सुप्रीम कोर्ट की कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए: अरुणा रॉय


event organised on the 65th birth anniversary of NFIW on the  'Judiciary accountability and women'

 

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन वोमेन (एनएफआईडब्लू) की अध्यक्ष अरुणा रॉय ने कहा है कि सरकार लगातार पर्दे के पीछे से न्यायपालिका को नियंत्रित कर रही है. मौजूदा केंद्र सरकार की भूमिका पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा कि सरकार न्यायपालिका को कमजोर करने और उस पर नियंत्रण करने का हर संभव प्रयास में लगी हुई है. रॉय ने कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के रवैए पर भी सवाल खड़े किए. उन्होंने कहा कि वे पोस्टरमास्टर की तरह व्यवहार कर रहे हैं.

वे एनएफआईडब्लू के 65वें स्थापना दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में बोल रही थीं. यह कार्यक्रम ‘न्यायपालिका की जवाबदेही और महिला’ विषय पर आयोजित किया गया था. कार्यक्रम में अरुणा रॉय के अलावा वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह, वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन और एनएफआईडब्लू की महासचिव एनी राजा समेत कई जानी-मानी हस्तियां मौजूद थीं. कार्यक्रम में न्यायपालिका में महिलाओं और वंचित समुदायों के गिरते प्रतिनिधित्व पर भी चर्चा हुई.

कार्यक्रम में मौजूद सभी पैनलिस्टों ने एक स्वर में कहा कि न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में सरकार का हस्तक्षेप खतरनाक है. उन्होंने कहा कि न्यायाधीश संविधान और कानून से ऊपर नहीं है और उन्हें भी अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करनी चाहिए. न्यायपालिका को सूचना के अधिकार के दायरे में भी लाया जाना चाहिए.

चर्चा के दौरान रॉय ने स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट की कथनी और करनी में फर्क नहीं होना चाहिए. सीजेआई रंजन गोगोई पर लगे कथित यौन उत्पीड़न मामले के सन्दर्भ में रॉय ने कहा कि न्यायपालिका पर भी पितृसतात्मक और मनुवादी सोच की छाया है और यही ऐसे मामलों का असल कारण है. उन्होंने बहुचर्चित भंवरी देवी बलात्कार मामले में कोर्ट के शुरुआती फैसले का उदाहरण देकर बताया कि कैसे कई बार कोर्ट ‘मनुवादी और महिला विरोधी मानसिकता’ की वजह से पक्षपातपूर्ण निर्णय लेता है. इस बलात्कार मामले में कोर्ट ने इस आधार पर आरोपियों को छोड़ दिया था कि निचली जाति की महिला का बलात्कार ऊंची जाति के लोग नहीं कर सकते हैं. तब कोर्ट ने यह भी कहा था कि 45 वर्ष की महिला का बलात्कार नहीं हो सकता. चर्चा में शामिल वकील कीर्ति ने सीजेआई रंजन गोगाई मामले में पीड़िता का पक्ष भी रखा.

वहीं पैनल में शामिल वकील कृपा डे ने न्यायपालिका में महिलाओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं होने के मुद्दे को रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि कई बार कोर्ट अल्पसंख्यक,महिलाओं और हाशिए के लोगों के साथ न्याय नहीं कर पाता है क्योंकि कोर्ट में इनका प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है. चर्चा में वरिष्ठ पत्रकार भाषा सिंह भी शामिल थीं. उन्होंने कहा कि आज कोर्ट की साख न्यूनतम हो चुकी है. उन्होंने मुहरबंद जजमेंट के चलन पर सवाल उठाया और कहा कि अंधेरे में हुआ न्याय न्याय नहीं होता.न्याय सबको होते हुए दिखना चाहिए. भाषा सिंह ने सवाल उठाया कि इसी के चलते सीजेआई यौन उत्पीड़न मामले में फैसले की प्रति तक पीड़िता को नहीं दी गई. उनकी इस बात से अरुणा रॉय ने भी सहमति जताई.

सामाजिक कार्यकर्ता अंजली ने भी न्यायपालिका में महिलाओं के कमजोर प्रतिनिधित्व का मुद्दा उठाया. उन्होंने कहा कि कई साल तक महिलाओं का प्रतिनिधित्व शून्य रहने के बाद फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में 27 जजों में मात्र तीन महिला हैं. उन्होंने सवालिया लहजे में कहा कि जब जजों की नियुक्ति की योग्यता सार्वजनिक नहीं है तो सुप्रीम कोर्ट किस आधार पर महिला प्रतिनिधित्व को योग्यता के आधार पर खारिज कर सकता है. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन हादिया मामले का जिक्र करते हुए कहा कि कोर्ट के चाल-चरित्र का संदेश पूरे देश में जाता है और इससे रूढ़िवादी और महिला विरोधी ताकतों का हौसला बढ़ता है. उन्होंने भी न्यायपालिका में महिला प्रतिनिधित्व का सवाल उठाया.

एनएफआईडब्लू की महासचिव एनी राजा संगठन के इतिहास पर रोशनी डाली. उन्होंने कहा कि अपनी एकता और संघर्ष से ही संगठन ने काम के लिए समान वेतन और मैटरनिटी लीव जैसे अधिकार को पाया है.


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