सुरक्षा का बहु-आयामी नज़रिया


congress reveals his national security policy

 

राष्ट्रीय सुरक्षा या सुरक्षा नीति की चर्चा में बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी, सामाजिक सामंजस्य, डिजिटल डिवाइड (डिजिटल विषमता) और आम लोगों की बात सुनने की बात आए, ऐसा अक्सर नहीं होता. इस दरम्यान जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रही मुश्किलों या ऊर्जा की बात हो, यह भी दुर्लभ ही है. मगर ये और ऐसी तमाम दूसरी बातें कांग्रेस की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति दस्तावेज में शामिल हैं. और यही इस दस्तावेज की विशेषता है.

सुरक्षा को आम तौर पर सीमा रक्षा, सैन्य एवं अन्य सुरक्षा बल, हथियार और गोला-बारूद- यानी शत्रुता का भाव रखने वाले देशों से देश की सुरक्षा तैयारी के अर्थ में समझा जाता है. भारत में अक्सर इसे पाकिस्तान और चीन से मुकाबले की अपने देश की तत्परता के रूप में देखा जाता है. ज्यादातर मौकों पर बात पाकिस्तान को काबू में रखने की तैयारी तक सीमित रहती है. अधिक से अधिक देश के अशांत इलाकों और वाम चरमपंथ से प्रभावित क्षेत्रों के प्रति अपनाई जाने वाली रणनीति से ये चर्चा आगे नहीं बढ़ पाती. मौजूदा एनडीए सरकार के दौर में तो सांप्रदायिक रंग के साथ ये चर्चा ज्यादा से ज्यादा भड़काऊ और हवाई होती गई है.

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें, तो विपक्ष में रहते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति दस्तावेज तैयार करने की कांग्रेस की कोशिश का महत्त्व खुद जाहिर हो जाता है. इस दस्तावेज को तैयार करने का दायित्व लेफ्टिनेंट जनरल डीएस हुड्डा को दिया गया, इससे भी कांग्रेस पार्टी की गंभीरता का पता चलता है. लेफ्टिनेंट जनरल हुड्डा की प्रतिष्ठा और साख पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता. लेफ्टिनेंट जनरल हुड्डा ने अपनी गहरी एवं व्यापक रणनीतिक समझ का परिचय इस दस्तावेज में दिया है.

यह बात ध्यान खींचती है कि इसमें पास-पड़ोस को सुरक्षित बनाने से पहले इस बात की चर्चा की गई है कि भारत दुनिया में वह हैसियत या स्थान कैसे प्राप्त करे, जिसका वह हकदार है. यानी उपयुक्त सुरक्षा रणनीति उसे माना गया है, जिसमें देश अपनी महत्त्वाकांक्षा सिर्फ अपने इर्द-गिर्द तक तक सीमित ना रखे, बल्कि विश्व स्तर पर अपनी अहम मौजूदगी बनाने की चुनौती को स्वीकार करे. बेशक पास-पड़ोस को सुरक्षित बनाना खास चुनौती है और इस लक्ष्य को हासिल करने के उपायों पर विस्तार से चर्चा की गई है. उसके बाद के दो बिंदुओं- आंतरिक टकरावों का शांतिपूर्ण समाधान और अपनी जनता की सुरक्षा- के तहत जो बातें कही गई हैं, वो लोकतांत्रिक विमर्श का हिस्सा रही हैं.

मसलन, वाम चरमपंथ के सिलसिले में कहा गया है कि इससे निपटने के दौरान इसके ‘मूल कारण’ को अवश्य दूर किया जाना चाहिए. यह पहलू एनडीए के शासनकाल में चर्चा से बिल्कुल दूर रहा है. एनडीए सरकार ने इस सवाल को पूरी तरह सुरक्षा कार्रवाई के नजरिए से देखा है. जनता की सुरक्षा विषय के तहत और भी अधिक व्यापक संदर्भ वाले मुद्दों को शामिल किया गया है. साफ तौर पर यह सुरक्षा की एक अलग और विस्तृत समझ को जाहिर करता है.

अच्छी बात यह है कि कांग्रेस ने 41 पेजों के इस दस्तावेज को राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा की शुरुआत भर बताया है. यानी उसने इसके अंतिम होने का दावा नहीं किया है. इससे न सिर्फ इस दस्तावेज, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के पूरे सवाल पर खुली बहस की संभावना बरकरार है. देश में राजनीतिक चर्चा का माहौल इतना टकराव-भरा हो गया है कि सभी धाराओं के सभी समूहों का फिलहाल ऐसे किसी विचार-विमर्श में सद्भावना के साथ शामिल होने की उम्मीद नहीं की जा सकती. बहरहाल, अगर अगर गैर-बीजेपी पार्टियां भी इस चर्चा में भागीदारी करें, तो उससे ऐसी सुरक्षा नीति बनाने या उस पर आम-सहमति बनाने की राह निकल सकती है, जो बहु-आयामी या सर्वांगीण नजरिए पर आधारित हो.

वैसे भी आम तौर पर यही वांछित और उचित माना जाता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा एवं विदेश नीति जैसे मसलों पर यथासंभव आम सहमति हो. लेकिन जब देश में एक राजनीतिक दल ऐसा है, जिसकी राष्ट्र की समझ न सिर्फ अलग बल्कि परस्पर विरोधी है, तब ऐसी सहमति की गुंजाइश कम ही है. सुरक्षा संबंधी इन परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों में राजनीतिक एवं वैचारिक संघर्ष को टाला नहीं जा सकता.

कांग्रेस ने जिस सुरक्षा रणनीति का प्रस्ताव किया है, उसके अमल में आने की पहली शर्त यह है कि वह और वर्तमान भारतीय संविधान में आस्थावान पार्टियां इस वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष में विजयी हों. अगर ऐसा होता है, तब उन पार्टियों के बीच अधिकतम आम सहमति की जरूरत होगी. उसे तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए, ये अपेक्षित है.


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