. इसीलिए दो बार तटस्थ सरकार के तहत चुनाव कराए गए, लेकिन शेख हसीन ने इस परंपरा को भी जारी नहीं रखा. उनके इस रुख ने अवामी लीग की प्रगतिशील, विकास-उन्मुख और उदारवादी नीतियों को लांछित किया है. इसी का नतीजा है कि लोकतंत्र समर्थक एवं प्रगतिशील शक्तियों का उनके प्रति उत्साह घटा है.

मगर खालिदा जिया और उनकी पार्टी का रिकॉर्ड ऐसा है कि उसका समर्थन बांग्लादेश-वासियों के बेहतर भविष्य की कीमत पर ही किया जा सकता है. कमाल हुसैन का मुखौटा होने के बावजूद यह मानना किसी के लिए मुश्किल है कि बीएनपी की कट्टरपंथी और उग्रवादी तत्वों से मिली-भगत खत्म हो गई है. ऐसे में, अवामी लीग के नेतृत्व वाले गठबंधन का समर्थन एक मजबूरी की तरह दिखता है. यह भले एक कड़वा घूंट हो, लेकिन इसके मौजूदा विकल्प को अपनाना ज़हर पीने जैसा होगा.


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