नैरेटिव का नियंत्रण


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इस खबर पर उतनी चर्चा नहीं हुई, जितनी आवश्यक थी. ये खबर बताती है कि आज राजनीतिक कथानक (narrative) को किस सुनियोजित ढंग से ढाला जा रहा है. इसे समझा जाए, तो आज के राजनीतिक माहौल को समझना आसान हो सकता है. इस मामले में पूर्व सैन्य अधिकारियों ने टीवी न्यूज एजेंसी- एएनआई- की कार्यशैली को बेनकाब किया है.

उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रॉयटर्स को पत्र लिखा और उससे एएनआई से उसके arrangement (कारोबारी संबंध) पर कठिन प्रश्न पूछे हैं. एक पूर्व सैन्य अधिकारी ने एक अखबार से कहा, “हमारी राय है कि एएनआई ने भारत की सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर हमारे कथन के साथ तोड़-मरोड़ की और हमारे ईमानदार इरादे को लांछित किया.”

पत्र लिखने वाले सैन्य अधिकारियों ने सेना के सियासी मकसदों से इस्तेमाल के खिलाफ अपील की थी. एएनआई पर आरोप लगा है कि उसने बयान पर दस्तखत करने वाले कुछ पूर्व अधिकारियों से बात की और उस बयान की साख घटाने के लिए उन अधिकारियों की बातों को गलत ढंग से पेश किया.

एएनआई का आज भारतीय टीवी न्यूज जगत पर लगभग एकाधिकार है. न्यूज चैनल चाहे कोई भी हो, उस पर दिखने वाले बाइट/विजुअल आम तौर पर एएनआई से आए हुए होते हैं. वो बाइट किसकी होगी और कथन का कौन-सा हिस्सा चैनलों को मिलेगा, यह एएनआई के कर्ता-धर्ता तय करते हैं. वे क्या तय करते हैं, पूर्व सैन्य अधिकारियों के बयान के साथ जो हुआ, वह उसकी एक बेहतरीन मिसाल है. दरअसल, एएनआई किस तरह न्यूज़ और नैरेटिव मैनेजमेंट करती है, इसकी पूरी कथा कुछ समय पहले एक अंग्रेजी मासिक पत्रिका ने छापी थी. ये कहानी यह समझने में मददगार है कि किसी राजनीतिक दल या सरकार के लिए मीडिया मैनेजमेंट आज कितना प्रभावी और फायदेमंद उपाय हो गया है.

ऐसी कहानियां आज भरी पड़ी हैं कि कैसे लालच और भय के इस्तेमाल से मौजूदा सत्ताधारी पार्टी ने मीडिया मैनेजमेंट किया है. इसके जरिए समाज में अपने अनुकूल ढाली गई सूचनाओं को फैलाने में वह कामयाब हुई है. सोशल मीडिया का इसके पूरक के रूप में उपयोग किया गया है. इन तरीकों से सत्ताधारी पार्टी भारत में वैसा सियासी माहौल बनाने में काफी हद तक कामयाब हुई है, जिसे post-truth युग की पहचान माना जाता है.

गौरतलब है कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने “post-truth” को 2016 का वर्ड ऑफ द ईयर यानी साल का सबसे प्रचलित शब्द घोषित किया था. इस शब्दकोश के संपादकों के मुताबिक यह विशेषण उन परिस्थितियों को व्यक्त करता है, जब जनमत का निर्माण करने में वस्तुगत तथ्य-भावनात्मक अपील और निजी विश्वासों से कम प्रभावशाली हो जाएं. धारणा बनी है कि मौजूदा दौर में अपनी पसंद के आंकड़ों को चुनना, मनमाना निष्कर्ष निकलना और उन्हें आबादी के एक बड़े हिस्से में स्वीकृत बनवाना आसान हो गया है. जाहिर है, ऐसा सूचना-वातावरण का अपने मकसद के लिए दुरुपयोग करते हुए किया गया है.

विभिन्न देशों के हालिया रूझानों का तजुर्बा यह है कि जनमत तथा चुनाव परिणामों को अपनी तरफ मोड़ने में जनोत्तेजक नेताओं (Demagogue) को अधिक सफलताएं मिली हैं. इसलिए कि जब ऐसी स्थिति जनोत्तेजक नेताओं के लिए अधिक अनुकूल होती है, जिसमें तर्क और कुतर्क के बीच फर्क करना मुश्किल हो. तब जनोत्तेजक नेता जो लोगों में पूर्वाग्रह, भय और वैमनस्य को भड़काते हुए अपने लिए अधिक अनुकूल राजनीति स्थिति बनाते चले जाते हैं.

नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली में इन बातों के लक्षण में हम तलाश सकते हैं. पांच वर्ष के शासनकाल में तमाम मोर्चों पर अपनी सरकार की नाकामियों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में मजबूत हाल में दिखती है, तो उसका एक बड़ा कारण post-truth जैसी स्थिति है. मीडिया के कंट्रोल और दुरुपयोग के जरिए ऐसी स्थिति बनाई गई है. या इसे दूसरे रूप में ऐसे कहा जा सकता है कि ऐसा इसलिए संभव हुआ क्योंकि मीडिया के एक बड़े हिस्से ने दिखावे के लिए निष्पक्षता और सच का पालन करने की जिम्मेदारी छोड़ दी. उसने ऐसा क्यों किया या क्या उसे ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया- ये दीगर सवाल हैं. मगर वह कैसे ऐसा कर रहा है, यह समझने में एएनआई का ताजा प्रकरण काफी सहायक है.

इसीलिए इस घटना पर व्यापक चर्चा की जरूरत है. जो लोग आज की सियासी हकीकत और उसके पीछे छिपे कारणों को समझना चाहते हैं, उन्हें इस घटना को कतई नजरअंदाज नहीं करना चाहिए.


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