झारखंड: भावनात्मक मुद्दे का कमाल, जनाधार वाले नेता पैदल हो गए


in jharkhand emotional appeal decimated powerful opposition leaders

 

चुनाव में भावनात्मक मुद्दे का करिश्मा देखिए कि बीजेपी में वैसे प्रत्याशी भारी बहुमत से जीत गए, जिन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था. दूसरी तरफ जिन्हें जनाधार वाला नेता माना जाता था, वे बीजेपी से बगावत करके जमानत तक नहीं बचा पाए. इसके साथ ही एक बार फिर साबित हुआ कि झारखंड में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा न चला होता तो बीजेपी के लिए चुनावी नैया पार लगाना आसान नहीं होता.

झारखंड के चुनावी नतीजों से साबित हुआ कि बीजेपी के कद्दावर नेताओं में भी पार्टी से अलग होकर अपनी जमानत बचाने या अपनी जाति के वोटों का इच्छित प्रत्याशियों के लिए ट्रांसफर कराने का माद्दा नहीं हैं. तभी दक्षिणी छोटानागपुर में कुर्मियों के कद्दावर नेता और पांच बार सांसद रह चुके रामटहल चौधरी बीजेपी से बगावत करके निर्दलीय चुनावी दंगल में उतरे तो उन्हें मात्र 29,597 वोटों से संतोष करना पड़ा, जबकि पहली बार चुनावी दंगल में उतारे गए बीजेपी के प्रत्याशी संजय सेठ को 7,06,828 वोट मिले. खास बात यह कि चौधरी को 2014 के चुनाव में 4,48,729 वोट मिले थे और वे विजयी हुए थे. वे इसके पहले तीन बार चुनाव हारे भी थे तो महज एक फीसदी वोटों के अंतर से.

बीजेपी ने झारखंड के अपने 12 सांसदों में से मात्र चार सांसदों के टिकट काट दिए थे. वे हैं – पूर्व डिप्टी स्पीकर व खूंटी के पूर्व सांसद कड़िया मुंडा, रांची के पूर्व सांसद रामटहल चौधरी, बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष व कोडरमा के पूर्व सांसद रवींद्र कुमार राय और गिरिडीह के पूर्व सांसद रवींद्र कुमार पांडेय. टिकट कटने पर गुस्सा तो बीजेपी के कद्दावर नेता और आठ बार सांसद रह चुके कड़िया मुंडा को भी आया. लेकिन पचहत्तर वसंत देख चुके मुंडा का अनुभव काम आया. वे मन की बातें मन में ही रखकर अपने स्थान पर चुनावी दंगल में उतारे गए राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को जीताने में जुट गए. यह दीगर है कि आदिवासियों की नाराजगी ऐसी भारी पड़ी कि मुंडा 1445 वोटों के मामूली अंतर से जीत पाए.

लेकिन रामटहल चौधरी कड़िया मुंडा जैसे नहीं निकले. वे टिकट काटे जाने से इतने खफा हुए कि न केवल पार्टी छोड़ी, बल्कि निर्दलीय चुनाव मैदान में उतर कर बीजेपी को हराने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्हें इस बात का गुमान था कि कुर्मी बहुल रांची संसदीय क्षेत्र में उन्हें दरकिनार करके बीजेपी किसी को भी जीत नहीं दिला पाएगी. विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के प्रत्याशी व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय को भी भरोसा था कि रामटहल चौधरी भले न जीतेंगे लेकिन बीजेपी के इतने वोट तो काट ही लेंगे कि उनकी जीत आसान हो जाएगी. उधर, दुस्साहसी कदमों के लिए विख्यात बीजेपी ने रामटहल चौधरी की बगावत की परवाह किए बिना संजय सेठ के रूप में एक ऐसे प्रत्याशी को मैदान में उतार दिया, जिन्होंने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा था. वह झारखंड खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के अध्यक्ष थे. नतीजा हुआ कि रामटहल चौधरी 29,597 वोटों तक सिमट गए. उनकी जाति के मतदाताओं ने उनके सम्मान की चिंता छोड़कर मोदी के हाथ मजबूत करना ज्यादा जरूरी समझा.

सन 2014 में कोडरमा संसदीय क्षेत्र से चुनाव जीते बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष रवींद्र कुमार राय की टिकट कटी तो वे भी अपनी नाराजगी नहीं छिपा पाए थे. लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की प्रदेश अध्यक्ष अन्नपूर्णा देवी को बीजेपी में शामिल कराकर टिकट दे दिया जाना उन्हें नागवार गुजरी था. खुद तो पार्टी नहीं छोड़ी लेकिन उनके भाई बगावत करके पार्टी से बाहर निकल गए. कोडरमा के बदले राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखकर माना गया था कि विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की जीत आसान होगी. इसकी दो वजहें मानी गईं. पहली तो यह कि रवींद्र कुमार राय की टिकट कटने से नाराज भूमिहार जाति के मतदाता बाबूलाल मरांडी को वोट देंगे. दूसरी बात कि अन्नपूर्णा देवी और सीपीआई एमएल के राजकुमार यादव के मैदान में होने से यादव वोटों का विभाजन हो जाएगा. इसलिए कि दोनों प्रत्याशी एक ही जाति के हैं लेकिन चुनाव में अन्नपूर्णा देवी को अपनी जाति के वोटरों को अपने पक्ष में रखने में सफलता मिल गई. वहीं दूसरी ओर भूमिहारों को रवींद्र कुमार राय की नाराजगी की परवाह नहीं रही. वे पहले की तरह ही बीजेपी के पक्ष में बने रह गए.

गिरडीह संसदीय क्षेत्र में भी कुछ ऐसा ही हुआ. पांच बार के सांसद रहे रवींद्र कुमार पांडेय का टिकट काटे जाने से ब्राह्मण मतदाताओं पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा. रवींद्र पांडेय बार-बार कहते रहे कि उनका टिकट काटा जाना विशेष तौर से राज्य के ब्राह्मणों को नहीं भाएगा. पांडेय ने शुरू में तो रामटहल चौधरी के नक्श-ए-कदम पर चलने की कोशिश में कई दलों के दरवाजे खटखटाए. बात नहीं बनी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से वाराणसी में मुलाकात हो गई तो उन्होंने राजग से आजसू पार्टी के प्रत्याशी चंद्रप्रकाश चौधरी को समर्थन दे दिया. लेकिन सभी जानते हैं कि वे पूरे चुनाव में कटे-कटे से रहे. ब्राह्मणों पर उनकी नाराजगी का असर न होने का नतीजा हुआ कि चौधरी 2,48,547 वोटों के अंतर से जीत गए.

चौदह संसदीय सीटों वाले झारखंड के हजारीबाग संसदीय क्षेत्र को छोड़ दें तो पहले से उसके कब्जे वाले प्राय: सभी क्षेत्रों में प्रत्याशी को लेकर असंतोष था. चतरा संसदीय क्षेत्र में स्थिति ऐसी थी कि खुद मुख्यमंत्री रघुवर दास को प्रत्याशी की तरफ से माफी मांगनी पड़ी थी. संथालपरगना के दुमका संसदीय क्षेत्र से झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन को हराने के लिए बीजेपी की पूरी ताकत लगी हुई थी. रघुवर दास कई कई दिनों तक वहां कैंप किए रहे. लेकिन यह बात भी किसी से छिपी नहीं थी कि उनकी सरकार की मंत्री और दुमका की विधायक लुईस मरांडी की ताकत अपने दल के प्रत्याशी सुनील सोरेन को जीताने के लिए नहीं लगी हुई थी. इसलिए कि वे स्वयं टिकट चाहती थीं. यह आम धारणा रही है कि दुमका में सुनील सोरेन की तुलना में लुईस मरांडी ज्यादा प्रभावशाली हैं. सुनील सोरन 2005 में विधानसभा का चुनाव जीते थे. उसके बाद कोई चुनाव नहीं जीत पाए थे. इसलिए माना जा रहा था कि सुनील सोरेन के वोटों में सेंधमारी होगी तो फायदा शिबू सोरेन को होगा. लेकिन उनकी नाराजगी मोदी मैजिक में बेअसर हो गई.

नक्सल प्रभावित चतरा झारखंड का इकलौती संसदीय सीट है, जहां विपक्षी गठबंधन टूट चुका था. वहां विपक्षी गठबंधन के दो घटक दलों कांग्रेस और आरजेडी के प्रत्याशी मैदान में थे. यह एकमात्र समीकरण बीजेपी के प्रत्याशी सुनील सिंह के पक्ष में था. लेकिन उनकी पार्टी में बगावत ऐसी थी कि खुद मुख्यमंत्री को चार-चार बार चुनाव प्रचार के लिए चतरा जाना पड़ा था और कार्यकर्ताओं से माफी मांगनी पड़ी थी. दरअसल, चुनाव जीतने के बाद से लगातार क्षेत्र से बाहर रहना और स्थानीय समस्याओं को लेकर बेरुखी सुनील सिंह के लिए महंगी साबित हो रही थी. दूसरी तरफ बीजेपी के बड़े नेताओं में शुमार राजेंद्र साहू की बगावत को विपक्ष के प्रत्याशी अपने पक्ष में मानकर चल रहे थे. लेकिन वहां भी कद्दावर नेताओं की नाराजगी मोदी मैजिक के सामने धरी की धरी रह गई.

सबसे रोचक समीकरण जमशेदपुर और खूंटी में बना था. जमशेदपुर मुख्यमंत्री का गृह नगर है और पहले यहीं से पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा सांसद रह चुके थे. जाहिर है कि उनकी इच्छा जमशेदपुर से ही चुनाव लड़ने की थी. लेकिन मुख्यमंत्री के साथ छत्तीस के रिश्ते की वजह से उन्हें अपेक्षाकृत कठिन खूंटी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ना पड़ा था. कहते हैं कि इस बात से अर्जुन मुंडा के समर्थक इतने नाराज हुए कि मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा से जुड़े जमशेदपुर संसदीय क्षेत्र में पूरे चुनाव के दौरान दूर-दूर तक नहीं दिखे. दूसरी ओर राजनीतिक हलकों में चर्चा आम थी कि अर्जुन मुंडा के विरोधी नेता उन्हें संकट में डालने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं. नतीजा यह हुआ कि अर्जुन मुंडा हारते हारते जीते थे. लेकिन जमशेदपुर में बीजेपी के प्रत्याशी विद्युतवरण महतो 3,02,090 वोटों के अंतर से जीत गए. यानी दोनों ही जगह पार्टी विरोधियों की ज्यादा नहीं चल पाई.

हद तो यह है कि जल, जंगल और जमीन से लेकर रोजगार तक के मुद्दे भी इस चुनाव में हवा हो गए. झारखंड के मतदाताओं में 27 फीसदी अनुसूचित जनजाति (आदिवासी), 12.6 फीसदी अनुसूचित जाति, 14 फीसदी मुस्लिम और 4.5 फीसदी ईसाई हैं. ये मतदाता अलग-अलग कारणों से बीजेपी से बेहद नाराज थे. उनकी नाराजगी मीडिया के जरिए प्रकाश में आती रहती थी. लेकिन आदिवासियों को सरना और गैर-सरना आदिवासियों में बांट दिए जाने की बीजेपी की कोशिशें कामयाब हो गईं. बीजेपी सरना आदिवासियों को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रही कि चुनाव के बाद उनकी अलग धर्म कोड की मांग पर फिर से विचार किया जाएगा. कुल मिलाकर स्थिति ऐसी बनाई गई कि मतदाताओं ने मुद्दों के साथ ही प्रत्याशियों को भी नजरंदाज किया और मोदी के नाम पर बीजेपी को वोट दिया.

झारखंड की दो सीटें सिंहभूम और राजमहल क्रमश: कांग्रेस और जेएमएम के खाते में गई तो इसमें प्रत्याशियों का अपना प्रभाव ज्यादा काम आया. उदाहरण के तौर पर, सिंहभूम में पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की विधायक पत्नी गीता कोड़ा ने पूरा चुनाव अपनी सेना की बदौलत लड़ा. संसदीय क्षेत्र की छह विधानसभा क्षेत्रों में से पांच क्षेत्रों पर जेएमएम का कब्जा है. लेकिन कोड़ा ने जेएमएम के लोगों को साथ भर रखा. महत्वपूर्ण जिम्मेवारी नहीं दी. लिहाजा जेएमएम वाले औपचारिकतावश चुनाव अभियान से जुड़े रहे. इसलिए कि गठबंधन का मामला था. गीता कोड़ा की अपनी सेना बीजेपी पर इतनी भारी पड़ी कि प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष लक्षमण गिलुआ पार्टी को जिताने की बात तो दूर रही, खुद ही बुरी तरह हार गए.


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