क्या प्रज्ञा ठाकुर ने आरएसएस का मुखौटा उतार दिया है?


Has Pragya Thakur removed RSS mask?

 

ऐसा लगता है प्रज्ञा ठाकुर को आरएसएस-बीजेपी ने भोपाल से अपना उम्मीदवार बनाकर आत्मघाती गोल कर लिया है. हालांकि प्रज्ञा ठाकुर के सन्दर्भ में कहें तो आत्मघाती गोल की बजाय आत्मघाती हमला कहना ज्यादा मुफ़ीद होगा.

उनकी ट्रेनिंग सावरकर के संगठनों हिन्दू महासभा और अभिनव भारत की रही है. इसलिए वो इतनी घाघ नहीं हैं जितना कि आरएसएस के लोग सामान्य तौर पर होते हैं. आरएसएस के कैडर को पहले दिन से ही झूठ बोलना और अपने किए से मुकर जाना दर्शन की तरह सिखाया जाता है. उन्हें सिखाया जाता है कि संघ की शाखाओं और बंद कमरों की बातचीत में गांधी का जितना चाहो चरित्र हनन करो, लेकिन सार्वजनिक मंच से गांधी के खिलाफ कुछ भी आपत्तिजनक नहीं बोलना है.

आरएसएस की यह रक्षात्मक मुद्रा गांधीजी की हत्या और उसके बाद सरदार पटेल द्वारा उस पर प्रतिबन्ध के सन्दर्भ में समझी जा सकती है. सरदार पटेल ने आरएसएस द्वारा तैयार किए गए माहौल को गांधीजी की हत्या का जिम्मेदार बताया था और वो पूरी शिद्दत के साथ गांधीजी की हत्या में सावरकर और आरएसएस की संलिप्तता की तलाश कर रहे थे. लेकिन पहले खराब स्वास्थ्य और फिर दिसंबर 1950 में उनकी दुःखद मृत्यु के कारण उनके जीते-जी यह संभव न हो सका.

लेकिन जिस तरह सरदार पटेल ने संघ को प्रतिबंधित किया, उसके बाईस सौ से ज्यादा स्वयंसेवकों को जेल की सलाखों के पीछे फेंक दिया और जिस तरह उसके गुरु गोलवलकर को गिड़गिड़ाकर माफी मांगने और खुद को सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों तक सीमित रहने का हलफनामा देने को मजबूर किया; आम जनता समझ गयी कि सबूत भले न मिले, गांधीजी की हत्या के पीछे आरएसएस का हाथ है.

सबूत मिलता भी कैसे क्योंकि गोलवलकर के आदर्श मुसोलिनी और हिटलर के फ़ासीवादी संगठनों की कार्यशैली में गुप्त कार्यवाहियाँ केन्द्रीय होती थीं. चूँकि अधिकांशतः वो सरकार के विरुद्ध हिंसक और भ्रामक दुष्प्रचार पर टिकी थीं, सरकार के कोप से बचने के लिए किसी भी तरह के कोई दस्तावेज़ न रखना आरएसएस की सांगठनिक नीति था. चूँकि नेहरूजी के शब्दों में कहें तो “साम्प्रदायिकता फ़ासीवाद का भारतीय संस्करण” है, आरएसएस ने गुपचुप ढ़ंग से न सिर्फ़ आज़ादी की लड़ाई के नेताओं को धोखा दिया बल्कि आज़ाद भारत में भी वो साम्प्रदायिक हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिए काम करता रहा.

इस गोपनीय अजेंडे पर काम करने के लिए पहले दिन से जरूरी था कि आज़ादी की लड़ाई की बुनियाद को कमज़ोर बनाया जाए. उसके सबसे प्रभावी और लोकप्रिय नायकों की पहले हत्या और उसके बाद उनका चरित्र हनन किया जाए ताकि समाज पर उनका प्रभाव खत्म हो जाए और आरएसएस अपना प्रभुत्व कायम कर सके. इसी काम को अंजाम देने के लिए पहले तो आरएसएस ने गांधीजी की हत्या करवाई और उसके बाद गुपचुप ढंग से गांधीजी के खिलाफ मिथ्या प्रचार करने लगा.

1980 के बाद जिस तरह जयप्रकाश नारायण और सर्वसेवा संघ का असर आम लोगों पर देखा गया, आरएसएस ने गांधीजी को एक तरफ बदनाम करने और दूसरी तरफ हड़पने की दोहरी नीति बनाई. गांधीवादी होने का तमगा और आंदोलनों में खद्दरधारियों की उपस्थिति आज भी किसी आंदोलन को वैधानिकता देने का सबसे बड़ा प्रमाण है. हाल ही में अन्ना आंदोलन एक दौरान भी वो अन्ना हजारे की गांधी टोपी और खद्दर ही थी, जिसने लोगों की आशा उस आंदोलन में जगाई थी.

इसलिए गांधीजी की हत्या के बाद भी आरएसएस को लगा कि गांधीजी का प्रतीक इतना शक्तिशाली है कि उस पर सीधा हमला करना राजनीतिक आत्महत्या है. इसलिए बेहतर है कि गांधीजी के प्रतीक को हड़प लिया जाए और उनके आसपास के प्रतीकों को अपनी सुविधा के अनुरूप आपस में लड़ाकर उनकी छवि धूमिल की जाए. इसके पीछे समझ यह थी कि एक बार अगर नेहरू, पटेल, भगत सिंह, अम्बेडकर आदि को एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़ा किया जा सके, तो फिर गांधी तो अपने आप ही कमजोर हो जाएंगे.

यही वजह थी 1980 से आरएसएस ने खुद को गांधीवादी कहना शुरू किया, आपातकाल विरोधी आंदोलन के दौरान गांधीवादियों से बने संबंधों का उपयोग वैधानिकता या वेलिडेशन के लिए किया, उनको अपने मंचों पर आमंत्रित किया और खुद गांधीवादी मंचों पर जाने से परहेज नहीं किया. गांधीवादियों ने बिना इसके राजनीतिक परिणामों की परवाह किए, उनकी इस काम में खूब मदद की और ‘संवाद’ के नाम पर अपने स्टैंड को जायज़ ठहराया. परिणाम यह हुआ कि इस वजह से गांधीवादियों की अपनी ऊर्जा और समाज पर उनका प्रभाव जाता रहा और आरएसएस ने धीरे-धीरे गांधी के स्पेस को खाना शुरू कर दिया.

लेकिन प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग जो कि उनकी सीधी ट्रेनिंग की बजाय आरएसएस के सावरकर गुट से सम्बन्ध रखते हैं, वो इस फासीवादी तरीके को पूरी तरह अपना नहीं पाते हैं. हिन्दू महासभा की वैसे भी अंदरखाने यह शिकायत रहती है कि गांधीजी की हत्या का श्रेय आरएसएस ले उड़ा और हमें कुछ नहीं मिला. इसलिए जब प्रज्ञा ठाकुर से पूछा गया तो किसी आम संघी के विपरीत उन्होंने आरएसएस की सोच को दुनिया के सामने परोस दिया.

अब आरएसएस के सामने मुश्किल यह है कि वो अपनी पार्टी के चुनावी उम्मीदवार के बयान से अपना पल्ला कैसे झाड़े तो उसने दबाव डलवाकर प्रज्ञा ठाकुर से माफ़ी मंगवाई.

पिछले दिनों शहीद हेमंत करकरे के मामले में भी प्रज्ञा ठाकुर ने आरएसएस की सोच की कलई खोलने वाला बयान देकर संघ का मुखौटा उतार दिया था. लेकिन इस बार तो गांधी बनाम गोडसे की लड़ाई में उसने आरएसएस को एक ऐसे संघर्ष में बेवजह उलझा दिया है जिसे जीत पाना आज भी आरएसएस के बूते के बाहर की बात है.

(लेखक आज़ादी की लड़ाई को समर्पित संघठन राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट के संयोजक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.)


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