बशर्ते वो इनकम यूनिवर्सल और अतिरिक्त हो


retail inflation rate increased to 3.99 percent

 

यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) का विचार भारत में फिर से चर्चा में है. वजह ऐसे संकेत हैं कि सत्ता में वापसी के लिए हाथ-पांव मार रही नरेंद्र मोदी सरकार अगले आम चुनाव के मद्देनजर जल्द ही ऐसी किसी योजना का एलान कर सकती है. चर्चा इतनी बढ़ी कि देश के सबसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री भी इसके गुण-दोष से जुड़ी बहस में उतर आए हैं. शांति निकेतन में हुई चर्चा में अमर्त्य सेन और प्रणब वर्धन एक-दूसरे के खिलाफ दलीलें देते सुने गए. लेकिन दोनों की चिंताओं के केंद्र में जाकर गौर करें तो उनकी बातें एक-दूसरे के खिलाफ नहीं, बल्कि एक-दूसरे की पूरक मालूम पड़ेंगी.

असल चिंता यह है कि भारत के सभी लोगों की बुनियादी जरूरतें कैसे पूरी हों. कैसे हर व्यक्ति आत्म-सम्मान के साथ जी सके. सेन को आशंका यह है कि पहले से ही जर्जर अवस्था में मौजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य एवं शिक्षा व्यवस्था के बजट में कटौती कर चुनावी मकसद से सरकार गरीबों को एक तय मासिक रकम देना शुरू करेगी और इसे यूबीआई कहा जाएगा. इस अंदेशे का ठोस आधार है. 2016-17 के आम बजट से पहले पेश आर्थिक सर्वेक्षण में इसी प्रकार की यूबीआई की वकालत की गई थी. लेकिन यह यूबीआई की मूल धारणा को सिर के बल खड़ा करना होगा. इसलिए प्रणब बर्धन ने साफ किया कि नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जो उपाय/कदम/योजनाएं अभी मौजूद हैं, यूबीआई उसके अतिरिक्त होना चाहिए.

और यही इस विषय का मूल बिंदु है. यूबीआई का ख़्याल पिछले एक दशक में उभरा है. दुनिया में इस पर काफी चर्चा हुई है और अब इस धारणा के बारे में एक सामान्य समझ बन चुकी है. इस बारे में कई देशों में प्रयोग किए गए हैं. उनसे आम तौर पर सकारात्मक नतीजे सामने आए हैं इस चर्चा और इन प्रयोगों के अस्तित्व में आने का एक विशेष संदर्भ है. विकसित देशों में ये इसकी जरूरत नई तकनीकों के उदय और उनकी वजह से वजूद में आई नई उत्पादन प्रणाली के कारण महसूस की गई.

ऑटोमेशन, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और थ्री-डी प्रिटिंग जैसी तकनीकों के कारण अब उत्पादन प्रक्रिया में न्यूनतम मानव श्रम की आवश्यकता पड़ रही है. ये ट्रेंड अभी और आगे बढ़ेगा. उससे लोगों के लिए काम के अवसर घटते जाएंगे, जबकि निवेशकों का मुनाफा तेजी से बढ़ेगा। उस स्थिति में समाज में जो असमानता और अस्थिरता पैदा होगी, उसके मद्देनज़र यूबीआई को एक रास्ता माना गया है. इसी परिस्थिति के कारण कई विकसित देशों में अब तीन दिन के कार्य-सप्ताह या चार घंटे के कार्य दिवस की मांग उठने लगी है.

इन हालात से अलग करके यूबीआई की चर्चा नहीं हो सकती. इसलिए कि इसके साथ ही ये सवाल उठता है कि आखिर सबको पैसा देने के लिए धन कहां से आएगा? अगर मौजूदा जन-कल्याणकारी योजनाओं के साथ-साथ यूबीआई लागू करनी हो, तो यह प्रश्न और भी स्वाभाविक और गंभीर रूप में हमारे सामने आ खड़ा होता है. इसीलिए यह माना जाता है कि यूबीआई तभी संभव है, जब टैक्स स्ट्रक्चर को प्रगतिशील या रैडिकल बनाया जाए. विकसित देशों में बिना या न्यूनतम मानव श्रम के उपयोग के साथ उत्पादन करने वाली मशीनों पर टैक्स लगाने का विचार चर्चित हुआ है.

भारत में सब्सिडी की मौजूदा व्यवस्था के साथ-साथ अगर यूबीआई लागू करनी हो, तो यह जरूरी होगा इनकम टैक्स में बढ़ोतरी की जाए. जिस देश में एक वर्ष में 73 फीसदी आमदनी टॉप एक प्रतिशत आबादी के पास चली जाती हो, वहां ऐसा करने का तर्क निर्विवाद रूप से मौजूद है। क्या अपने देश में वर्तमान या अगली कोई सरकार कुल धन, उत्तराधिकार से मिलने वाले धन, शेयर बाज़ार से होने वाली आमदनी आदि पर टैक्स लगाने/बढ़ाने का साहस दिखाएगी? एक गणना के मुताबिक अगर यूबीआई को सचमुच यूनिवर्सल रखना हो, तो उसके लिए जीडीपी के दस फीसदी के बराबर खर्च करना होगा. अगर इसे सिर्फ कुछ तबकों के लिए लागू किया जाता है, तो फिर इस योजना को यूनिवर्सल नहीं कहा जाएगा. और फिर उसमें वही अंदर और बाहर रखने की वही मुश्किलें आएंगी, जो पीडीएस को टारगेटेड करने के बाद से आई हैं.

वैसे मकसद सिर्फ चुनावी मकसद से ख़ैरात बांटना ना हो, सचमुच अगर मानव विकास लक्ष्य हो, तो ब्राज़ील के बोल्सा फैमिला जैसे प्रयोगों से भी सीख ली जा सकती है. लुइज इनेसियो लुला दा सिल्वा के शासनकाल में शुरू हुई सशर्त नकदी हस्तांतरण की ये योजना इसलिए कामयाब रही, क्योंकि इसके साथ-साथ अस्पतालों और स्कूलों का जाल भी बिछाया गया. मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत में इसकी चर्चा उस सरकार ने शुरू की है, जो न्यूनतम सरकार के घोर नव-उदारवादी नारे के साथ सत्ता में आई थी. संभवतः इसीलिए अमर्त्य सेन जैसी हस्तियों के मन में इसको लेकर आशंकाएं हैं. वे व्यावहारिक संभावना की बात कर रहे हैं, जबकि प्रणब बर्धन ने जो कहा वह इस मुद्दे का सैद्धांतिक पक्ष है.


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