आदिवासी अधिकारों के खिलाफ एक फैसला


SC issues notice to center plea against Transgender act

 

29 दिसंबर 2006 को राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने वन अधिकार कानून को मंजूरी दी थी. लेकिन यह कानून 31 दिसंबर 2007 को अस्तित्व में आया. यह ऐतिहासिक कानून दशकों से चले आ रहे लोकप्रिय आंदोलनों का परिणाम है. इस कानून में यह खुलकर स्वीकार किया गया कि आदिवासियों यानी अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के साथ लंबे समय तक अन्याय हुआ है. इसलिए इसका मकसद इतिहास के उस अन्याय को दुरूस्त करना था.

इसी भावना के तहत कई महत्वपूर्ण प्रस्तावों को कानूनी जामा पहनाया गया. यह तय हुआ कि 13 दिसंबर 2005 से पहले तक जिस भी वन भूमि पर आदिवासियों का व्यक्तिगत या सामूहिक दखल रहा है, वह बरकरार रहेगा. इसके अलावा पहले से गैर-आदिवासियों के कब्जे में मौजूद वन भूमि को अतिक्रमण माना जाएगा.

लेकिन वाइल्डलाइफ फर्स्ट और अन्य बनाम वन एवं पर्यावरण मंत्रालय और अन्य के मुकदमे में 13 फरवरी को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद फिर से आदिवासी अधिकारों को लेकर बहस छिड़ गई है. कोर्ट ने उन आदिवासियों के निष्कासन का आदेश दिया है, जिनके वन भूमि पर दावे वन अधिकार कानून, 2006 के तहत खारिज किए जा चुके हैं. कई विशेषज्ञों की राय है कि इस फैसले से आदिवासियों की सुरक्षा के लिए पहले से मौजूद संवैधानिक प्रावधानों की अवहेलना हो सकती है.

अंग्रेजी अखबार द हिंदू में काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट की निदेशक कल्पना कन्नाबिरन ने इस मसले को विस्तार से समझाया है. उन्होंने संविधान की धारा 19 (5) का हवाला दिया है. इस धारा के तहत आदिवासियों के हितों और सुरक्षा के लिए राज्य को कानून बनाने का निर्देश दिया गया है. कन्नाबिरन ने 2016 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर यह राय व्यक्त की है कि सिर्फ प्राधिकरणों द्वारा आदिवासियों के दावे खारिज किए जाने भर से उन पर अतिक्रमण का अपराध नहीं थोपा जा सकता. उन्होंने 2014 में भारत सरकार द्वारा बनाई गई उच्च स्तरीय कमिटी की रिपोर्ट का भी संदर्भ दिया है. रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि “बिना कोई कारण बताए या कानून की गलत व्याख्या के आधार पर आदिवासियों के दावे खारिज किए गए…दावेदारों को इसकी सूचना भी नहीं दी गई, न ही उन्हें फिर से अपील करने की सुविधा मुहैया कराई गई और इस बारे में बताया भी नहीं गया.”

2013 में ही आदिवासी अधिकारों और वन प्रबंधन पर काम करने वाले गुजरात इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च के प्रोफेसर मधुसूदन बंदी ने यह बात उठाई थी. इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में लिखे अपने लेख में उन्होंने कहा था, “वन अधिकार कानून को कई गंभीर समस्याएं प्रभावित कर रही हैं. दावों को कई वजहों से खारिज किया जा रहा है. ज्यादातर मामलों में सतही आधार पर ये हो रहा है. इसने दावेदारों के अधिकारों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है.” उन्होंने निष्कासन से जुड़ी वन अधिकार कानून की धारा 4 (5) का उदाहरण देकर यह बताया कि बिना सही जांच के ही इसका इस्तेमाल दावेदारों के खिलाफ किया जा रहा है.

 

2014 में सोशल साइंटिस्ट जर्नल में प्रकाशित अपने एक अन्य लेख में प्रोफेसर मधुसूदन बंदी ने कई अहम बातों को उजागर किया है. उनका कहना था कि दावों को कमजोर करने के लिए प्राधिकरणों द्वारा जानबूझकर वन अधिकार कानून की कट ऑफ तारीख को 2005 की बजाय 1980 बताया जा रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि 1980 के पहले से जिनका जमीनों पर सामूहिक या व्यक्तिगत दखल था, उन्हें ही दावा करने दिया जा रहा था.

फिलहाल ओ पी जिंदल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर वकील और राजनीतिक शास्त्र के अध्येता आर्मिन रोसेंक्रांज़ ने वन अधिकार कानून के लागू होने के बाद 2008 में उस पर एक लेख लिखा था. जर्नल ऑफ द इंडियन लॉ इंस्टीट्यूट के अपने लेख में उन्होंने औपनिवेशिक दौर और आजाद भारत में बने आदिवासियों से जुड़े कानूनों के बारे में विस्तार से बताया है.

वन अधिकार कानून में मौजूद बड़ी आकांक्षाओं को रेखांकित करने के साथ-साथ उन्होंने उसके पालन में होने वाली दिक्कतों की तरफ भी इशारा किया है. उन्होंने लिखा, “हर स्तर पर कानून की शुरुआती आकांक्षाओं को पर्यावरण मंत्रालय, राज्यों के वन विभाग और वाइल्डलाइफ लॉबी की राजनीतिक सहूलियत के लिए कमजोर किया जा रहा है. कानून के लागू होने के बाद से सरकार की प्रतिक्रिया या तो कमजोर रही है या फिर पूरी तरह नकारने की रही है.”

पर्यावरण और भूमि विवादों पर काम करने वाली पत्रकार अरुणा चंद्रशेखर द्वारा 21 फरवरी को किए गए ट्वीट्स से कई जमीनी सच्चाईयां सामने आती हैं. अपने जमीनी अनुभवों के आधार पर उनका आकलन है कि देश के कई राज्यों में वन अधिकारों से जुड़े दावे वर्षों से सरकारी दफ्तरों में धूल खा रहे हैं. बड़े पैमाने पर आदिवासी भी वन अधिकार कानून या अपने अधिकारों के बारे में जानते तक नहीं हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आदिवासियों को अंधेरे में रखकर और आदिवासी अधिकारों को दरकिनार कर उनका निष्कासन उचित है?

सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि आजाद भारत में आदिवासियों के संघर्ष का शायद निकट भविष्य में कोई अंत नहीं है. 2006 का वन अधिकार कानून लंबे समय से चले आ रहे उनके आंदोलनों की एक बड़ी जीत थी. हालांकि, इस सफर में उन्होंने कई और जीत भी हासिल की है.

2008 में छत्तीसगढ़ के लोहांडीगुडा में टाटा स्टील के प्लांट के लिए अधिग्रहीत की गई जमीनों को नई कांग्रेस सरकार ने अभी हाल ही में आदिवासियों को लौटाने का फैसला किया. यह जीत लोकतंत्र की ताकत का इस्तेमाल कर हासिल की गई. बहुत हद तक इसी ताकत ने भारतीय राज्य को मजबूर किया कि वह उनके साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को सुधारे. 2006 का वन अधिकार कानून उसी दिशा में उठाया गया एक कदम था.


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