फ़िल्मी पटकथा के अंदाज़ में इमरजेंसी की कहानी


review of emergency chronicle

 

क्या तुम्ही देवी प्रसाद त्रिपाठी हो? प्रबीर पुरकायस्थ ने कहा कि नहीं वे देवी प्रसाद त्रिपाठी नहीं हैं. अगले ही पल उन्हें एक अम्बेसडर कार में खींचकर डाल दिया गया. ऐसा इसलिए हुआ कि दोनों स्टूडेंट फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया से जुड़े थे, दोनों दुबले-पतले थे और चश्मा लगाते थे. शुरुआती दृश्य देखने में तो अपहरण का लगता है लेकिन उन्हें पुलिस अधिकारियों ने ‘मीसा’ के अधीन गिरफ़्तार किया था. प्रवीण पुरकायस्थ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे और देवी प्रसाद त्रिपाठी उनके दोस्त थे. इस कहानी में एक लड़की भी है-कनकलता सेन.

कनकलता सेन और प्रवीण पुरकायस्थ का विवाह एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट प्रदीप्तो घोष ने सिविल मैरिज एक्ट के तहत दर्ज़ किया था. आगे चलकर एक दिन प्रदीप्तो घोष प्रवीण पुरकायस्थ को गिरफ़्तार करके जेल भेजने या न भेजने पर सुनवाई करने वाले थे. जैसे सरकारी अधिकारी प्राय: होते हैं, उन्हें ‘ऊपर के आदेश’ पर झुकना पड़ा था.

तो एक दिन हुआ क्या कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देवी प्रसाद त्रिपाठी ने मेनका गांधी से कहा कि उन्हें कक्षाओं का बहिष्कार करना चाहिए था क्योंकि दूसरे छात्र हड़ताल पर थे. यह बात मेनका गांधी को नागवार गुजरी थी. उन्होंने देवी प्रसाद त्रिपाठी से कहा कि देखो, अभी तुम्हारे साथ क्या होगा. मेनका गांधी के पति संजय गांधी थे और संजय गांधी इंदिरा गांधी के बेटे थे. और प्रवीण पुरकायस्थ को संजय गांधी की इच्छा पर अपहरण की शैली में गिरफ्तार कर लिया गया. यह सब सितम्बर 1975 की बातें हैं.

इतिहासकार ज्ञान प्रकाश अपनी किताब ‘इमरजेंसी क्रॉनिकल: इंदिरा गांधी एंड डेमोक्रेसीज टर्निंग प्वाइंट’ की शुरुआत ऐसे ही करते हैं. लगता है कि हम किसी फिल्म की स्क्रिप्ट पढ़ रहे हों जिसकी ओपनिंग सीन किसी विश्वविद्यालय में खुलती है और बाद में पूरा देश ही इसमें शामिल हो जाता है.

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अपने पाठकों को पूरी बात समझाने के लिए ज्ञान प्रकाश उन्हें फ्लैश बैक में ले जाते हैं. किताब में उत्तरकथा को छोड़कर कुल नौ अध्याय हैं जो एक दूसरे से जुड़े हैं. यह सभी अध्याय चरित्र, विचार, समय और स्थान के हिसाब से आवाजाही करते रहते हैं.

‘इमरजेंसी क्रॉनिकल’ तीन स्तरों पर खुलती है- भारत के आधुनिक राष्ट्र बनने की कहानी के रूप में, एक लोकतंत्र के रूप में उसकी शुरुआत कैसे हुई और आपातकाल के समय इन दोनों को किस प्रकार की परीक्षा से गुजरना पड़ा.

इस किताब में कुछ सर्वविदित बातें हैं, मसलन भारत पांच हजार साल पुराना देश था जिसमें जाति के दंश थे; पिछड़ेपन के उसके चोले को हटाकर जवाहरलाल नेहरू उसे आधुनिकता का लबादा पहना देना चाहते थे. वे भारत को औपनिवेशिक शासन के ख़िलाफ़ संघर्षों में विकसित होता हुआ देख चुके थे और अब उसे दुनिया के आज़ाद हो चुके मुल्कों में एक सम्मानजनक स्थान दिलाना चाहते थे.

वे और उनके साथी डॉक्टर अंबेडकर और केएम मुंशी भारत की संविधान सभा में इस बात के लिए घनघोर बहस कर रहे थे कि ‘राज्य’ के खिलाफ़ ‘व्यक्ति’ कमजोर न हो जाए. इस आशय के बंदोबस्त किए गए. हन्ना अर्डन्ट और ज्यार्जियो अगेम्बेन के हवाले से ज्ञान प्रकाश दिखाते हैं कि आपातकाल के समय राज्य मजबूत हुआ और व्यक्ति कमजोर पड़ गए.

किताब के शुरुआती तीन अध्याय बताते हैं कि अपने निर्माण की प्रक्रिया और सत्ता ग्रहण करने के क्रम में ही लोकतंत्र अपने भीतर ही एक ऐसी संरचना का विकास कर लेता है जो नागरिकों के स्वाभाविक अधिकारों के ख़िलाफ़ जाती है. भारतीय लोकतंत्र आगे चलकर कहीं ऐसा हो न जाए, इसकी चिंता संविधान सभा में दीख रही थी.

1950 के दशक में काम कर रहे भारतीय राजनेताओं के पास औपनिवेशिक शासन से उत्पीड़ित होने का प्राथमिक अनुभव था. अब वे ‘राष्ट्र-राज्य’ की संरचना में भागीदार होने जा रहे थे. उन्हें खुद के अत्याचारी और उत्पीड़क हो जाने का डर था. बाद में यह दर सच साबित हुआ, वह भी बहुत जल्दी ही.

प्रवीण पुरकायस्थ और उनके जैसे हजारों व्यक्तियों को लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी केंद्र सरकार ने जेल में डाल दिया. वे सारे मानवीय दायरे और लोकतांत्रिक संस्थाएं जिसे आज़ादी की लड़ाई में रचा गया था, उसे इंदिरा गांधी ने एक झटके में खत्म कर दिया.

वास्तव में समकालीन भारत की राजनीतिक और लोकप्रिय कल्पनाओं में ‘इमरजेंसी’ के बारे हर कोई कुछ न कुछ जानता है, और उसके पास अपने किस्से हैं- जिसे वह सुनाता रहता है. वर्ष 2018 में भी ऐसा ही हुआ जब कांग्रेस का विरोध करने वाले दलों, लेफ्ट-लिबरल-डेमोक्रेट्स और कई छोटे समूहों ने 1975 पर बात की. इस बात का केंद्रबिंदु निश्चित ही कांग्रेस पार्टी और श्रीमती इंदिरा गांधी थीं.

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भारतीय लोकतंत्र के अनुभवों पर जो भी किताबें, वैकल्पिक वैचारिक साहित्य, कला एवं संस्कृति रूप सामने आए हैं, उसमें जनता के शासन को जनता के ही खिलाफ चले जाने पर बातें होती रही हैं. इस दृष्टि से यह किताब कोई नयी बात नहीं कहती है. इसका नयापन स्रोतों की एक नवीन श्रृंखला खोजने और उसकी व्याख्या में है.

ज्ञान प्रकाश पहले उन लोगों की खोज करते हैं जो आपातकाल से प्रभावित थे. वे उनकी एक छोटी सी जीवनी लिखते हैं. इस किताब में ऐसी दर्जनों जीवनियाँ हैं जो एक दूसरे से संबद्ध हैं. इन जीवनियों की मदद से वे पूरी बीसवीं शताब्दी के भारतीय अनुभवों की पड़ताल करते हैं जो समाज, राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में घटित हुए हैं.

इस बात को ‘फ्रीडम बिहाइंड बार्स- सलाखों में जीवन’ नामक अध्याय बखूबी पेश करता है. इस अध्याय में आपातकाल के बहाने ज्ञान प्रकाश ने मधु और प्रमिला दंडवते के दाम्पत्य जीवन की प्रेमकथा भी लिखी है जो पति-पत्नी के बीच दो अलग अलग-अलग जेलों में एक बार फिर परवान चढ़ी. वे मंगेश पडगांवकर, कुसुमाग्रज, वसंत वापट और शेली की कविताएँ पढ़ते और एक दूसरे से साझा करते-उन खतों में जिन्हें सेंसर किया जाना होता. 12 अप्रैल 1976 को अपनी पत्नी प्रमिला दंडवते को मधु दंडवते ने वसंत वापट की एक कविता भेजी :

तुम्हारे अंदर हिम्मत नहीं

इसकी कीमत भी न लगाओ

मत भूलो कि यह जीवन-मरण का सवाल है

और यह भी सच है कि बिल्कुल शूरुआत से ही हम कायर रहे हैं

जब हम पैदा हुए हमारी पीठ झुकी थी

जैसी बही हवा हमने वैसे ही पीठ भी कर ली…

आपातकाल में कई लोग ऐसे थे जिन्होंने इंदिरा गांधी से समझौते किए, जिनको लक्षित कर यह कविता दंडवते दंपत्ति आपस में साझा कर रहे थे. अभी इस बात पर काफी कम ध्यान दिया गया है कि आपातकाल में भारत में लिखे जा रहे विभिन्न भाषाओं के साहित्य की क्या भूमिका रही थी या जब आपातकाल खत्म हो गया तो साहित्यकार क्या कर रहे थे.

ऐसे दौर में जब प्रेस की आजादी न के बराबर थी, स्पष्ट और खुली बात कहने की मनाही थी तो कविता, कहानी, नाटक और उपन्यास फ़ितनागर तरीके से भारतीय लोकतंत्र के स्वरूप और उसमें शामिल लोगों के चरित्र को रेखांकित कर रहे थे.

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इतिहास के स्रोत के रूप में ज्ञान प्रकाश इसे सामने लाते हैं. वे यहां पर उन बातों को बताने का प्रयास करते हैं जिन्हें सरकारी अभिलेखों में या तो दर्ज़ नहीं किया जाता या उन तक इतिहासकार की पहुंच बाधित की जाती है. ऐसा ज्ञान प्रकाश के साथ भी हुआ और वे उन अभिलेखों तक नहीं पहुंच पाए जिनको देखने पर यह पता चल सकता था कि इमरजेंसी हटाई क्यों गयी?

यहां पर उनकी मदद राही मासूम रजा का उपन्यास ‘कटरा बी आर्ज़ू’ करता है. क्या यह संयोग है या सुचिंतित कथाभूमि कि राही मासूम रजा ने इस उपन्यास को इलाहाबाद में लोकेट किया जो जवाहरलाल नेहरू की कर्मभूमि रहा है और आपातकाल के ख़िलाफ़ हुए आंदोलनों में इस शहर ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था.

दरअसल ज्ञान प्रकाश इन कथा-वृत्तों को राजनीति की सैद्धांतिक बहसों को आगे बढ़ाने के लिए प्रयुक्त करते हैं. यह एक इतिहासकार की जुगत है, उसकी कुशलता है. उनकी किताब भी हार्डकोर एकेडमिक्स की तरफ उस तरह से जाने का प्रयास नहीं करती, जिस तरह से इस विषय पर मौजूद किताबें गयी हैं. प्रथम दृष्टया यह किताब इंदिरा गांधी और कांग्रेस की इमरजेंसी के खिलाफ है लेकिन आगे चलकर यह छोटे-बड़े जनांदोलनों और विद्यार्थियों के साथ खड़ी हो जाती है. आज के दौर में यही इस किताब की सफलता है.


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