स्मृति शेष: कॉमरेड एके रॉय को सलाम!


Former Dhanbad MP and Communist thinker AK Roy dies at 84

 

कॉमरेड एके रॉय की सादगी, उनकी ईमानदारी, उनका जूझारूपन, माफियों से लोहा लेना और विधायक व सांसद के रूप में वेतन-भत्ते न लेने की बात पर कोयलांचल से बाहर के लोगों को विश्वास करना मुश्किल ही होता था. मैं जब जनसत्ता अखबार से जुड़ा था और दिल्ली जाने का सिलसिला शुरू हुआ तो कई पत्रकार बड़ी उत्सुकता से रॉय दा के बारे में जानने-सुनने को आतुर रहते थे.

झारखंड से ही ताल्लुकात रखने वाले ‘जनसत्ता’ के उप संपादक सत्येंद्र रंजन अस्सी के दशक में धनबाद आए थे तो उनके एजेंडे में एके रॉय से मिलना भी शामिल था. वह मेरे साथ रॉय दा के एक कमरे वाले निवास स्थान के पास पहुंचे तो उन्हें यह देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि रॉय दा सड़क के किनारे सार्वजनिक नल से पानी लेकर वहीं स्नान कर रहे थे.

कॉमरेड रॉय तीन बार धनबाद के सांसद रहे. उसके पहले तीन बार विधायक भी रहे. वे साल 1989 में तीसरी बार लोकसभा के लिए चुनावी दंगल में थे. उसी दौरान बीसीसीएल के एक वरीय अधिकारी ने चुनाव खर्च के लिए रॉय दा को 50 हजार रुपये भिजवाए. रॉय दा ने विनम्रता से उन रूपयों को लेने से मना कर दिया था. यह वाकया उन्होंने मुझसे साझा करते हुए कहा था – “कार्यकर्त्ता अपनी रोटी खाकर और अपने संसाधनों का इस्तेमाल करके चुनाव लड़ते हैं. ऐसे में मुझे रुपयों की क्या दरकार थी.”

गांधी जयंती के मौके पर धनबाद के गांधी सेवा सदन में कार्यक्रम था. गांधी सेवा सदन के अध्यक्ष और वरिष्ठ पत्रकार श्रद्धेय सतीश चंद्र जी ने रॉय दा को मुख्य अतिथि के तौर पर निमंत्रित किया हुआ था. वह जानते थे कि रॉय दा के पास गाड़ी नहीं है और उनकी सवारी किसी कार्यकर्त्ता की मोटर साइकिल ही होती है. इसलिए उन्होंने रॉय साहब से कहा, “कार भेज रहा हूं. आप उसी से समारोह में आ जाइएगा.”

रॉय दा ने विनम्रता से मना कर दिया और कहा – “मैं किशोर जी के साथ उनके स्कूटर से आ जाऊंगा.” …और ऐसा ही हुआ.

एके रॉय की अगुआई वाली मार्क्सवादी समन्वय समिति (एमसीसी) के विधायक गुरुदास चटर्जी (अब दिवंगत) बीसीसीएल की पुटकी कोलियरी में श्रमिकों की मांगों को लेकर भूख हड़ताल पर थे. रॉय दा को वहां जाना था. वह मोटर साइकिल वाले किसी कार्यकर्त्ता को तलाश रहे थे. तभी उनके दफ्तर से गुजरते हुए मुझसे सामना हुआ. उन्होंने मुझसे पूछा – “पुटकी में प्रशासन के हस्तक्षेप से समझौता वर्ता होनी है, आप चलेंगे?” मै तैयार हो गया तो वे मेरे स्कूटर पर पीछे बैठ गए.

मैं रास्ते में पेट्रोल के लिए रुका. पेट्रोल लेने के बाद पेट्रोल पंप वाले को रुपये दिए तो खुल्ले का झंझट आ खड़ा हुआ. मैंने रॉय दा से पूछा, “आपके पास सात रुपये हैं?”

रॉय दा ने कहा, “सात नहीं, पांच रुपये हैं, एक-एक रुपए के पांच नोट. “

मैंने कहा – ठीक है, दीजिए. वे अपने पायजामें के नारे के पास के कपड़े को मोड़कर नोट रखते थे. जैसा कि पुराने जमाने के लोग अक्सर ऐसा करते थे, रॉय दा नोट निकालने के लिए दूसरी तरफ मुड़ गए.

मैंने शरारतवश रॉय दा से कहा, “लगता है कि रुपए ज्यादा हैं. इसलिए आप दूसरी तरफ मुड़ गए हैं.“

रॉय दा ने तुरंत ही मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहा – “देखिए, पांच रुपए ही हैं.“ ठीक ही, पांच रुपये ही थे. खैर, तब तक पेट्रोल पंप वाले को खुल्ले का इंतजाम हो गया था. हम आगे की ओर बढ़ गए थे.

रॉय दा एमपी थे और दिल्ली में थे. मैं भी दो-तीन दिनों के लिए दिल्ली पहुंचा. रॉय दा के फोन नंबर पर फोन मिलाया और मिलने उनके एमपी फ्लैट में चला गया. मैं यह देखकर हैरान था कि वे सीपीएम के सांसद हराधन रॉय के फ्लैट के एक कमरे में रह रह थे और अपना भोजन खुद ही बनाते थे.

रॉय दा का निजी खर्च पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं के एवज में मिले पारिश्रमिक से चलता था. मैं एक बार उनके दफ्तर में गया तो वे ‘जनसत्ता’ के प्रधान संपादक प्रभाष जोशी का लिखा पत्र पढ़ रहे थे. प्रभाष जी ने पत्र के जरिए रॉय दा से आग्रह किया था कि वे ‘जनसत्ता’ के लिए भी लिखा करें.

हिंदी में न संभव हो तो अंग्रेजी में ही सही. रॉय दा ने ठान लिया कि वे हिंदी में लिखेंगे. ऐसा हुआ भी. वे ‘जनसत्ता’ के लिए हिंदी में लेख लिखकर भेजते थे और उसे संपादकीय पन्ने पर प्रमुखता से स्थान मिलता था.

रॉय दा जुड़े अनेक संस्मरण मेरे जेहन में है. फिर कभी. राजनीति के अजातशत्रु को अलविदा!


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