एक प्रभावी कहानी शहर में परेशान-सा रहने वाले हर शख्स की


film review of Albert pinto ko gussa kyu ata hai

 

निर्देशक: सौमित्र रानाडे

लेखक: सौमित्र रानाडे

कलाकार: मानव कौल, नंदिता दास, सौरभ शुक्ला, किशोर कदम

ईमानदारी से जीने वाला, ईमानदारी से टैक्स भरने वाला, समय से दफ़्तर और फिर वापस घर आने वाला और देशभक्ती के दायरे में सभी चीजें करने वाला आम आदमी देश से भी कुछ बुनियादी चीजें चाहता है. मसलन, पीने को साफ पानी, सस्ता खाना, सर पर छत, बीमारियों से लड़ने के लिए अपनी पहुंच में सस्ता और सही इलाज, साबुत सड़कें, 24 घंटे न सही पर ठीक-ठाक बिजली की सप्लाई. लेकिन हालात ऐसे हैं कि इनमें से सारी तो क्या आम आदमी को एक-दो बुनियादी सुविधाएं भी मयस्सर नहीं हैं! इस कारण आज देश का आम नागरिक हर वक्त झुंझलाया हुआ, कुढ़ा हुआ और गुस्से में भरा रहता है.

देश, व्यवस्था और हालातों के मारे, इन सबसे बेहद खफा और गुस्से में भरे ऐसे ही एक आम आदमी पर 1980 में सईद अहमद मिर्ज़ा ने एक कल्ट-क्लासिक फिल्म बनाई थी ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’. यह फिल्म मजदूर तबके से आने वाले एक नायक, अल्बर्ट पिंटो की कहानी कहती है. फिल्म पिंटो के बहाने उस दौर की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर जबरदस्त कमेंट करती है. उसी कॉन्सेप्ट पर निर्देशक सौमित्र रानाडे ने 2019 में एक कहानी बुनी है. फिल्म और पात्रों के नाम वही हैं, कलाकार बदल दिए गए हैं.

‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ फिल्म के रीमेक में सिस्टम से हारे हुए एक आम आदमी की घोर हताशा झकझोरती है. तोड़ देने वाली स्थितियों में मन के भीतर चलने वाले अच्छे-बुरे का द्वंद्व दिखाते हुए यह फिल्म सिस्टम और समाज के प्रति हमारे भीतर की अंतहीन शिकायतों को पर्दे पर बहुत सफलता से उभारती है.

‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ फिल्म की कहानी अल्बर्ट पिंटो (मानव कौल) नाम के एक मिडिल क्लास आदमी की है, जिसकी शादी नहीं हुई है. उसकी स्टेला (नंदिता दास) नाम की एक गर्लफ्रेंड है. पिंटो एक ईमानदार और असल में देशभक्त आदमी है. उसका एक भरा-पूरा परिवार और अच्छी नौकरी है. लेकिन एक दिन अचानक वह सबकुछ छोड़कर गायब हो जाता है. घरवाले गुमशुदगी का मामला दर्ज करवाते हैं.

असल में अल्बर्ट पिंटो के पिता भ्रष्टाचार के आरोप में सस्पेंड कर दिए जाते हैं. वे एक ईमानदार कर्मचारी होते हैं, इस कारण उन्हें यह बात बर्दाश्त नहीं हो पाती और वे खुदकुशी कर लेते हैं. इस घटना से आहत अल्बर्ट पिंटो का दिमाग खराब हो जाता है. वह अपनी आराम की जिंदगी छोड़कर उन लोगों से बदला लेने निकल पड़ता है, जिनके कारण उसके पिता के साथ ऐसा हुआ था. इस सफर में अल्बर्ट को एक साथी नायर (सौरभ शुक्ला) मिल जाता है. कहानी बीच-बीच में फ्लैशबैक में आती-जाती रहती है. पिता की मौत से पिंटो को इतना बुरा सदमा लगता है कि जब खुद के बच्चा होने की बात होती है तो वो भड़क जाता है और कहता है, ‘इतनी भ्रष्ट और खराब दुनिया में बच्चे को लाने की जरूरत नहीं है’! अल्बर्ट पिंटो वापस आ पाता है या नहीं? वो अपने पिता का बदला ले पाता है या नहीं? इन सवालों के जवाब पाने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी.

अल्बर्ट पिंटो लगभग हर दूसरी बात पर गुस्सा करने लगता है. वह अपने मिडिल क्लास होने से भी चिढ़ता है. अल्बर्ट समझता है कि देश में तीन तरह के लोग होते हैं. पहले, जो दारू पीकर देश चलाते हैं. दूसरे, सड़क पर पड़े कुत्ते जैसे लोग हैं जिन्हें पहले वाले गाड़ी चढ़ाकर मार देते हैं. और तीसरे हैं कौवे, जो सब कुछ बस चुपचाप देखते रहते हैं. वह खुद को उस तीसरी श्रेणी में मानता है. उसे अब तक अपने कौवे बने रहने का गुस्सा है!

अल्बर्ट को देश का हर मिडिल क्लास आदमी कौवा लगता है. जब गरीब लोग खुश और हंसते-गाते नजर आते हैं तो उसे आश्चर्य होता है कि ये लोग इतने खुश क्यों और कैसे हैं? उसे लगता है जब दुनिया जल रही हो तो ऐसे में लोग अपने में मस्त मगन कैसे रह सकते हैं? इस बात पर भी वो जब-तब बौखलाया हुआ रहता है. फिल्म में मानव कौल (अलबर्ट पिंटो), नंदिता दास (गर्लफ्रेंड स्टेला) और सौरभ शुक्ला (ड्राइवर नायर) ने लीड रोल्स किए हैं. अल्बर्ट का कैरेक्टर फ्रस्ट्रेशन से भरे आम आदमी का है, जो सबसे ज्यादा खुद पर गुस्सा है.

अल्बर्ट नाम के नायक का गुस्सा मानव कौल आपको भी शिद्दत से महसूस करवाते हैं. अल्बर्ट पिंटो की भूमिका में मानव कौल ने एक ईमानदार, नौकरीपेशा, मध्यवर्गीय लेकिन जिंदगी से अचानक उखड़ चुके युवक की भूमिका निभाई है. मानव कौल की हंसी में उनके किरदार के भीतर की चिढ़न, गुस्सा, मजबूरी, लाचारी और बौखलाहट बहुत साफ उभरती है. कुल मिलाकर मानव कौल का चेहरा भावनाओं का एक शानदार कॉकटेल दर्शकों को परोसता है! सौरभ शुक्ला का कैरेक्टर एक गुंडे का है. ‘सत्या’ वाले कल्लू मामा वाले जोन का. सौरभ शुक्ला अपने कैरेक्टर में बहुत कंफर्टेबल लगते हैं. यहां उन्होंने गजब की हरियाणवी बोली है. इस टोन में निपट देसी शब्दों के साथ उन्होंने कई धाकड़ संवाद कमाल तरीके से कह दिए हैं. सौरभ शुक्ला अपनी कॉमेडी टाइमिंग और पंच से आपको पूरी फिल्म में प्रभावित करते हैं.

मूल फिल्म में स्टेला का जो किरदार शबाना आज़मी ने निभाया था वह इस फिल्म में नंदिता दास निभाती हैं. नंदिता दास फिल्म में तीन-चार किरदारों में दिखाई दे रही हैं, लेकिन फिर भी उनकी भूमिका काफी सीमित है. वे हर किरदार में फबती हैं और उनके सीन में होने भर से वजन आ जाता है. उन्हें देखकर नहीं लगता कि ये सब करने में उन्हें कोई मेहनत लग रही है. लेकिन उनकी संक्षिप्त भूमिका खटकती है.

पूरी फिल्म नायर और अलबर्ट पिंटो के बीच हो रही बातचीत में निकलती है, इस कारण संवादों की भूमिका बेहद अहम हो जाती है. ऐसे में भी फिल्म कुछ भारी-भरकम बातें बोलकर स्मार्ट बन जाने की कोशिश जरा भी नहीं करती. जैसी बातचीत हम अपने किसी दोस्त के साथ करते हैं और जिस भाषा में करते हैं, फिल्म भी कुछ वैसे ही करती चलती है. यहां भले माहौल हल्का ही है लेकिन बातें फिर भी गंभीर होती हैं. जैसे फिल्म के एक सीन में जब नायर कुछ ज्यादा ही टची होने लगता है, तो अलबर्ट बताता है कि उसे लड़कों में दिलचस्पी नहीं. नायर पूछता है- ‘ट्राय किया है कभी? अगर नहीं किया तो कैसे पता कि तेरा इंट्रेस्ट लड़कों में है या नहीं.’ यहां पर गे होने से लेकर, बच्चों (खासतौर से छोटे लड़कों)के यौन शोषण, वर्ग भेद, भ्रष्टाचार, एक आदमी की फ्रस्ट्रेशन और साथ में प्यारी सी लव स्टोरी पर एक साथ बातें चलती हैं.

दरअसल इस फिल्म के जरिए निर्देशक सौमित्र रानाडे हर उस आम आदमी की घोर हताशा दिखाते हैं जो ईमानदारी की जिंदगी जीता है, टैक्स देता है लेकिन फिर भी परेशान रहता है. सिनेमैटोग्राफी के लिए फिल्म में बहुत ज्यादा स्कोप नहीं है. कैमरे का ज्यादा फोकस चेहरों पर है ताकि उनके बारीक से बारीक एक्सप्रेशन को कैद किया जा सके. इस कारण फिल्म में क्लोज शॉर्ट काफी ज्यादा है, जो खलते भी नहीं है. सामाजिक सरोकार की फिल्में पसंद करने वालों को यह फिल्म अच्छी लगेगी.


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