जरूरी और भारी विषय पर बनी एक हल्की फिल्म


film review of ek ladki ko dekha to aisa laga

 

निर्देशक: शैली चोपड़ा धर

लेखक: गज़ल धालीवाल

कलाकार: अनिल कपूर, सोनम कपूर, राजकुमार राव, जूही चावला

समय के साथ चलने का दबाव एक ऐसी चीज है जिसे खाने, फैशन, सोच, लेखन, राजनीति, साहित्य या फिर फिल्म हर जगह देखा और महसूस किया जा सकता है. इस दबाव के चलते एक अच्छी चीज यह होती है कि न चाहते हुए भी आप वक्त की रफ्तार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करते हैं. लेकिन इसका नकारात्मक पक्ष यह है कि आप इस बदलाव को दिल से महसूस नहीं करते. कुछ ऐसा ही माजरा है फिल्म ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ के साथ. यह फिल्म एलजीबीटी समुदाय के बोल्ड मुद्दे को अपनी कहानी में उठाती तो है, लेकिन प्रभावी तरीके से उसका ट्रीटमेंट नहीं कर पाती.

साल 1994 में आई बॉलीवुड की आईकॉनिक फिल्म ‘1942 ए लव स्टोरी’ के टाइटल सांग पर बनी यह फिल्म अनिल कपूर और उनकी बेटी सोनम कपूर को पहली बार फिल्म के पर्दे पर भी बाप-बेटी के रोल में दिखाती है. यह बड़े आश्चर्य की बात है कि असल के पिता-पुत्री भी पर्दे पर इसी भूमिका को निभाने में कोई आत्मीय सा प्रभावी संबंध नहीं रच पाते. फिल्म की कहानी एक पंजाबी परिवार की है जिसकी बेटी स्वीटी (सोनम कपूर) बचपन से ही प्यार और शादी के सपने देखती है. स्वीटी को जिससे प्यार है उसके बारे में वह कभी बता नहीं पाती और साहिल मिर्जा (राजकुमार राव) जिसे स्वीटी से प्यार है, वह शादी का ऑफर मिलने के बाद भी उससे शादी कर नहीं पाता. कुल मिलाकर शादी और प्यार को लेकर फिल्म में कई टवीस्ट हैं. एलजीबीटी समुदाय के एक गंभीर मुद्दे को उठाती यह कहानी, न तो पूरी तरह मसाला फिल्म ही बन पाती है और न अपने विषय के साथ ही न्याय कर पाती है.

एलजीबीटी समुदाय के लोगों को समाज में किन-किन चुनौतियों का समाना करना पड़ता है यह एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है. जिसे पर्दे पर दिखाने बहुत सारे पहलू हो सकते हैं. यह फिल्म एक टिपिकल पंजाबी परिवार में रहने वाले एलजीबीटी समुदाय के एक व्यक्ति को स्कूल, परिवार, समाज और शादी में आने वाली अड़चनों पर बात करती है. इस बात के लिए फिल्म की तारीफ की जानी चाहिए कि वह इस मुद्दे पर छोटे कस्बों, शहरों से लेकर हर जगह इस समुदाय के लोगों के अधिकारों की बात करने की वकालत करती है. साथ ही उनके प्रति समाज को संवेदनशील बनाने की चाह भी रखती है. हालांकि फिल्म अपने ‘बोल्ड विषय’ के बावजूद ‘कमजोर कहानी’ के साथ सामने आती है.

निर्देशन के क्षेत्र में ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ फिल्म से डेब्यू कर रही शैली चोपड़ा धर इस विषय को फिल्माने के लिए तारीफ बटोर सकती हैं. वे एक गंभीर मुद्दे को मसाला फिल्म में फिट करने की संतुलित कोशिश तो करती हैं, पर यह संतुलन बना नहीं रह पाता. फिल्म के अंत में एलजीबीटी समुदाय के जीवन और अधिकारों पर बात करता एक नाटक फिल्माया जाता है. यदि नाटक के माध्यम से ही इस मुद्दे को गहराई से दिखाया जाता, तो भी बात संभल सकती थी. लेकिन इतने गंभीर विषय पर पूरी फिल्म तो क्या उस नाटक में भी प्रभावित करने वाले डायलॉग या सीन नहीं हैं. उसके बावजूद भी नाटक देखते हुए ही जिस तरह से नाटक के थीम पर बौखलाए हुए अनिल कपूर जज्बाती होकर नाटक के भीतर ही स्टेज पर घुसकर एक पात्र की पिटाई करने लगते हैं वह अति नाटकीयता बड़ी ही अजीब लगती है.

निर्देशन के स्तर पर भी फिल्म दर्शकों को बहुत गहरे तक प्रभावित करने में सफल नहीं होती. हालांकि फिल्म में आने वाली हल्के-फुल्के हास्य की फुलझडियां जब-तब दर्शकों को गुदगुदाने की अच्छी कोशिश करती हैं.

इस फिल्म में सोनम कपूर ने एक्टिंग करने की काफी कोशिश की है. लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों उनको देखकर फिर से लगा कि जैसे उनके ऊपर एक्टिंग करने का कुछ वैसा ही दबाव है, जैसे किसी को उसकी मर्जी के खिलाफ पुश्तैनी काम में धकेल दिया जाए.

पिता के रोल में अनिल कपूर अच्छे लगते हैं, लेकिन फिल्म का टाइटल सांग चलने पर अक्सर ही युवा अनिल कपूर को पर्दे पर देखने की चाह रह-रह कर उमड़ती है. राजकुमार राव जैसे शानदार कलाकार को इस फिल्म ने सिर्फ बेवजह में खर्च किया है. लेखक की भूमिका निभाने वाले ‘साहिल मिर्जा’ के रूप में यहां राव के लिए एक्टिंग की कोई ज्यादा चुनौती नहीं थी, सो वे भी कुछ ठंड सी मार कर बैठ गए लगते हैं. राजकुमार राव को इस तरह से फिल्म में जाया होते हुए देखना बुरा लगता है.

कैटरर की भूमिका में ‘छत्रो’ यानी जूही चावला अपने उसी पुराने चुलबुले, शोख से अंदाज में दिखती हैं जो देखना अच्छा लगता है. इस फिल्म में बड़े किरदारों से ज्यादा जान छोटी भूमिका वाले किरदारों ने डाली है. फिर चाहे वे ‘चौबे’ की भूमिका में ब्रजेंद्र काला हों, ‘बिल्लौरी’ के रोल में सीमा पाहवा हों या फिर ‘बीजी’ की भूमिका में मधु मालती कपूर हों. इन सभी किरदारों ने फिल्म को अपने अभिनय से जायकेदार बनाए रखा है. दक्षिण भारतीय अभिनेत्री रेजिना कैसेंड्रा ‘कुहू’ की भूमिका में आत्मविश्वासी लगती हैं.

फिल्म ठेठ पंजाब की जमीन पर फिल्माई जाने के बावजूद पंजाब की खुशबू दर्शकों तक रत्ती भर भी नहीं पहुंचाती. सिवाए एक सीन के जिसमें दूर तक सरसों के फूलों से खेत आपको अपनी तरफ बेहद आकर्षित करते हैं. कुल मिलाकर फिल्म की सिनेमोटोग्राफी जरा भी असरदार नहीं है. किसी भी किरदार की भाषा में पंजाबी का पुट नहीं है, सो ये जरा भी महसूस नहीं होता की हम किसी पंजाबी परिवार की कहानी देख रहे हैं. फिल्म का संगीत भी अलग से अपनी तरफ ध्यान नहीं खींचता. हां नाचने के शौकीनों के लिए कुछ नए गाए लिस्ट में जरूर जुड़ गए हैं. लेकिन फिल्म का थीम सांग जब भी बजता है वह हर बार अपने ऑरिजनल वर्जन को ही सुनते जाने की मीठी सी ख्वाहिश जगाता है. ऐसे में उस गाने का ये नया वर्जन सुनना सुखद नहीं लगता.

एलजीबीटी समुदाय के व्यक्तियों के प्रति नकारात्मक सोच रखने वाला कोई भी व्यक्ति सिर्फ एक नाटक देखने भर से सोच नहीं बदल सकता है. बदली हुई सोच को व्यवहार में लाना कितना और कैसा मुश्किल होता है, यह दिखाए बिना एक झटके से अनिल कपूर की सोच बदलना बड़ा ही अटपटा लगता है. फिल्म यदि बदली हुई सोच की व्यावहारिक दिक्कतों पर बात करती, तो यह पिता और पुत्री के बीच न सिर्फ रिश्ते को खूबसूरती से दिखा सकती थी बल्कि इस विषय पर कहीं ज्यादा संवेदनशील और प्रभावी फिल्म बन पड़ती.


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