नौकरशाही में सुधार इतना आसान नहीं


every terrorist attack should be treated equally says modi

 

नौकरशाही में सुधार के वादे को ही याद करें तो मोदी ने 2014 में आते वक्त एक घोषणा की थी ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ यानी सरकार छोटी से छोटी होगी लेकिन प्रशासन उतना ही मजबूत दुरुस्त होगा. आपको याद दिला दें यह नारा उसके बाद कभी सुनाई भी नहीं दिया. मंत्री लगभग उतनी ही संख्या में रहे जो उससे पहले कांग्रेसी और राष्ट्रीय मोर्चा या दूसरी सरकारों में रहे हैं.

उम्मीद थी कि मंत्रियों के पास जो निजी सचिव, ओएसडी जैसे सलाहकारों की जो फौज होती है, वह कम होगी लेकिन यकीन मानिए वह और ज्यादा ही बढ़ती गई. कभी-कभी यह सुनते हुए भी कि अभी तो हमारे कार्यकर्ताओं के लिए कुछ मौका, जगह आई है. इतना सब होता तब भी कोई बात नहीं, प्रश्न क्षमता का है सुधार का है जिसमें शायद ही कोई अंतर आया हो.

अभी-अभी घोषित चुनावों ने यह साबित जरूर कर दिया है, निसंदेह प्रधानमंत्री बेहद सक्षम और अपने उद्देश्य के प्रति चौकस है. कई क्षेत्रों में जनता ने उनकी उपलब्धियों को स्वीकार भी किया है और वोटों के द्वारा प्रति दान भी दिया है. आप हम असहमत हो सकते हैं लेकिन जनधन खाता, रसोई गैस, आवास, टॉयलेट् चंद कुछ योजनाओं ने जनता का दिल जीता है मगर नौकरशाही का अंदाज़ शायद ही बदला हो.

कुछ लीक से हटकर शुरुआत भी हुई जैसे संयुक्त सचिव स्तर के नौ पदों पर लैटरल एंट्री. इस कदम पर भी कम उंगलियां नहीं उठी लेकिन सरकार अडिग रही और विधि समिति रास्ते से संघ लोक सेवा आयोग द्वारा नौ संयुक्त सचिव विश्व बैंक ,ग्रामीण विकास ,आदि अनुभव क्षेत्रों के लोगों को सरकार में शामिल कर लिया गया है. इनके योगदान का आकलन तो आने वाला समय ही करेगा. वैसे लगभग 400 संयुक्त सचिव के पदों के बीच नौ सचिव तो सब्जी में हींग के बराबर ही माना जाएगा.

उसी कड़ी में सरकार केंद्रीय स्तर पर लैटरल एंट्री के जरिए ही 650 पदों में से लगभग 400 को निदेशक और उप सचिव के पद भरना चाहती है. खबरें आ रही हैं कि कार्मिक मंत्रालय को कुछ नियम व नियम प्रावधान बनाने या मौजूदा नियमों में संशोधन करने के लिए कह दिया गया है. अभी तो यही कहा जा सकता है कि आगे आगे देखते हैं होता है क्या.

यहां एक नहीं कई प्रश्न अचानक उठते हैं कि सरकार को अचानक ही ऐसा क्यों हुआ कि हमारे पास मेधावी उर्फ टैलेंटेड नौकरशाहों की कमी है. कोई आकाशवाणी हुई या या किसी विचारधारा विशेष से लदे लोगों को लाने की तैयारी है? चलो विचारधारा के प्रश्न को छोड़ भी दें और सरकार की इस बात पर यकीन करें कि टैलेंट की कमी है तो यह सीधे-सीधे गले नहीं उतरती. आखिर संघ लोक सेवा आयोग के कई कठिन दरवाजों को पार करते हुए यह नौकरशाह यहां तक आते हैं. यदि टैलेंट की कमी है तो हमें उस स्रोत की तरफ ध्यान देना होगा जहां से ये आ रहे हैं.

संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया और ईमानदारी पर कभी उंगली नहीं उठी लेकिन चुने हुए नौकरशाह और उनके कार्य व्यवहार पर सैकड़ों उंगलियां उठी हैं. उनके भ्रष्टाचार के चर्चे राजनेताओं से कम नहीं है याद कीजिए मध्य प्रदेश के आईएएस दंपत्ति जेल जा चुके हैं, इधर उत्तर प्रदेश के मेडिकल घोटाले के प्रदीप कुमार जो वर्ष व 1981 के टॉपर थे वह भी जेल की हवा खा रहे है. चारा घोटाले में सिर्फ लालू प्रसाद ही जेल में नहीं है कई प्रशासनिक अधिकारी भी हैं और वैसा ही तबले की संगत के लिए उस चौटाला जी के साथ देने के लिए तिहाड़ जेल में भी कई आला अफसर हैं. इसलिए सरकार को सोचने की जरूरत है कि लैटरल एंट्री ही एकमात्र समाधान नहीं हो सकता.

माना नौकरी की सुरक्षा पेंशन की सुविधा और उपनिवेश ई-संस्कारों ने नौकरशाही को बेहद सुस्त, नाकारा, निकम्मा बना दिया है लेकिन इनकी भर्ती तो उसी संविधान के रास्ते और सरकार की निगरानी में ही हुई है. यदि लैटरल एंट्री मैं संघ लोक सेवा आयोग या इसके अलावा कोई और रास्ता अपनाया गया और नौकरशाही इससे भी बुरी गति को प्राप्त हुई तो यह देश के लिए बहुत अमंगलकारी होगा. इसलिए सुधार की कुछ और रास्ते भी तलाशने होंगे.

पहला जो तुरंत संभव है वह है इनके प्रशिक्षण को दुरुस्त करना. सबसे पहले भाषा. 100 प्रतिशत अंग्रेजी में डूबे या डूबने को उतावले. आपको याद दिला दें वर्ष 1979 में पहली बार दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिशों के बूते सिविल सेवा परीक्षा की भर्ती में कुछ मौलिक बदलाव हुए थे. तभी पहली बार भारतीय भाषाओं में उत्तर देने की छूट मिली थी.

सही मायनों में नौकरशाही के लोकतंत्र करण का पहला कदम. लेकिन संघ लोक सेवा आयोग की 10-20 परीक्षाओं में से अकेली सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं की छूट दी हुई है शेष इंजीनियरिंग, आर्थिक सेवा ,चिकित्सा सेवा, रक्षा सेवा, वन सेवा अभी भी शत-प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम से हैं. कोठारी आयोग के लागू होने के बाद ही 80 के दशक में ऐसे सैकड़ों युवक नौकरशाही में आए जो पहली पीढ़ी के ही पढ़े हुए थे. यानी कि जिनके माता-पिता अनपढ़ थे और वे अपनी भाषाओं मलयालम उर्दू हिंदी गुजराती के माध्यम से इस उच्च नौकरशाही में शामिल हो पाए.

कोठारी आयोग के बाद सतीश चंद्र, प्रोफेसर वाईपी और निगवेकर कमिटी सभी ने भारतीय भाषाओं में परीक्षा आयोजित करने की तारीफ की है. यदि अपनी भाषाओं को छूट नहीं मिली होती तो आरक्षित वर्ग के अधिकांश नौजवान इन सेवाओं से बाहर ही रह जाते लेकिन लोकतंत्र ई करण की इतनी ऐतिहासिक शुरुआत 2018 तक आते-आते दम तोड़ चुकी है. जहां 80-90 के दशक में लगभग 15 प्रतिशत भारतीय भाषाओं से चुने जाते थे अभी हाल ही में घोषित परिणामों में उनकी संख्या मात्र तीन फीसदी रह गई है और पहले 200 में कोई भी भारतीय भाषाओं का नहीं है. इसलिए सबसे बड़े सुधार की जरूरत है अंग्रेजी से मुक्ति.

खुशी की बात यह है कि हाल ही में सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कस्तूरीरंगन समिति ने भी अंग्रेजी नौकरशाहों की कार्यशैली और मिजाज पर बहुत प्रतिकूल टिप्पणियां की हैं जैसे ये पूरे समाज को हाशिए पर रखना चाहते हैं अंग्रेजी के बल और आतंक के जरिए.

सिर्फ नौकरियों में प्रवेश करते हैं उसमें परिवर्तन के लिए कुछ नहीं करते. वक्त आ गया है कि नई सरकार कोठारी और कस्तूरीरंगन की सलाह को मानते हुए कुछ दूरगामी परिवर्तन करें.

इसी से जुड़ा हुआ प्रश्न उनकी सादगी मितव्ययिता और लोक सेवक की छवि का है. आखिर इनमें ऐसी क्रूरता कहां से आती है. आप भूले नहीं होंगे उन छवियों को कि जब एक थानेदार कांस्टेबल की कंधे पर बैठकर नदी पार करता है, विदेश मंत्रालय की एक अफसर खोबरागड़े अमेरिका में अपनी नौकरानी को प्रताड़ित करती है आदि-आदि.

ऐसा नहीं है कि सुधार की बातें पहली बार राजनीतिक सत्ता कर रही है. सुधार के लिए पुराने कांग्रेसी और राष्ट्रीय मोर्चा आदि के शासन में दो-दो बार प्रशासनिक सुधार आयोग समितियां एक्सपर्ट कमिटी बैठाए जा चुके हैं और उन सब की अनुशंसाए भी यही हैं कि इनको सक्षम और मानवीय कैसे बनाया जाए, कैसे यह जनता के हित में तुरंत निर्णय लेना सीखे. निडर निष्पक्ष होकर. जाति धर्म से ऊपर उठकर. यही सब इनको थोड़ा बहुत पढ़ाया तो गया है शिक्षण में लेकिन बदलाव दूर-दूर तक नहीं देखता. और ऐसा नहीं कि इस हताशा को पहली बार महसूस किया जा रहा है.

वर्ष 1964 में एक साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नेहरू जी ने स्वयं या माना था, “मैं नौकरशाही में सुधार नहीं ला पाया उसके औपनिवेशिक चरित्र में” याद कीजिए नेहरू जी के समय की नौकरशाही तो कहीं ज्यादा निष्पक्ष और सक्षम थी. उसके बाद तो दशक दर दशक केवल पतन गाथाएं हैं. हां बावजूद इस सबके इनके वेतन आयोग समय पर ही बैठते रहे हैं और वेतन भत्तों में इजाफा देश की गरीबी के बावजूद अच्छा खासा होता रहा है.

प्राइवेट सेक्टर से उन्होंने अच्छी पगार सुविधाएं तो सीखी, निर्णय लेने, जिम्मेदारी लेने आम नागरिक की तरह रहना और लोक सेवक की तरह कार्य करना नहीं सीखा. लेकिन कुछ इन्हें भी कुछ रियायत और संदेश का फायदा देने की जरूर है क्या इस दौर के राजनेताओं से ही यह सब नहीं सीखा बताते हैं 50 के दशक में केंद्र सरकार के नीतिगत मामलों में उप-सचिव अंडर सेक्रेट्री और असिस्टेंट तक खुलकर अपनी बात कहते थे. मंत्री मानते भी थे उसके बाद शुरुआत होती है अपने ही पार्टी के लोगों को निजी सचिव बनाने की सलाहकार बनाने की और ऐसे फैसले लेने की जिनका देश के भविष्य से कोई लेना-देना ही ना हो.

ऐसे ही दौर में अरुणा राय जैसी कुछ ही वर्षों में नौकरी से बाहर हो जाती हैं तो कुछ जबरन दंडित किए जाते हैं. यह नौकरशाहों के ही पतन का दौर नहीं है राजनेताओं के भी पतन का दौर है. सूचना का अधिकार, कुछ और लोकतांत्रिक संस्थाओं का सरकार पर लगातार पहरा, ग्लोबल दुनिया, सूचना तकनीकी जैसे अनेक कारक हैं जो हमारी नौकरशाही का चेहरा और मोहरा बदल सकते हैं. बाजार से प्रतिभाओं को लेने से डर की कोई बात नहीं, यह सुस्त पड़ी नौकरशाही के लिए चुनौती है या तो काम करो वरना रास्ता छोड़ो.

और भी नए कदमों के बारे में सुनाई पड़ रहा है. जैसे निजी सचिव को किसी भी मंत्री के पास पांच वर्ष से अधिक नहीं रहना होगा. मोदी के पहले कार्यकाल के समय में भी ऐसे आदेश आए थे लेकिन चालाक नौकरशाही ने किसी को 10 दिन का ब्रेक दिखाकर किसी को किसी और बहाने से कार्यान्वित नहीं होने दिया.

मोदी को अपने दूसरे कार्यकाल में नौकरशाही को दुरुस्त करने के मामले में अहम कदम उठाने की जरूरत है. सामाजिक परिवर्तन की तरह ही व्यवस्था या तंत्र में परिवर्तन भी इतना आसान नहीं होता.


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