चुनावी मौसम में फेक न्यूज का बाजार


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फेक न्यूज आज के दौर में तेजी से पॉपुलर हो रहे डिजिटल माध्यमों में सबसे बड़ी समस्या बन गई है. मौजूदा चुनावी मौसम में फेक न्यूज किसी भी नेता की छवि को खराब करने के लिए काफी है. ऐसे में आंकड़ें बताते हैं कि बीते समय में भारतीय राजनीति में डिजिटल माध्यमों के जरिए फेक न्यूज को प्रसारित करने वालों और इस तरह के कॉन्टेंट को ग्रहण करने वालों की संख्या बढ़ी है.

ऐसा ही एक वाकया है जब साल 2013 में लोभसभा चुनाव से करीब एक साल पहले कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी के बारे में एक फेक न्यूज चलाई गई थी. जिसका उनकी छवि पर काफी नकारात्मक असर हो सकता था, लेकिन इससे पहले ही ये साबित हो गया कि ये खबर फेक थी.

दरअसल, अमेरिकी वेबसाइट हफिंगटन पोस्ट ने साल 2013 में विश्व के सबसे अमीर नेताओं की सूची जारी की थी. इसमें सोनिया गांधी का नाम भी शामिल था. इसके बाद इस रिपोर्ट के आधार पर भारतीय मीडिया में तमाम खबरें चलाई गईं.

हालांकि साल 2014 में सोनिया गांधी ने अपनी कुल संपत्ति महज 9 करोड़ रुपये घोषित की. ध्यान रखने वाली बात ये थी कि क्वीन एलिजाबेथ की कुल संपत्ति उनसे कई गुना ज्यादा थी. बाद में हफिंगटन पोस्ट ने माना कि सोनिया गांधी की संपत्ति के संबंध में उसकी रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ें गलत थे. लेकिन इन गलत आंकड़ों को लोकसभा चुनाव के दौरान तत्कालीन विपक्षी पार्टी बीजेपी के कुछ नेताओं ने भी बढ़-चढ़कर शेयर किया.

इसके अलावा सोनिया गांधी की फोटोशॉप तस्वीरों के जरीए भी उनकी छवि को नुकसान पहुंचाने की कोशिशें की जाती रही हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शैक्षणिक योगयताओं पर भी बीते समय में सवाल उठे हैं. उनके कार्यकाल के दौरान ही उनके पुराने साक्षात्कार का एक हिस्सा सोशल मीडिया में काफी वायरल हुआ था. जिसके जरिए यह दावा किया गया उन्होंने दसवीं के बाद शिक्षा ग्रहण नहीं की. लेकिन यह वीडियो उनके साक्षात्कार का केवल एक हिस्सा भर था और बाद में पूरा वीडियो सामने आने के बाद ये वीडियो गलत साबित हुआ.

बीते दिनों प्रधानमंत्री मोदी को लेकर ही एक ओर वाकया सामने आया था. इस बार फेक न्यूज थी कि यूनेस्को ने नरेंद्र मोदी को विश्व के सबसे बेहतरीन प्रधानमंत्री की उपाधि दी है.

पर बाद में तथ्यों की जांच के बाद पता चला कि यूनेस्को ऐसा कोई पुरस्कार नहीं देता है.

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जानकार कहते हैं कि, ये फेक न्यूज जान पहचान वाले सोशल मीडिया ग्रुप्स में शेयर की जाती हैं. जिसके बाद उस न्यूज के समर्थन में दूसरे कॉन्टेंट भी शेयर किए जाते हैं. देखा गया है कि यूजर्स वीडियो कॉन्टेंट को ज्यादा प्रसारित करते हैं, क्योंकि देखने से तथ्यों पर जल्दी यकीन होता है.

फेक न्यूज के बारे में चौंकाने वाली बात यह है कि ये बड़े और प्रमुख संस्थानों का नाम लेकर प्रसारित की जाती हैं.

ऐसे ही कुछ वाकये बीबीसी के नाम का इस्तेमाल करते हुए भी प्रकाशित किए गए हैं. फिर चाहे बात हो कांग्रेस को भ्रष्ट पार्टी घोषित करने की या बीजेपी और कांग्रेस के आगमी चुनाव जीतने की. बीबीसी इस खबरों का समय-समय पर यह कहते हुए खंडन करना रहा है कि वह भारत में चुनाव सर्वेक्षण नहीं करवाता है.

हाल ही में नकली उंगली का इस्तेमाल मतदान में करने की खबरें भी सोशल मीडिया पर काफी शेयर की गईं. लेकिन तथ्यों की जांच के बाद ये तमाम खबरें झूठी साबित हुईं.

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फेक न्यूज के बढ़ते बाजार के बाद अब तमाम ऐसी संस्थाएं है जो तथ्यों की जांच के बाद ये बताती हैं कि ये घटना सही है या गलत. जानकारों का मानना है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म एक ऐसा माध्यम हैं, जहां सोशल मीडिया नेटवर्क प्रदाता ही फेक न्यूज के फैलते जाल को रोक सकते हैं.


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