झारखंड: विपक्षी गठबंधन का दबदबा, मुश्किल में बीजेपी


in jharkhand emotional appeal decimated powerful opposition leaders

 

झारखंड में पांचवें चरण के चुनाव में चार संसदीय सीटों के लिए मतदान होना है. जनता का मूड और राजनीतिक समीकरणों के विश्लेषण से चार में से तीन सीटों पर विपक्षी गठबंधन का दबदबा दिख रहा है. इस चुनाव में पक्ष-विपक्ष के चार दिग्गजों के भाग्य का फैसला होना है. हजारीबाग से केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा, कोडरमा से पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्च के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी, रांची से पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय और खूंटी से पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा मैदान में हैं. बीते चुनाव में ये चारों सीटें बीजेपी के खाते में चली गई थीं.

इस बार जो हालात बने हैं, बीजेपी भी केवल हजारीबाग सीट को ही इन चारों सीटों में सबसे आसान मानकर चल रही है. बीजेपी के लिए जैसी स्थिति आसान स्थिति हजारीबाग में है, वैसी ही आसान स्थिति कांग्रेस के लिए रांची में बनी हुई है. यादव वोटों के विभाजन और मजबूत विपक्षी गठबंधन के कारण कोडरमा में बाबूलाल मरांडी मजबूत स्थिति में हैं. खूंटी में अर्जुन मुंडा विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी कालीचरण मुंडा के चक्रव्यूह को तोड़ने की पुरजोर कोशिश में हैं. उन्हें आदिवासियों की नाराजगी का ताप महसूस हो रहा है. बीते साल आदिवासियों ने स्वशासन की मांग को लेकर बहुचर्चित पत्थलगढ़ी आंदोलन चलाया था. इस आंदोलन से आदिवासियों और सरकार तथा सत्ताधारी दल के बीच बड़ी खाई बन गई.

सच तो यह है कि झाऱखंड के लोकसभा चुनाव में विपक्षी गठबंधन ने कई सीटों पर सत्तारूढ़ बीजेपी की नाक में दम कर रखा है. पांचवें, छठे और सातवें दौर में जिन सीटों के लिए चुनाव होना है, उनके अनेक प्रत्याशी विपक्षी घेराबंदी का ताप महसूस कर रहे हैं. तभी राज्य के पहले दौर के चुनाव वाले दिन तक एक सप्ताह के भीतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का झारखँड में दो-दो बार दौरा हुआ. बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह और गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी पहले दौर के चुनाव के ऐन पहले झारखंड में सभा कर चुके हैं. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मण गिलुआ खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. सिंहभूम संसदीय क्षेत्र के प्रत्याशी हैं. उन पर पार्टी को जिताने की जबावदेही है. लेकिन अपने क्षेत्र मे घिरे हुए हैं. प्रधानमंत्री की सभा में भी दूर-दूर तक नजर नहीं आए. इन बातों से स्थिति की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है.

ऐसी स्थिति तब है जब राज्य में वामपंथी दल विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बन सके. जो दल हिस्सा बने, उनके बीच की डोर भी अनेक सीटों पर बेहद कमजोर है. चतरा संसदीय क्षेत्र में तो यह डोर शक्ल लेने से पहले ही टूट गई थी. एक तरफ जहां बीजेपी क्षेत्रीय दल आजसू के साथ गठबंधन बनाकर काफी पहले चुनाव की तैयारियों में जुट गई थी, विपक्ष गठबंधन के लिए तब तक माथापच्ची करता रहा, जब तक कि चुनाव सिर पर नहीं आ गया. सीटें तय होने के बाद कांग्रेस ने प्रत्याशी घोषित करने में काफी वक्त लगाया. ऐसा लगा मानों उसे प्रत्याशी के लाले पड़ गए हों. नतीजतन हजारीबाग और धनबाद जैसी महत्वपूर्ण सीटों पर बीजेपी प्रत्याशियों की मजबूत घेराबंदी की संभावना क्षीण दिख रही है.

विपक्षी गठबंधन की इन तमाम कमियों के बावजूद बीजेपी के लिए इस बार का चुनाव 2014 जैसा नहीं है. इसकी बड़ी वजह है कि अनेक सीटों पर गठबंधन बेहद मजबूत है और आदिवासी व मूलनिवासी बीजेपी से खासे नाराज हैं. नक्सल इलाकों में चुनाव बहिष्कार के नारों के बावजूद वोट पड़ना इस बात का परिचायक है कि नक्सलियों के इशारे में व्यवस्था के विरोध में वोट डाले गए. आगे भी यह ट्रेंड बने रहने की संभावना है. खूंटी में पत्थलगड़ी आंदोलन का लाभ कांग्रेस को मिलता दिख रहा है. कुल मिलाकर कम से कम आठ सीटों पर बीजेपी की नींद हराम है.

शहरी मतदाता बीजेपी के राष्ट्रवाद जैसे मुद्दे से प्रभावित दिख रहा है तो गैर शहरी मतदाता क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों से बाहर नहीं निकल पाया है. चतरा, पलामू और लोहरदगा में चुनाव हो चुका है. वहां के मतदाता विस्थापन, बेरोजगारी और सिंचाई सुविधाओं का अभाव जैसे मुद्दों को लेकर नाराजगी जताते दिखे थे. झारखंड के बाकी हिस्सों में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है.

इस बार के चुनाव में खास बात यह है कि बीजेपी “फिर एक बार मोदी सरकार” के नारे के साथ चुनावी दंगल में है तो विपक्षी गठबंधन मोदी सरकार की नाकामियों, विस्थापन, कॉरपोरेट घरानों को कौड़ियों के भाव जमीन दिए जाने की कोशिशों, जल जमीन और जंगल, स्थानीय नियोजन नीति आदि को मुद्दा बनाकर मैदान में है. यह ठीक है कि मीडिया में इन मुद्दों को ज्यादा अहमियत नहीं मिल पाई. लेकिन मतदाता मोदी बचाओ और मोदी हटाओ के सवाल पर बंटे हुए साफ-साफ दिख रहे हैं. यह स्थिति बीजेपी के नजरिए से बेहद असुविधाजनक है. इससे बीजेपी की धड़कनें बढ़ी हुई हैं.

हजारीबाग संसदीय क्षेत्र

हजारीबाग संसदीय क्षेत्र में बीजेपी के प्रत्याशी जयंत सिन्हा, विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी और कांग्रेस के नेता गोपाल साहू और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के प्रत्याशी और इसी सीट से दो बार सांसद रहे भुवनेश्वर मेहता के बीच मुकाबला है. लेकिन राजनैतिक समीकरण ऐसे हैं कि जयंत सिन्हा सब पर भारी दिख रहे हैं. इस बात को विपक्षी गठबंधन के नेता और सीपीआई के नेता भी स्वीकार रहे हैं.

जयंत सिन्हा सन् 2014 की मोदी लहर में जीतकर पहली बार सांसद बने थे. उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी सौरभ नारायण सिंह को 1,59,128 वोटों से पराजित कर दिया था. ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन (आजसू) के प्रत्याशी लोकनाथ महतो 10 फीसदी वोट लेकर तीसरे स्थान पर थे. जयंत सिन्हा को 26 फीसदी वोट मिले था. यह सीट उनके पिता और पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा की थी. बीजेपी ने उम्र का हवाला देकर उनका टिकट काट दिया था और उनकी जगह जयंत सिन्हा को टिकट दिया था.

जयंत सिन्हा के आरामदायक स्थिति में पहुंचने की तीन बड़ी वजहें हैं. पहला तो यह कि सीपीआई के प्रत्याशी भुवनेश्वर मेहता विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी नहीं हैं. वह अपने बलबूते चुनाव लड़ रहे हैं. दूसरा, विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी नए हैं, जिनका व्यापक विरोध है. तीसरी बात यह कि इस बार आजसू मैदान में नहीं है, बल्कि वह बीजेपी का सहयोगी है. इस वजह से बीजेपी को उम्मीद है कि बीते चुनाव में आजसू को मिले दस फीसदी कुर्मी-महतो वोट उसके खाते में जा सकते हैं.

हजारीबाग संसदीय क्षेत्र दो जिलों हजारीबाग और रामगढ़ के बरही, बरकागांव, रामगढ़, मंडू, हजारीबाग विधानसभा क्षेत्रों को मिलाकर है. 14 संसदीय क्षेत्रों वाले झारखंड में बीजेपी और आजसू के बीच गठबंधन है. रामगढ़ जिले में आजसू का व्यापक प्रभाव है और इस जिले के दो विधानसभा क्षेत्र रामगढ़ और मांडू हजारीबाग संसदीय क्षेत्र में आते हैं. उधर, कांग्रेस के गोपाल साहू भितरघात के शिकार हैं. वे रांची के जाने- माने व्यवसायी और राज्य सभा के सांसद धीरज साहू के भाई हैं. इस बार सौरभ नारायण सिंह ने दावेदारी नहीं की तो कांग्रेस के शिवलाल महतो, प्रदीप प्रसाद और अंबा प्रसाद टिकट की दौड़ में शामिल हो गए थे. लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और पूर्व आईपीएस अधिकारी डॉ. अजय कुमार से निकटता गोपाल साहू के लिए वरदान साबित हुई. गोपाल साहू के विरोध की वजह यह है कि उन्हें थोपा हुआ प्रत्याशी माना जा रहा है.

कोडरमा संसदीय क्षेत्र

कोडरमा संसदीय क्षेत्र में त्रिकोणीय मुकाबला है. विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी बाबूलाल मरांडी को टक्कर देने के लिए बीजेपी की प्रत्याशी अन्नपूर्णा देवी और सीपीआई एमएल के प्रत्याशी राजकुमार यादव मैदान में हैं. लेकिन मरांडी आरामदायक स्थिति में दिख रहे हैं. अन्नपूर्णा देवी बीजेपी से नामांकन दाखिल करने से कुछ दिनों पहले तक राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की प्रदेश अध्यक्ष थीं. उन्होंने चुनाव से ऐन पहले जिस तरह आरजेडी को झटका दिया, उससे लालू यादव से सहानुभूति रखने वाले लोग बेहद गुस्से में हैं. वे हर हाल में अन्नपूर्णा देवी को हारते हुए देखना चाहते हैं.

शायद यही वजह है कि झारखंड में कोडरमा चतरा के बाद दूसरा संसदीय क्षेत्र हैं, जहां आरजेडी ने विपक्षी गठबंधन को ठेंगा दिखा दिया है. इस दल के नेताओं ने अन्नपूर्णा देवी और बाबूलाल मरांडी के बदले सीपीआई एमएल के प्रत्याशी राजकुमार यादव को समर्थन देने का फैसला कर लिया है. इससे राजकुमार यादव को राहत है. अन्नपूर्णा देवी और राजकुमार यादव, यादव जाति के हैं. यादव वोटों का बंटना अन्नपूर्णा देवी के लिए बड़ा झटका है.

दूसरे जातीय समीकरणों के कारण भी मरांडी मजबूत स्थिति में हैं. कोडरमा से बीजेपी के सांसद रवींद्र राय का टिकट काटकर अन्नपूर्णा देवी को प्रत्याशी बनाए जाने की वजह से भूमिहार मतदाताओं की नाराजगी सतह पर है. रवींद्र राय भूमिहार जाति के हैं और झारखंड में अपनी जाति के इकलौते सांसद थे. बीजेपी ने राय का टिकट काटकर दूसरे किसी भूमिहार नेता को टिकट नहीं दिया. सच तो यह है कि इस बात को लेकर भूमिहारों की नाराजगी कोडरमा तक ही सीमित नहीं है. रवींद्र राय की भाव-भंगिमाएं अक्सर उनकी नाराजगी बयां करती रहती हैं. राय के सगे भाई बीजेपी छोड़ चुके हैं. कोडरमा में भूमिहारों की नाराजगी का सीधा लाभ बाबूलाल मरांडी को मिलता हुआ दिख रहा है.

रांची संसदीय क्षेत्र

झारखंड राज्य की राजधानी रांची संसदीय सीट से विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय का सीधा मुकाबला बीजेपी के संजय सेठ के साथ है. झारखंड के चार संसदीय सीटों में से रांची भी एक है, जहां से बीजेपी ने प्रत्याशी बदल दिया है. बीजेपी ने अपने पांच बार के सांसद और कुर्मियों के कद्दावर नेता रामटहल चौधरी का टिकट काटकर खादी बोर्ड के चेयरमैन संजय सेठ को प्रत्याशी बनाया है. बागी रामटहल चौधरी मुकाबले को तिकोना बनाने की हर संभव कोशिश में हैं.

सेठ पहली बार चुनावी मैदान में हैं. हालांकि वे रांची महानगर में अपनी सांगठनिक क्षमता का परिचय दे चुके हैं. तभी बीजेपी ने उन्हे पहले प्रवक्ता और बाद में खादी बोर्ड का दायित्व सौंपा था. लेकिन लोकसभा चुनाव के लिहाज से उन्हें बाकी प्रत्याशियों की तुलना में कम अनुभव वाला माना जा रहा है. इसलिए मुख्यमंत्री को कहना पड़ा है कि मतदाता प्रत्याशी को न देखें, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को देखकर वोट दें. जाहिर है कि बीजेपी संजय सेठ की जीत के लिए मोदी मैजिक के भरोसे है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रांची दौरे से सेठ के चुनाव अभियान को रफ्तार मिली है. लेकिन जमीनी नेता रामटहल चौधरी के निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतर जाने के कारण बीजेपी को जीत के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है. उधर, रांची से ही तीन बार सांसद रह चुके कांग्रेस के सुबोधकांत सहाय के समर्थक संजय सेठ की उम्मीदवारी को अपने लिए वरदान जैसा मान रहे हैं.

राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि चौधरी जितना अधिक वोट काटेंगे, कांग्रेस को उतनी ही बढ़त मिलती जाएगी. उधर सुबोधकांत सहाय बीते चुनाव में पराजय के बाद भी क्षेत्र में सक्रिय रहे. जन मुद्दों को लेकर हुए आंदोलनों को बल देते रहे हैं. रांची के जातीय समीकरणों में सुबोधकांत सहाय का पलड़ा भारी दिख रहा है. उनका अपना भी मजबूत जनाधार है. बीजेपी को मात देने के लिए मुस्लिम और ईसाई वोटरों का ध्रुवीकरण भी उनके पक्ष में हो चुका है. वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक मधुकर के मुताबिक अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुस्लिम समाज बीजेपी का विकल्प तलाश रहा है. धर्म परिवर्तन कानून के कारण ईसाई समाज कांग्रेस की तरफ झुका हुआ है. सहाय के मैदान में होने से कायस्थों का एकमुश्त वोट बीजेपी में जाना मुश्किल दिख रहा है.

खूंटी संसदीय क्षेत्र

खूंटी से अर्जुन मुंडा पहली बार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं. बीजेपी ने झारखंड के दिग्गज आदिवासी नेता और लोकसभा के डिप्टी स्पीकर रहे कड़िया मुंडा का टिकट काटकर उन्हें मैदान में उतारा है. उनका सीधा मुकाबला विपक्षी महागठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी कालीचरण मुंडा के साथ है. इस बार का चुनाव बीजेपी के लिए अहम है तो अर्जुन मुंडा के राजनीतिक अस्तित्व से भी जुड़ा हुआ है. 1995 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) की टिकट पर खरसावां विधानसभा क्षेत्र से विधायक बनने के बाद पहला मौका है कि वह न तो विधायक हैं और न ही सांसद. 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में खरसांवा विधानसभा सीट से हार गए थे. इसके बाद राज्य का राजनीतिक समीकरण ऐसा बना कि वे लगभग हाशिए पर चले गए थे. जल जंगल और जमीन के सवाल पर राज्य के लगभग 27 फीसदी आदिवासियों की नाराजगी को देखते हुए अर्जुन मुंडा फिर से प्रासंगिक हो गए हैं.

राजनीतिक शतरंज के खेल में माहिर अर्जुन मुंडा निवर्तमान सांसद कडिया मुंडा का आशीर्वाद लेकर चुनावी समर में कूद पड़े हैं. वह इसी संसदीय क्षेत्र के खरसावां से विधायक जरूर रहे हैं. इसलिए इस क्षेत्र की जटिलताओं से वाकिफ हैं. वह कडिय़ा मुंडा की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश में अपनी जीत के लिए पूरी ताकत झोंक चुके हैं. उधर कालीचरण मुंडा ने भी उन्हें चक्रव्यूह में घेरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है. वैसे भी स्वशासन के लिए आदिवासियों के पत्थलगड़ी आंदोलन से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण यह सीट बीजेपी के लिए पहले जैसी आसान नहीं रही है. स्थिति की गंभीरता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें पार्टी लाइन से अलग जाकर आदिवासियों के स्वशासन के पक्ष में बोलना पड़ा है. इस बात को मीडिया ने प्रमुखता से स्थान दिया है.

कालीचरण मुंडा स्थानीय प्रत्याशी हैं. वह तमाड़ विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक रह चुके हैं. राजनीति उन्हें विरासत में मिली हुई है. उनके पिता टी मुचिराय मुंडा अविभाजित बिहार के कद्दावर आदिवासी नेता थे और तमाड़ विधानसभा क्षेत्र से पांच बार विधायक रहे. अब वह अपने पिता की राजनीतिक विरासत को आगे ले जाने का प्रयास कर रहे हैं. वैसे उनके सगे बड़े भाई नीलकंठ सिंह मुंडा भी राजनीति में हैं. लेकिन वह शुरू से ही परिवार की विचारधारा से अलग बीजेपी के साथ हैं. मौजूदा समय में खूंटी के विधायक और रघुवर दास की सरकार के मंत्री हैं. स्थानीय राजनीति में उनका सांसद कड़िया मुंडा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है. लेकिन अर्जुन मुंडा ने रणनीतिक रूप में उन्हें ही अपने चुनाव की कमान सौंप रखी है. इस तरह कहा जा सकता है कि दो सगे भाई इस चुनाव में आमने-सामने हैं.


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