किसानों के गले की फांस बनती जा रही है खाद्य कीमतों में कमी


food inflation falls on record level, cause of farmer suffering

 

खाद्य मुद्रास्फीति यानी कि खाने की चीजों में होने वाली मंहगाई लगातार निचले स्तर पर बनी हुई है. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के एक अध्ययन से पता चला है कि साल 2018-19 में औसत खाद्य कीमतें बीते साल यानी 2017-18 की कीमतों के लगभग बराबर थीं. ये ऐसी घटना है जिसे कम से कम पिछले 27 सालों से नहीं देखा गया था.

खाद्य कीमतों के ना बढ़ने का सीधा मतलब है कृषि उपज की उचित कीमत ना मिलना. किसानों को इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. जो पूरे देश में किसानों की बदहाली की एक वजह भी है. क्रिसिल के आंकड़े कहते हैं कि 2018-19 के उपभोक्ता सूचकांक से मापी गई खाद्य मुद्रास्फीति में सिर्फ 0.1 फीसदी की वृद्धि हुई है.

पिछली बार 1999-2000 में ऐसा हुआ था जब खाने की चीजों की कीमतें एक फीसदी से नीचे आई थीं.

अर्थशास्त्रियों के मुताबिक खाद्य कीमतों में ये कमी फसलों के बंपर उत्पादन, कम खपत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कम कीमतें और एमएसपी कम होने की वजह से है.

एमएसपी यानी कि मिनिमम सपोर्ट प्राइस, सरकार किसानों को उनकी फसल के लिए उपलब्ध कराती है. एमएसपी पर सरकार किसानों की उपज को पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन और भंडारण के लिए खरीदती है. इसका असर फसल की बाजार कीमतों पर सीधे तौर पर पड़ता है. खाद्य कीमतों के कम होने की पीछे की एक वजह एमएसपी में उचित वृद्धि ना होना भी है.

क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डीके जोशी कहते हैं, “मैं खाद्य कीमतों में कमी का श्रेय दो कारणों को दूंगा, पहली पिछले तीन-चार सालों में उत्पादन में बढ़ोतरी और अनुकूल वैश्विक कीमतें.”

2913-14 के बाद खाद्य कीमतें लगातार कम होती गई है. खाद्य कीमतों में ये गिरावट केवल एक पैमाने पर बेहतर कही जा सकती है, जब उत्पादन में अत्यधिक वृद्धि हो. ज्यादा उत्पादन किसानों को फसल की कम कीमत की भरपाई कर देता है. कम कीमत के लिए अन्य सभी वजहें किसान की जेब पर भारी पड़ती हैं.

अब सवाल ये उठता है कि अपनी फसल की कीमतों को लेकर पूरे देश में आंदोलनरत किसानों के लिए इसका क्या मतलब हैं? केयर रेटिंग के मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस कहते हैं, “ये उस तथ्य की एक झलक है कि किसान अपनी उपज की बहुत कम कीमत पा रहे हैं.”

इस बारे में देश के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद प्रणब सेन का विचार प्रासंगिक है. सेन कहते हैं, “खाद्य कीमतों में कमी का अधिक उपलब्धता से कोई सीधा संबंध नहीं है और ना ही इसमें किसी सरकारी प्रबंधन का हाथ है. जहां तक मैं सोचता हूं, नोटबंदी के बाद साधारण आदमी के पास पैसा नहीं रहा है, जिसका सीधा असर मांग पर दिख रहा है. कीमतों में गिरावट की वजह सिर्फ सप्लाई नहीं है.”


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