मोदी राज में स्वास्थ्य सेवाएं गर्त में!


health services are in bad condition in modi's rule

 

मोदी राज में विकास के जो दावे किए जा रहे हैं वे दरअसल आभासी विकास के दावे हैं. कम से कम स्वास्थ्य के क्षेत्र में किए गए कार्यों को गहराई से देखने से इसका खुलासा होता है. स्वास्थ्य पर किए जा रहे तमाम दावों के बावजूद इस पर सरकारी खर्च में कटौती की गई है अर्थात् हेल्थ के लिए जरूरी वेल्थ से सरकार अपने हाथ खींच रही है.

योजना आयोग को भंग कर देने से स्वास्थ्य पर दूरगामी नीति बनना बंद सी हो गई है. इसके उलट मेडिकल काउंसिल के स्थान पर जिस नेशनल मेडिकल काउंसिल को लाया जा रहा है उसमें प्रस्तावित किया गया है कि निजी मेडिकल कॉलेजों को लूट की छूट दी जाएगी जिसका स्वास्थ्य सेवाओं पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा और चिकित्सा क्रमशः महंगी होती चली जाएगी. अब क्रमवार ढंग से मोदी राज में किस तरह से स्वास्थ्य सेवाओं का बेड़ा गर्क किया जा रहा है, उसकी विवेचना करते हैं.

सरकारी खर्च में कटौती

एक तरफ नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 में कहा गया है कि स्वास्थ्य पर खर्च को 2025 तक सकल घरेलू उत्पादन का 2.5 फीसदी कर दिया जाएगा. दूसरी तरफ केन्द्र सरकार ने खुद स्वास्थ्य पर बजटीय आवंटन साल 2017 में 2.4 फीसदी, साल 2018 में 2.1 फीसदी और साल 2019 में 2.2 फीसदी किया है. इस तरह से साफ समझा जा सकता है कि साल 2017 के मुकाबले साल 2018 में बजट को 0.3 फीसदी कम कर दिया गया था उसके बाद साल 2019 में 0.1 फीसदी बढ़ा दिया गया. उसके बावजूद यह साल 2017 की तुलना में 0.2 फीसदी कम ही है.

इसी तरह से साल 2018 के बजट में गैर-संक्रामक रोग, चोट और आघात के लिए 1,004 करोड़ रुपए रखे गए थे जिसे साल 2019 में घटाकर 717 करोड़ रुपये कर दिया गया. ध्यान रहे कि इस समय देश में गैर-संक्रामक रोग बढ़ रहें. सबसे ज्यादा मौतें इसी से हो रही हैं. केन्द्र सरकार के विभाग की तरफ से जारी नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2018 के अनुसार गैर-संक्रामक रोग साल 1990 की तुलना में साल 2016 तक 30 फीसदी से बढ़कर 55 फीसदी का हो गए हैं. कैंसर, डाइबिटीज, हृदय रोग और मस्तिष्कघात की रोकथाम और नियंत्रण के लिए साल 2018 में जहां 295 करोड़ रुपए रखे गए थे उसे साल 2019 में घटाकर 175 करोड़ रुपए कर दिया गया है. नियमित टीकाकरण कार्यक्रम तथा पल्स पोलियो के लिए साल 2018 में 7,411.40 करोड़ रुपये रखे गए थे जिसे साल 2019 में घटाकर 6,758.46 करोड़ रुपये कर दिया गया.

केन्द्र सरकार के विभाग की तरफ से जारी नेशनल हेल्थ प्रोफाइल खुद घोषणा करता है कि “The share of Centre in total public expenditure on health has been declining steadily over the years except in 2017-18.”

निजी क्षेत्र को बढ़ावा

नेशनल हेल्थ पॉलिसी 2017 में कहा गया है कि स्वास्थ्य सेवा उद्योग को मजबूत किया जाएगा और स्वास्थ्य सेवा को अधिक प्रभावी, कुशल, तर्कसंगत, सुरक्षित, सस्ती और नैतिक बनाने के लिये निजी क्षेत्र का योगदान लिया जाएगा. जाहिर है कि सरकार की सोच बिल्ली से दूध की रखवाली करवाने जैसी है. यह जगजाहिर है कि निजी क्षेत्र के संस्थान मुनाफा कमाने के लिए ही बनाये जाते हैं और दुनिया का इतिहास गवाह है कि जहां से मुनाफा कमाने की हवस शुरू होती है वहीं पर मानवता दम तोड़ देती है. इसी के बाद नीति आयोग ने जुलाई 2017 में जिला अस्पतालों में गैर-संक्रामक रोगों के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का दिशा निर्देश जारी किया.

गौरतलब है कि राजस्थान में तत्कालीन भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार ने साल 2016 में 42 ग्रामीण पब्लिक हेल्थ सेंटर तथा साल 2017 में 43 शहरी पब्लिक हेल्थ सेंटर को प्राइवेट हाथों में दे दिया. इसके अलावा 50 और पब्लिक हेल्थ सेंटर को निजी हाथों में सौंपने के लिये टेंडर जारी किया था. तत्कालीन राजस्थान सरकार ने इस पीपीपी मॉडल के तहत प्रति पब्लिक हेल्थ सेंटर 30 लाख रुपये तक देने का प्रस्ताव किया था. इसी तरह से आयुष्मान भारत योजना की घोषणा के बाद छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रमन सरकार ने नौ पब्लिक हेल्थ सेंटर को चिकित्सकों तथा स्टाफ की कमी के नाम पर पीपीपी माडल के तहत देने का निर्णय लिया था. उत्तर प्रदेश की बीजेपी सरकार ने केन्द्र सरकार की आयुष्मान भारत योजना के तहत 1000 अस्पतालों को पीपीपी माडल के तहत स्थापित करने की योजना की घोषणा की तथा एक विदेशी फर्म को इस पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट देने को कहा है.

जाहिर है कि भाजपा राज में जहां-जहां इनकी चल पाई वहां-वहां स्वास्थ्य सेवा की जिम्मेदारी से सरकार पीछे हटने लगी तथा निजी क्षेत्र को सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में प्रवेश करने का मौका दिया. यदि इसे व्यापक रूप दिया गया तो प्राइवेट सेक्टर उसी तरह से स्वास्थ्य सेवाओं से सरकार को ढकेल कर बाहर कर देगा जैसे कि अंग्रेजी में एक कहावत है ‘camel which pushed the arab out of tent’ यानी सेवा के नाम पर निजी क्षेत्र स्वास्थ्य सेवाओं पर हावी होने के बाद उससे सरकार को ढकेलकर बाहर कर देगा.

आयुष्मान भारत योजना

दावा किया जा रहा है कि इस योजना के तहत 10.7 करोड़ परिवारों को साल में 5 लाख रुपयों तक इलाज करवाने की सुविधा दी जाएगी. इसके लिये केन्द्र तथा राज्य सरकारें बीमा कंपनियों को प्रीमियम देंगी तथा बीमा कंपनियां इलाज का भुगतान करेंगी. जाहिर है कि इस तरह से सरकार करदाताओं के पैसों को निजी क्षेत्र की झोली में डालने को उतारू है. इस योजना से साफ दिखता है कि सरकार की मंशा सरकारी अस्पतालों को उन्नत बनाने के बजाये बीमा के माध्यम से निजी क्षेत्र को बढ़ावा देनी की है. इस आयुष्मान भारत योजना के तहत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में निजी बीमा कंपनियों, कॉर्पोरेट अस्पतालों, निजी नर्सिंग होम, डाइग्नोस्टिक लैब और दवा कंपनियों के गठजोड़ को मुनाफा कमाने की छूट दी जा रही है जबकि जनता को सस्ती तथा उच्च श्रेणी की स्वास्थ्य सेवा मुहैय्या करवाने के लिये इन पर नकेल कसने की फौरी जरूरत है.

मेडिकल शिक्षा का निजीकरण

प्रस्तावित मेडिकल काउंसिल कमीशन के तहत निजी मेडिकल कालेजों में सरकारी कोटा को 85 फीसदी से घटाकर 40 फीसदी करने की बात की गई है जिससे मैनेंजमेंट कोटा की सीटें 15 फीसदी से बढ़कर 60 फीसदी हो जाएंगी. इस तरह से भविष्य में निजी मेडिकल कालेजों में मैनेंजमेंट कोटा के तहत डोनेशन देकर पैसे वाले परिवार के बच्चे डाक्टर बनने लगेंगे. अभी भी ऐसा हो रहा है लेकिन 15 फीसदी सीटों पर ही. इसे आसानी से ऐसे समझा जा सकता है कि जो पैसे के बल पर डॉक्टर बनेगा वह सबसे पहले उसी पैसे को वापस कमाने की चेष्टा करेगा. अब किस मरीज को समझ में आता है कि कौन-कौन सी जांच करवानी चाहिए और बीमारी में कौन सी दवा लेनी चाहिए. कुल मिलाकर भविष्य और भयावह हो जाएगा मरीजों के लिए जिसे बीमार पड़ने पर अपने जेब से पैसे चुकाने पड़ते हैं. स्वास्थ्य सेवा को स्वास्थ्य उद्योग में धीरे-धीरे तब्दील किया जा रहा है. जबकि जरूरत इस बात की है कि लोक कल्याणकारी सरकार स्वास्थ्य सेवा की जिम्मेदारी खुद ले.

जीएसटी की मार

पहले ज्यादातर जीवनरक्षक दवाओं पर 9 फीसदी टैक्स लगा करता था लेकिन जीएसटी लागू होने के बाद से उन पर 12 फीसदी टैक्स लग रहा है. दवायें महंगी हो गई हैं. उदाहरण के तौर पर 30 जून 2017 तक जो दवा 100 रुपये में बिक रही थी, उस पर लोकल टैक्स पांच रुपये लग रहा था. इस तरह यह दवा 105 रुपये की मिलती थी. लेकिन जीएसटी में नये फॉर्मूले से एमआरपी की 65 फीसदी पर 6 फीसदी एक्साइज ड्यूटी घटी. 5 फीसदी लोकल टैक्स घटा. इस तरह रीवाइज्ड प्राइस हुआ 95.095 रुपये. इस पर 12 फीसदी जीएसटी हुआ 11.41 रुपये का. अब नई कीमत 107.31 रुपये हुई, जो पहले 105 रुपये की थी.

जेनेरिक का छलावा

प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं जेनेरिक दवा उपलब्ध कराने की बात की थी लेकिन आज तक दवा बाजार में सस्ती जेनेरिक दवा उपलब्ध करवाने के लिये कोई कदम नहीं उठाये गए हैं. कुछ समय पहले आदेश जारी किया गया था जिसके तहत दवाओं पर ब्रांडनेम को छोटे अक्षरों में तथा जेनेरिक नेम को बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा जा रहा है लेकिन उसके दाम कम करने के लिये कोई कदम नहीं उठाए गए हैं.

आज अच्छा स्वास्थ्य या गुड हेल्थ एक बिकाऊ बस्तु बनकर रह गई है. जिसके पास पैसा है उसके पास गुड हेल्थ है और जिसके पास दाम चुकता करने के लिए पैसे नहीं है उसके लिये गुड हेल्थ दूर की कौड़ी है. आज देश में बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि लोगों की क्रयशक्ति कम होती जा रही है. हां, कुछ मुठ्ठीभर लोगों के पास अकूत संपदा इकठ्ठा हो गई है. इस तरह से विकास आकड़ों में तो दिखता है लेकिन वह आम जनता के दरवाजे तक नहीं पहुंच पा रहा है. अच्छे स्वास्थ्य के लिये सरकार को इस क्षेत्र में अपना हस्तक्षेप बढ़ाना होगा. सरकार को अपने बाशिंदों के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी खुद उठानी पड़ेगी इसे निजी क्षेत्र के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता. यदि छोड़ा जा रहा है तो कहना पड़ेगा कि सरकार के एजेंडे में अपने बाशिंदों का अच्छा स्वास्थ्य नहीं निजी क्षेत्र के मुनाफे को बढ़ाना है.

हमारे देश में स्वास्थ्य कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बन पाया है. जनता भी वोट देते समय जाति और धर्म के नाम पर बंट जाती है. यदि स्वास्थ्य चुनाव का मुद्दा बन पाता तो जनता को यह दिन नहीं देखने पड़ते. सबका साथ सबका विकास के नारे के साथ जिस सरकार को साल 2014 में सत्तारूढ़ किया गया था उसके राज में हेल्थ के क्षेत्र में जुमलेबाजी के अलावा कोई ठोस कार्य नहीं किया गया है उलटे ऐसी नीतियां तथा योजनाएं लाई गई हैं जिससे निजी क्षेत्र की तिजोरी ही भरेगी जनता के हाथ कुछ नहीं आने वाला है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)


Big News