बिहार: अपराध नियंत्रण पर सरकारी दावों में दम नहीं
बिहार के कैमूर जिले के रामगढ़ में उग्र भीड़ ने शुक्रवार को थाने में घुसकर तोड़फोड़ की और पुलिस जीप सहित कई वाहनों आग लगा दी. लोग एक युवती से कथित दुष्कर्म और हत्या से आक्रोशित थे. इस घटना में मोहनिया डीएसपी रघुनाथ सिंह सहित सात पुलिसकर्मी घायल हुए. उसी दिन शाम को अखबार प्रभात खबर के औराई प्रखंड के रिपोर्टर फ़िरोज़ अख्तर को गोली मारकर उनके साथ लूट-पाट की गई.
बिहार के अलग-अलग हिस्सों में जब ये वारदातें हो रही थीं उसी दिन मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने बिहार में कानून व्यवस्था की स्थिति पर चिंता जताई. वे लोकसभा चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में दो दिवसीय पटना दौरे पर थे.
गया के पटवा टोली की एक लड़की का शव 6 जनवरी को क्षत-विक्षत हालत में मिला था. हत्या के इस मामले में भी पुलिस की जांच पर सवाल उठे हैं और यह हत्याकांड अभी लगातार चर्चा में है.
गंभीर अपराध बढ़े
ये घटनाएं और बयान बिहार में बिगड़ रही कानून-व्यवस्था का उदहारण हैं जिनकी पुष्टि खुद बिहार पुलिस के आंकड़े करते हैं. इन आंकड़ों के मुताबिक साल 2017 के मुकाबले बीते साल सूबे में हर तरह के गंभीर अपराध बढ़े हैं. बिहार पुलिस ने साल 2018 के लिए हालाँकि अब तक अक्टूबर तक के ही आंकड़े जारी किए हैं लेकिन 2018 के दस महीनों के आंकड़े ही 2017 के बारह महीनों के आंकड़ों पर भारी पड़ रहे हैं.
क्या बिहार में शराबबंदी गरीब विरोधी है?
साल 2017 में औसतन हर महीने 234 हत्याएं हुईं जबकि 2018 में यह औसत बढ़ कर 252 हो गया. साल 2017 में रेप के कुल 1198 मामले सामने आए थे जबकि 2018 के दस महीनों में ही रेप की 1304 घटनाएं हुईं. इसी तरह डकैती को छोड़ चोरी, अपहरण, फिरौती के लिए अपहरण, डकैती जैसे वारदातों को भी 2017 के मुकाबले 2018 में ज्यादा संख्या में अंजाम दिया गया.
इसके अलावा सूबे में अपराध के अनोखे स्वरुप भी सामने आ रहे हैं. शराबबंदी को रोकने वाले पुलिस अफसरों के घर से बड़ी मात्रा में शराब बरामद हो रही है. मंगलवार 15 जनवरी की रात लग्जरी कार से आए अपराधियों ने पटना में महज दो घंटे में चार एटीएम काट कर 35 लाख चंपत कर दिए. बीते 11 महीने में पटना जिले में 15 एटीएम काटने की घटनाएं हुई हैं जिनमें करीब एक करोड़ 15 लाख रुपये की लूट हुई. जुलाई, 2018 में तो बाढ़ इलाके के एनटीपीसी थाना क्षेत्र में अपराधी 12 लाख नकद के साथ एटीएम ही उखड कर के ले गए थे. शराबबंदी के बाद अपराधी बैंक के कैश वैन, सब्जी के ट्रक से लेकर एम्बुलेंस तक का अनोखा इस्तेमाल शराब तस्करी के लिए कर रहे हैं.
भीड़ का सांप्रदायिक चेहरा
सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल जुलाई में मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाज़त नहीं दी जा सकती. सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को सख्त आदेश दिया कि वो संविधान के मुताबिक काम करें. लेकिन 2018 में बिहार में मॉब लिंचिंग की घटनाएं भी बीते कुछ सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा सामने आईं.
हिन्दुस्तान टाइम्स के मुकाबले बीते साल सितम्बर तक 19 लोगों की मौत भीड़ की हिंसा में हुई जो की बीते छह वर्षों में सबसे ज्यादा है. इस साल अब तक एक महीना भी नहीं बीता है और चार लोगों की मौत मॉब लिंचिंग में हो चुकी है.
मॉब लिंचिंग जैसे अपराध का एक और चिंताजनक पहलू बीते साल बिहार में सामने आया था. सूबे में अब तक मॉब लिंचिंग के मामलों में भीड़ का कोई सांप्रदायिक चेहरा नहीं होता था. मगर बीते साल ऐसा तब हुआ जब दशहरे के बाद 20 अक्तूबर को बिहार के सीतामढ़ी शहर में भीड़ ने 80 साल के एक बुजुर्ग ज़ैनुल अंसारी को पीट-पीट कर मार डाला.
दरअसल सीतामढ़ी शहर में दुर्गा प्रतिमा विसर्जन का जुलूस एक ऐसे इलाक़े से निकाला गया जो प्रशासन की नज़रों में संवेदनशील था. नतीज़ा ये हुआ कि विसर्जन जुलूस पर पथराव की ख़बर आई और फिर प्रतिमा विसर्जन के लिए दूसरे रास्ते से ले जाई गई. लेकिन इसकी खबर जैसे ही शहर के अन्य हिस्सों में फैली, बड़ी संख्या में लोगों ने संवेदनशील इलाके के एक मुहल्ले पर हमला कर दिया. दोनों तरफ से पथराव हुआ. इन सबके बीच विसर्जन के बाद लौटती भीड़ ने कथित तौर पर 80 साल के एक बुजुर्ग ज़ैनुल अंसारी को पीट-पीट कर मार डाला. यही नहीं सबूत मिटाने के लिए लाश को जलाने की कोशिश की गई.
गिरफ्तारी की बजाय सरेंडर
हाल के वर्षों में बिहार पुलिस की आलोचना इस बात को लेकर रह-रह कर होती रही है कि सुर्खियों में रहने वाले ऐसे मामलों में वह आरोपी को गिरफ्तार नहीं कर पाती जिसमें अभियुक्त किसी दल का नेता हो. ऐसे मामलों में अभियुक्त अदालत में सरेंडर करते रहे हैं.
बीते साल भी ऐसा बिहार की पूर्व मंत्री मंजू वर्मा और उनके पति चंद्रशेखर वर्मा के मामले में देखा गया जिन्होंने आर्म्स एक्ट में करीब तीन महीने तक फरार रहने के बाद अदालत में सरेंडर किया. उनका गिरफ्तार नहीं होना लगातार चर्चा में बना हुआ था क्योंकि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने बिहार सरकार और पुलिस को दो-दो बार फटकार लगाई थी.
क्या नीतीश के नैतिकता के मापदंड बदल गए हैं?
दरअसल 2015 के विधानसभा चुनावों के बाद नीतीश कुमार ने महागठबंधन और एनडीए दोनों ही गठबंधनों की सरकार की अगुवाई की और दिलचस्प यह कि दोनों ही सरकारों के दौरान सत्तारूढ़ गठबंधन के नेताओं पर जब-जब संगीन आरोप लगे तब उन्होंने ओरोपित होने के कई दिनों, हफ्तों या महीनों के बाद आत्मसमर्पण किया.
यह स्थिति वर्तमान सरकार को कठघरे में खड़ी करती है. ऐसे में बिहार सरकार पर यह आरोप लगता रहा है कि वह रसूखदार आरोपियों को अदालत से राहत लेने का पूरा मौका देती है और इसमें नाकाम रहने पर आरोपी सरेंडर करते हैं.
‘अपराध नियंत्रण से बाहर’
ठीक एक महीने पहले गुंजन खेमका हत्याकांड बिहार में लगातार चर्चा में बना हुआ था. बिहार के बड़े व्यवसायी गुंजन की 20 दिसम्बर को हाजीपुर में दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. घटना के कुछ देर बाद बिहार में विरोधी दल के नेता तेजस्वी यादव ने ट्वीट कर बिहार सरकार को निशाने पर लिया. अपने ट्वीट में उन्होंने यह लिखा था कि नीतीश जी आपके शराबबंदी और बालूबंदी के हैंगओवर ने बिहार को बर्बाद कर दिया है.
दरअसल तेजस्वी अपने ट्वीट में ये इशारा कर रहे थे कि शराबबंदी के बाद बिहार पुलिस का ध्यान अपराध नियंत्रण से ज्यादा शराब जब्ती पर है और इस कारण बिहार में अपराधी नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं. विपक्ष का यह भी आरोप है कि शराबबंदी के बाद बिहार पुलिस का ध्यान अपराध नियंत्रण से ज्यादा शराब जब्ती पर है और इस कारण बिहार में अपराधी नियंत्रण से बाहर और गरीब परेशान हो रहे हैं.
नीतीश सरकार बेहतर कानून व्यवस्था का दावा करते हुए इसे अपना यूएसपी बताती रहती है. अपराध के हर बड़े मामले के बाद बिहार सरकार और सत्तारूढ़ दल अपना यह बयान दोहराती है कि बिहार में कानून का राज है और यहां न दोषी को बचाया जाता है और न निर्दोष को फंसाया जाता है. लेकिन बिहार में हो रहे अपराध और इसके सरकारी आंकड़े नीतीश सरकार के सुशासन और कानून के राज के दावे पर गंभीर सवाल खड़े कर रहे हैं.
(लेखक बिहार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं.)