आईआईएम अहमदाबाद नए भारत का दलित विरोधी चेहरा?


IIM Ahmedabad presents anti-Dalit face of new India?

 

भारत में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक असमानता पर शायद ही कोई असहमति जताए, जिसका ऐतिहासिक कारण मुख्य तौर पर शोषण पर आधारित जाति व्यवस्था है. जाति ने आजाद भारत में औद्योगिक प्रगति के चलते अपना कुछ स्वरूप बदला तो है लेकिन जाति आज भी नागरिकों की पहली पहचान हैं. जाति वर्तमान में भी भेदभाव व शोषण का एक हथियार है.

एक लम्बे विमर्श के बाद वचिंत समुदायों की समानता के लिए, हमने कुछ सकारात्मक प्रावधान (Affirmative Actions) अपने संविधान, के जरिए अपनाए हैं जिसमें आरक्षण प्रमुख हैं. लेकिन यह जाति का वर्चस्व है कि संवैधानिक व कानूनी बाध्यता होने के वावजूद आरक्षण को पूरी तरह ईमानदारी से लागू नहीं किया गया हैं. हमारे शिक्षण संस्थान भी इस जातिवादी प्रभाव से मुक्त नहीं है. इसी का एक उदाहरण है इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट-अहमदाबाद (IIM-A) की वर्ष 2020 के लिए पीएचडी प्रवेश के लिए जारी की गई अधिसूचना, जिसमें ऐतिहासिक तौर से वंचित समुदायों के लिए आरक्षण का प्रावधान तो दूर, जिक्र तक नहीं है.

हालांकि भारतीय प्रबंधन संस्थान अधिनियम, 2017 जिसके जरिए इन संस्थानों को स्वायता दी गई है और जो इन संस्थानों को सभी विषयों में पीएचडी की डिग्री प्रदान करने की शक्तियां देता है. इस अधिनियम में आरक्षण के प्रावधान को स्पष्ट किया गया है. अधिनियम में स्पष्ट किया गया है कि भारतीय प्रबंधन संस्थानों को केन्द्रीय शिक्षण संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों को पूरी तरह लागू करना होगा. इसके बावजूद आईआईएम अहमदाबाद ने बड़े ही ढिठाई के साथ यह अधिसूचना जारी की.

आईआईएम अहमदाबाद इन कोर्सों में आरक्षण न देने के लिए जो तर्क पेश कर रहा है वह बचकाना व निराधार हैं. प्रशासन का तर्क है कि पीएचडी कोर्सों के लिए सीटों की संख्या निर्धारित नहीं है और पीएचडी सुपर स्पेशलिटी की श्रेणी में आती है. यह वंचित समुदायों के छात्रों को शोध से दूर करने का एक बहाना मात्र ही है, क्योंकि भारत में अन्य भारतीय प्रबंधन संस्थानों (IIMs) में पीएचडी में आरक्षण पूरी तरह लागू किया जाता है.

आईआईएम अहमदाबाद प्रशासन की यह मानसिकता केवल पीएचडी प्रवेश तक सीमित नहीं है, लेकिन शिक्षकों की भर्ती में यह मानसिकता ज्यादा मजबूती व लगभग तमाम भारतीय प्रबंधन संस्थानों (IIMs) में काम करती हैं. सितम्बर 2017 में शिन्दे और मलघन ने एक अध्ययन प्रस्तुत किया. इस अध्ययन के अनुसार उस समय उपलब्ध आकड़ों के आधार पर, सभी आईआईएम संस्थानों में कुल 642 शिक्षकों के पदों में से केवल चार ही अनुसूचित जाति व एक अनुसूचित जनजाति से सम्बन्ध रखते थे. कामोबेश यही स्थिति केन्द्रीय विश्वविद्यालयों सहित सभी उच्च शिक्षण संस्थानों की है जहां बड़ी संख्या में आरक्षित पद खाली पड़े हैं. यह समझना मुश्किल है कि यह संस्थान सामान्य श्रेणी से शिक्षकों के पदों के लिए उम्मीदवार कैसे ढूंढ लेते हैं, जबकि आरक्षित वर्ग के पदों की भर्ती में असफल रहते हैं. कुल मिलाकर उच्च शिक्षण संस्थानों में वंचित वर्गों से शिक्षकों का प्रतिशत बहुत कम है. शिक्षकों की कुल संख्या का केवल 8.6% ही अनुसूचित जाति से और केवल 2.3% अनुसूचित जनजाति से है जो कि जनसंख्या में उनके प्रतिशत से काफी कम है.

वर्तमान बीजेपी सरकार एक कदम आगे जाकर पूरी आरक्षण नीति को बदलने का प्रयास कर रही है. विभिन्न अवसरों पर बीजेपी व आरएसएस के नेताओं ने आरक्षण नीति की समीक्षा करने की बात सार्वजनिक मचों से भी की हैं. इसी क्रम में हाल ही में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण पर नए सिरे पर चर्चा शुरू करने की अपील जारी की है. उनका यह प्रयास केवल सार्वजनिक मंचों से बोलने तक सीमित नहीं है बल्कि पिछले पांच वर्षों में बीजेपी की केन्द्र सरकार ने कुछ ठोस नीतिगत प्रयास भी किए हैं. इनमें से एक मुख्य प्रयास था विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की एक अधिसूचना के माध्यम से उच्च शिक्षण संस्थाओं में शिक्षकों की भर्ती में 200 बिन्दु प्रणाली (200 point roster) को और संस्थान की जगह विभाग को आरक्षण की इकाई के रूप में बदलने का.

इस आरक्षण नीति के तहत कुछ विश्वविद्यालयों ने शिक्षकों की भर्ती की, जिसमें देखने को मिला की रोस्टर में एससी और एसटी के लिए एक भी सीट नहीं आई, मतलब आरक्षित वर्ग में नौकरी के इच्छुक युवक आवेदन भी नहीं कर पाए. लोगों ने इसके खिलाफ अदालत का दरवाजा भी खटकाया परन्तु अदालत ने भी हस्तक्षेप नहीं किया. केन्द्र सरकार भी मजबूती के साथ इस अधिसूचना के साथ खड़ी थी व आरक्षित वर्ग पर इसके कुप्रभाव को मानने से ही इंकार कर रही थी. इसके खिलाफ शिक्षकों के आन्दोलन के दबाव के चलते केन्द्र सरकार को अदालत में समीक्षा याचिका दायर करने के लिए मजबूर होना पड़ा. हालांकि सरकार की ओर से मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा अदालत में दिए गए हल्फनामें से ही इस आरक्षण नीति के गहरे प्रतिकूल प्रभावों का पता चलता हैं. इस हलफनामें में मंत्रालय ने बताया कि अगर इस आरक्षण नीति के तहत एक वर्ष के लिए शिक्षकों की भर्ती होती है तो एससी, एसटी और ओबीसी शिक्षकों की संभावित संख्या 2663 से घटकर आधी संख्या 1241 ही रह जाएगी.

इसी तरह एक प्रयास एमफिल/पीएचडी प्रवेश के लिए यूजीसी राजपत्र अधिसूचना, 2016 के माध्यम से किया गया था जिससे शोध क्षेत्र में एससी/एसटी छात्रों का प्रवेश बहुत कम हो गया. यह सीधे-सीधे सामाजिक रूप में वंचित समुदायों के छात्रों को शोध करने से महरूम करने की कवायद थी. इस अधिसूचना में मौखिक परीक्षा को सौ प्रतिशत अंक देना व लिखित परीक्षा में सभी के लिए 50 प्रतिशत अंकों की अनिवार्यता के प्रावधान बनाए गए थे. छात्रों की छंटाई के लिखित परीक्षा में सभी के लिए 50 प्रतिशत अंकों का प्रावधान, आरक्षण की अवधारणा के खिलाफ है.

इसके अतिरिक्त इस अधिसूचना के चलते एमफिल/पीएचडी की सीटों संख्या भी कम हो गई परिणामस्वरूप विभिन्न संस्थानों में शोध में वंचित समूहों के छात्रों के प्रवेश में कमी स्पष्ट देखी जा सकती थी. इसके अतिरिक्त भी कुछ अप्रत्यक्ष लेकिन निर्णायक प्रक्रियाएं समाज में चल रही हैं जो आरक्षण की अवधारणा को कमजोर कर रही हैं. नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के मार्गदर्शन में सामाजिक आर्थिक सरंचना का पुनर्गठन कुछ इस तरह किया जा रहा है कि आरक्षण के सभी प्रावधान निरर्थक हो जाएंगे.

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निजीकरण की स्थिति में आरक्षण की प्रासंगिकता ही क्या रह जाएगी क्योंकि निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण लागू नहीं होता है. वर्तमान में 78% से अधिक कॉलेजों का स्वामित्व निजी क्षेत्र के पास है. निजी विश्वविद्यालयों की संख्या में भी तेजी से वृद्धि हुई है जो वर्ष 2013 में 153 से बढ़कर वर्ष 2017 में 262 हो गई है. निजी क्षेत्र तो बाजार की शक्तियों द्वारा नियंत्रित है व केवल ज्यादा मुनाफा कमाने के सिद्धांत से निर्देशित होता है. इनमें ज्यादातर स्वामित्व उच्च जाति के मालिकों का ही होता है. इस क्षेत्र में दलितों और आदिवासियो की नौकरी लगना बहुत मुश्किल है, विशेष रूप से उच्च पदों पर क्योंकि उच्च वर्ग के स्वामित्व वाले ये निजी संस्थान जातीय भेदभाव से ग्रसित है.

यह बीजेपी के शासन में केंद्र सरकार की नीतियों द्वारा निर्मीत वातावरण का ही यह परिणाम है. इसका यह मतलब कतई नहीं है कि पूर्ववत सरकारें आरक्षण को ईमानदारी से लागू करने के लिए बहुत गंभीर थीं, लेकिन वर्तमान शासन सामाजिक न्याय की प्रक्रिया की दिशा को उलट रहा है. ऐसे कई उदाहरण हैं मिल जाएंगे जो बीजेपी के दलित विरोधी चरित्र को उजागर करते हैं. हालांकि किसी को बीजेपी के इस असली रूप को देख कर आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि मनु की विचारधारा के अनुयायी स्वाभाविक रूप से वंचित वर्गों के खिलाफ और समाज में समानता लाने के किसी भी प्रयास के खिलाफ हैं. वर्तमान सरकार के शासनकाल में दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ रही हिंसा इस बात की ठोस प्रमाण है.

जब आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू करने की बात आई तो बीजेपी का दोहरा चरित्र पूरे देश के सामने उजागर हो गया. मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने IIM सहित सभी शिक्षण को आर्थिक आधार पर आरक्षण को चुनाव से पहले लागू करने के लिए मजबूर किया, लेकिन जब एससी/एसटी आरक्षण की बात आती है तो मंत्रालय द्वारा कोई गंभीर प्रयास नहीं किए जाते हैं. यकायक इन संस्थानों की स्वायत्तता मंत्रालय के हस्तक्षेप के लिए एक बाधा बन जाती है. दरअसल आरक्षण नीति को लागू करने के लिए एक तरह की हिचकिचाहट दिखाई देती है.

सरकारों ने भी इस एजेंडे को ईमानदारी से आगे बढ़ाने के लिए प्रयाप्त प्रयास नहीं किए हैं. राजनितिक पार्टियों के लिए आरक्षण का वास्तविक उद्देश्य केवल एक विशेष वोट बैंक को आकर्षित करना ही रहा है. लेकिन वर्तमान सरकार की आरक्षण विरोधी एक स्पष्ट समझ है. उनकी विचारधारा ने हमेशा ही आरक्षण का विरोध किया है. वर्तमान केंद्र सरकार, जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों और हिंदुत्व के एजेंडे के एक घातक संयोजन के निर्देशन में काम कर रही है. यह दोनों ही विचार वंचित समुदायों के लिए किंचित भी चिंतित नहीं है.

पहले दर्शन का उद्देश्य केवल मुनाफे को अधिकतम करना है जो आरक्षण जैसे सकारात्मक कार्यों (affirmative actions) को अपने रास्ते की बाधा मानता है, वहीं हिंदुत्व के दर्शन का लक्ष्य वर्ण व्यवस्था के आधार पर हिंदू राष्ट्र स्थापित करना चाहते हैं. दलित और आदिवासी जब इस वर्ण व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं है तो तो उनकी समानता का प्रश्न ही नहीं.

शिक्षा संस्थान विशेष रूप से उच्च शिक्षा संस्थान समाज का प्रतिबिंब हैं और समाज के लिए एक आदर्श के रूप में भी काम करते हैं. आईआईएम अहमदाबाद बेजीपी शासन में एक नए भारत का मॉडल मात्र है जहां वंचितों के लिए कोई स्थान नहीं है. यह हमारे सपनों का भारत नहीं हो सकता है, जो कुछ कुलीन लोगों की सेवा करता है, लेकिन बहुतायत जनता को गरीब और वंचित बनाकर हाशिए पर धकेलता है. हम एक समतामूलक भारत के निर्माण के मार्ग से पीछे मुड़ने का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, इसलिए भेदभाव की किसी भी नीति का पुरजोर विरोध करते हुए लोकतांत्रिक रूप से चुनी सरकार को समावेशी विकास की नीतियों का पालन करने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए और आईआईएम अहमदाबाद इसका अपवाद नहीं हो सकता.


Big News