ताकि राजस्थान एक मॉडल बने


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राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार ने स्थानीय निकाय चुनावों में भाग लेने की कसौटी और शिक्षा संबंधी बदलाव के वाजिब फैसले लिए हैं. यह भी कहा जा सकता है कि उसने इन निर्णयों को लेने में तत्परता दिखाई. स्थानीय निकाय चुनावों में भाग लेने के लिए शैक्षिक योग्यता की शर्त जोड़ना लोकतंत्र को संकुचित करने वाला निर्णय था. यह वयस्क मताधिकार की भावना के विपरीत है. बीजेपी सरकार ने पाठ्यक्रम में बदलाव अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा के अनुरूप किए.

ये बदलाव इतने अतार्किक, तथ्यहीन और सच्चाई के विरुद्ध थे कि कोई भी विवेकशील सरकार उन्हें जारी नहीं रहने दे सकती. उन बदलावों के तहत न सिर्फ आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू का नाम स्कूली पाठ्यक्रम से हटा दिया गया, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों के उलट कहानियों को पाठ्य-पुस्तकों में शामिल किया गया. इसकी एक मिसाल यह पढ़ाना था कि हल्दीघाटी के युद्ध में असल में महाराणा प्रताप ने अकबर को हराया था! इसी तरह कई अंध-विश्वासों को वैज्ञानिक तथ्यों के रूप में छात्रों को पढ़ाने की शुरुआत की गई.

स्थानीय निकाय चुनावों के सिलसिले में सरासर अलोकतांत्रिक प्रावधान कर दिए गए. जिला परिषद, पंचायत समिति और नगर-निकायों के चुनाव लड़ने के लिए दसवीं पास होना, सरपंच पद का उम्मीदवार बनने के लिए आठवीं पास होना और पंचायत चुनाव लड़ने के लिए पांचवीं पास होना अनिवार्य कर दिया गया. ये शर्तें गरीब- खासकर अनुसूचित जाति-जनजाति के उम्मीदवारों और उनके बीच भी महिलाओं के खिलाफ थीं. देश के उच्च एवं अभिजात्य वर्ग की हमेशा से मंशा रही है कि इन तबकों को सत्ता से दूर रखा जाए. बीजेपी सरकार ने स्थानीय चुनावों में इसका इंतजाम कर दिया.

जन प्रतिनिधित्व आधुनिक लोकतंत्र की आत्मा है. किसी समाज में जन प्रतिनिधित्व की व्यवस्था किस प्रकार की है, इससे ही तय होता है कि वहां लोकतंत्र का दायरा कितना व्यापक है. इसीलिए वयस्क मताधिकार को पूर्ण लोकतंत्र की पूर्व-शर्त माना जाता है. एक तय उम्र के बाद हर नागरिक (अगर वह मानसिक रूप से अयोग्य, दिवालिया या अपराधी ना हो तो) को मतदान करने और निर्वाचित होने का अधिकार मिला हो, तभी कोई व्यवस्था अपने को पूर्व प्रातिनिधिक और पूर्ण लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकती है. अगर मतदाता किसी अनपढ़ प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं, तो ऐसा वे अपने विवेक और अपने हितों के नजरिए से करते हैं.

राजस्थान के बाद हरियाणा स्थानीय निकाय चुनाव में शैक्षिक योग्यता जोड़ने वाला अगला राज्य बना था. वहां हुए एक आकलन से सामने आया कि उस फैसले से 68 प्रतिशत दलित महिलाएं और कुल मिलाकर 50 फीसदी महिलाएं चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गईं. यह उचित ही ध्यान दिलाया गया है कि लोगों को सत्ता के ढांचे से बाहर रखने या उनकी पहुंच को सीमित रखने के प्रयासों का इतिहास लंबा है.

साधन संपन्न लोग अपनी सुविधा के मुताबिक ऐसी शर्तें थोपते रहे हैं, जिससे वंचित तबके नुमाइंदगी ना पा सकें. यहां तक कि आजादी के बाद संविधान बनाने के दौरान भी संविधान सभा में कई सदस्यों ने “अशिक्षित” भारतीयों को मताधिकार से वंचित रखने की वकालत की थी. लेकिन यह संविधान सभा के बहुमत के विवेक और लोकतांत्रिक आस्था का परिणाम था कि ऐसी कोशिशें नाकाम हो गईं. आज अगर भारत अपने लोकतंत्र पर गर्व करता है, तो इसका श्रेय उस बहुमत की दूरदर्शिता को दिया जाना चाहिए.

स्वाभाविक है कि हाल के वर्षों में बीजेपी सरकारों की लोकतंत्र को संकुचित करने के निर्णयों को उन नाकाम कोशिशों के ही अगले चरण के रूप में देखा गया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इन फैसलों पर अपनी मुहर लगा दी. बहरहाल, लोकतंत्र की रक्षा और उसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी राजनीतिक संगठनों की होती है. विपरीत माहौल में न्यायिक संस्थाएं ऐसी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरतीं.

यह अच्छी बात है कि राजस्थान में सत्ता में लौटते ही कांग्रेस ने उस फैसले को पलट दिया. साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में एक खास विचारधारा के तहत हुए बदलावों को पलटने का उसने साहसी फैसला लिया है. अब ज़रूरत इस बात की है कि इन फैसलों पर तेजी से अमल का पक्का इरादा वह दिखाए. वह सुधार का एक ऐसा मॉडल तैयार करे, जिसे सारे देश में जब भी लोकतंत्र समर्थक ताकतें में सत्ता आएं, तो वे उसे अपना सकें.


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