चुनावी बिगुल के वक्त कांशीराम के गांव का सन्नाटा


ground reporting from dalit leader kanshiram Village Pirethipur Bunga Sahib

  मनीषा भल्ला

दलित सियासत में उफान लाने, बेज़ुबान दलितों को बुलंद आवाज़ देने और बिना डरे सड़कों पर इंसाफ़ मांगने, अपने हक़ की लड़ाई लड़ पाने की हिम्मत और जज़्बा पैदा करने का सेहरा कांशीराम के सर जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि वह डॉ.भीमराव अंबेडकर के बाद दलितों के सबसे बड़े नेता हैं. जिन्होंने बाबा साहब और फुले जैसे जननायकों के विचार जन-जन तक पहुंचाया. बिना सुविधाओं के सड़कों पर लाखों का हुजूम जमा कर आंदोलन किए. उस वक़्त में कांशीराम द्वारा दलित आंदोलन की जलाई मशाल आज भी क़ायम है.

आज कोई सियासी पार्टी दलितों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकती. लेकिन दलित क्रान्ति के इस जननायक के अपने गांव में इसके नाम की अब सिर्फ धुंधली सी लौ जल रही है, नाम लेने वाले नाममात्र ही बचे हैं.

पंजाब के रोपड़ में गांव पिरथीपुर बुंगा साहिब जो कि हमेशा राजनीतिक महफिलों से आबाद रहता था अब ख़ामोश रहता है.

इस बार की चुनावी बिसात में दलित राजनीति के मोहरों को कोई नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता है. बीते सालों में दलित उत्पीड़न की घटनाएं, उत्तर प्रदेश में भीम आर्मी का उदय और दलितों के घरों में नेताओं द्वारा भोजन करने के सिलसिले दलित मुद्दों को खूब हवा देंगे. किसी भी पार्टी की रैली हो, खासकर हिंदीपट्टी में तो दलित मुद्दे नेताओं की तक़रीर का हिस्सा होंगे. इनके ज़रिये कांशीराम की चर्चा भी होगी लेकिन त्रासदी यह है कि आज उनके अपने गांव में उनका कोई नाम नहीं लेता.

यहां देशभर से नेताओं का आना जाना लगा रहता था. कार्यकर्ताओं की भीड़ रहती थी. लेकिन अब सन्नाटा पसरा रहता है. इन दिनों यहां केवल कांशीराम की छोटी बहन सवर्ण कौर रहती हैं. कांशीराम की चार बहनें थीं. पिता हरि सिंह की मौत के बाद उनकी मां बिशन कौर अकेली रह गईं. कांशीराम ने अपनी बहन सवर्ण कौर को आदेश दिया कि वह अब मां के पास ही रहेंगी और उनका खयाल रखेगी. तब से सवर्ण कौर यहीं रह रही हैं.

सवर्ण कौर बेशक राजनीति में सक्रिय नहीं है लेकिन वह पूरी तरह से राजनीति समझती हैं और राजनीतिक तौर पर सजग भी हैं. कांशीराम की मौत के वक़्त इनके परिवार और मायावती के बीच पैदा हुआ विवाद भी अभी तक ज़िंदा है. वह कहती हैं, “वीर जी (कांशीराम) ने यूपी इसलिए तैयार किया था क्योंकि वह बड़ा सूबा था. वह जानते थे कि बड़े सूबे में काम करेंगे तभी केंद्र तक आवाज़ जाएगी. कांशीराम कहते थे कि पंजाब में हर गया गुज़रा आदमी भी पेट भर रोटी खाता है, पंजाब में कोई दिक़्क़त नहीं है इसलिए बेहतर है कि उत्तर प्रदेश में काम किया जाए.”

सवर्ण कौर के अनुसार देश में बामसेफ और बसपा जैसे संगठन खड़ा करने वाले नेता के घर अब कोई नहीं आता है. न पंजाब से, न देश के किसी दूसरे राज्य से. वह कहती हैं कि आज बसपा जैसी पार्टी में गुमराह लोग रह गए हैं. बातचीत में वह बार-बार मायावती के खिलाफ खूब ज़हर भी उगलती हैं. वह कहती हैं, “पार्टी के बुज़ुर्ग लोग अब थक गए हैं, कुछ बिक गए हैं और नौजवानों को कांशीराम के बलिदान के बारे में पता नहीं है.”

गौरतलब है कि हर चुनाव में अलग-अलग सियासी दलों के नेता सवर्ण कौर के घर पहुंचते हैं. लेकिन इस दफा सवर्ण कौर किसके मंच पर जाएंगी इसपर वह साफ-साफ नहीं बताती हैं. इतना कहती हैं कि कांशीराम के नाम पर मायावती या उनके लोग जहां-जहां भी राजनीति करेंगे वह वहां-वहां जाकर उनका विरोध करेंगी. सवर्ण कौर का कहना है कि मायावती या उनसे जुड़ा कोई शख्स न तो इस घर में आएगा न इस इलाक़े में कोई रैली करेगा. वह बताती हैं कि जिन्हें टिकट चाहिए है वह अब पार्टी में कांशीराम का नाम तक नहीं लेते हैं.

सवर्ण कौर के अनुसार आज दलित क़ौम अनाथ हो गई है क्योंकि अब बसपा में हर कोई टिकट लेना चाहता है और कुर्सी पाना चाहता है. लेकिन वीर जी (कांशीराम) आंदोलनकारी थे जो अपनी क़ौम के लिए सड़कों पर उतरते थे. देश घूमते थे. कहीं भी सो जाते थे, कुछ भी खा लेते थे.

कांशीराम के घर के सामने वाले घर में मक्खन सिंह रहते हैं. उनसे कांशीराम के बारे में पूछा तो कहने लगे, “जब बाऊ जी (कांशीराम) यहां आते थे तो रौनक़ लगी रहती थी. हम भी यहां खूब आते थे लेकिन अब तो यहां सुनसान सा रहता है. पंजाब में अब तो बहुत दिक्कते हैं. नशा, बेरोज़गारी, डिप्रेशन सब है. हम चाहते हैं कि बसपा हमारी बात करे, हमें साथ लेकर चले, हम बसपा के मंच पर जाएं लेकिन अब पार्टी में बाज़ू पकड़ने वाले हाथ ही नहीं रहे. कोई पार्टी चलाने वाला नहीं. युवा तो पार्टी में है ही नहीं. तेल है कोई आग लगाने वाला नहीं.”

मक्खन सिंह की बहन बताती हैं कि हम तो आज भी यही कहते हैं कि ‘कांशी राम जी तेरी सोचते, पैरा दवांगे ठोक के…’ लेकिन अब बसपा में कोई साधारण दलित की बात नहीं करता. अब पार्टी पहले वाली कांशीराम जी वाली पार्टी नहीं रही. न वो रहे, न उनका घर वैसा रहा न यह गांव.


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