पांच साल में पांच हजार करोड़ खा गया गुमनाम सा ये बैक्टीरिया


india spend billions on brucellosis bacteria disease

 

गरीबी से जूझ रही भारत की अधिकांश आबादी के पास पहले ही दुख-संताप की कमी नहीं. न ही देश को, जो अर्थव्यवस्था के लाइलाज रोगों से उबर नहीं पा रहा है. ऐसे में एक अनजान सी बीमारी ब्रुसेल्लोसिस खामोशी से महामारी का रूप ले चुकी है. बीमारी जानवरों से इंसानों में दाखिल हो चुकी है, इसका किसी को आभास भी नहीं है. पिछले पांच साल में पनप रही इस बीमारी को नियंत्रित करने के लिए पांच हजार करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन नियंत्रण की जगह ये कैंसर की तरह फैलती चली गई. नियंत्रण कार्यक्रम में लगे 27 फीसद से ज्यादा पशु चिकित्सक ही इसकी चपेट में आ गए.

हालत यहां तक आ पहुंची है कि नियंत्रण के लिए जिस वैक्सीन को इंडियन वेटनरी रिचर्स इंस्टीट्यूट (आईवीआरआई) से पास होने पर पूरे देश में प्रयोग किया गया, वह वैक्सीन आईवीआरआई के ही पशुओं को रोग से नहीं बचा सकी. बचाना तो दूर, संस्थान की डेयरी में ही रोग कई गुना फैल चुका है. जबकि देश की अर्थव्यवस्था को हर साल इस बीमारी की वजह से करोड़ों की चोट पहुंच रही है.

ब्रुसेल्लोसिस बीमारी को लेकर सरकार को नहीं पता, ऐसा नहीं है. केंद्र सरकार ने बाकायदा पायलट योजना बनाकर पांच साल का राष्ट्रीय ब्रुसेल्लोसिस कंट्रोल प्रोग्राम शुरू किया, जो अब समाप्त हो चुका है. वर्ष 2013 में शुरू हुए इस कार्यक्रम के लिए केंद्र सरकार ने हर साल 200 करोड़ और प्रदेश सरकारों ने 800 करोड़ रुपये खर्च किए हैं, यानी सालाना एक हजार करोड़ रुपये. उस समय चिह्नित पशुओं को खरीदकर अलग कर लेने का प्रस्ताव भी आया लेकिन उस पर सहमति नहीं बनी. इसकी जगह नियंत्रण कार्यक्रम चला, जिसके तहत जांच, टीकाकरण, जागरुकता प्रचार, शोध आदि शामिल रहे.

पहले पायलट परियोजना के तहत 250 गांवों को कवर करना तय हुआ. टीकाकरण एवं कान टैगिंग द्वारा पहचान, विस्तार और जागरूकता निर्माण, जनशक्ति विकास, गांवों में दूध रिंग परीक्षण, आरबीपीटी एवं एलीसा द्वारा सीरो निगरानी, संक्रमित परिसरों को कीटाणु रहित बनाना, संक्रमित सामग्री का निपटान, संक्रमित पशु का प्रबंधन शामिल किया गया. प्रयोग में आसानी के लिए फिलिंडर्स टेक्नॉलॉजी एसोसिएट (एफटीए) कार्ड का प्रयोग करके संदिग्ध संकलित नमूनों का एरिया के हिसाब से परीक्षण, आसानी के लिए नई नैदानिक पद्धति जैसे लेटरल फ्लो ऐसे (एलएफए) का भी परीक्षण करने की बात कही गई. जूनोटिक रोग (जानवरों से होने वाले रोग) होने के कारण मानव पर बहुत प्रभाव डालता है इसलिए नियंत्रण हेतु समृद्ध दृष्टिकोण विकसित करने के लिए मानव चिकित्सक, पशु चिकित्सक, किसानों आदि के बीच संपर्क स्थापित करने की भी योजना थी.

अंतिम समय में हकीकत ने चौंकाया

नियंत्रण कार्यक्रम के नतीजे के तौर पर फिलहाल यही सामने है कि जांच का दायरा सीमित रहा, जागरुकता प्रचार भी नहीं दिखाई दिया और टीकाकरण की ये हालत रही कि वैक्सीन देने वाले वेटनरी डॉक्टरों को सेफ्टी उपकरण भी नहीं मिले. सबसे बड़ी मिसाल तो खुद आईवीआरआई ही है. यहां के डेयरी फार्म में लगभग 1000 पशु हैं जिनमें पहले जहां लगभग पांच प्रतिशत जानवर रोगी थे और अब लगभग 30 प्रतिशत हो चुके हैं. जबकि यहां केयर करने वाले कर्मचारी हैं, निगरानी करने वाले वैज्ञानिक हैं और टीकाकरण से लेकर इलाज का बेहतरीन बंदोबस्त है. जब नियंत्रण कार्यक्रम समापन की ओर रुख कर चुका था, तभी छह सितंबर 2018 को आईवीआरआई में ‘सतत पशु खाद्य पद्धति’ विषय पर हुई राष्ट्रीय कार्यशाला में राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड से आए ग्रुप हेड डॉक्टर एसके राना ने शोध के आंकड़े सामने रखकर चौंका दिया. उन्होंने बताया कि 27.5 फीसद पशु चिकित्सक बीमारी की चपेट में आ चुके हैं.

आईवीआरआई के ही डेयरी फार्म में तीस फीसद पशु, जिनमें अधिकांश गाय ही हैं ब्रुसेल्लोसिस से रोगग्रस्त हैं. कुछ समय बाद, बीमारी पर नियंत्रण की जगह फैलने, वैक्सीन पास करने वाले संस्थान आईवीआरआई के ही फॉर्म में रोगी पशुओं की संख्या कई गुना होने के सवाल पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक डॉक्टर त्रिलोचन महापात्रा से बात की गई तो उन्होंने वैक्सीनेशन में लापरवाही को जिम्मेदार ठहरा दिया, जबकि फॉर्म में रोग बढ़ने के सवाल पर जांच कराने की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया. खैर, सरकारी कोशिशें जो भी हों, आम लोगों को तो इस बीमारी को जान ही लेना चाहिए.

क्या है ब्रुसेल्लोसिस बीमारी, पहचानें कैसे?

यह ऐसा संक्रमण है जो जानवरों की कुछ प्रजातियों से इंसानों के शरीर में फैलता है. संक्रमित गाय, बकरी और दूसरे जानवरों के अपॉश्च्युरीकृत डेयरी उत्पादों के सेवन और ब्रुसेल्ला प्रभावित क्षेत्रों में जाने से खतरा अधिक रहता है. मीट प्रोसेसिंग इकाई या बूचडख़ाने में काम करने वाले, शिकारियों और जानवरों में ब्रूसेल्ला का टीकाकरण करने वाले वेटनरी डॉक्टरों में भी यह जीवाणु संक्रमण फैला सकता है. इसके लक्षण फ्लू की तरह दिखाई देते हैं, लेकिन यह फ्लू नहीं होता. फ्लू की तरह लक्षण दिखने के कारण शुरुआत में इसकी पहचान करना थोड़ा मुश्किल होता है.

यह संक्रमण पुरुषों में अधिक होता है. डेयरी फार्म में काम करने वालों में इसका जोखिम अधिक रहता है. खासतौर पर उन जगहों पर, जहां झुंड में जानवर रहते हैं. थकान, सिरदर्द, वजन कम होना आदि इसके आम लक्षण हैं. बुखार होना, जो कि दोपहर के समय तेजी से चढ़ता है. कमर में दर्द होना, शरीर में ऐंठन और दर्द, भूख में कमी और वजन का कम होना, हमेशा सिरदर्द बना रहना, रात में सोते वक्त अधिक पसीना आना, कमजोरी का एहसास भी इस बीमारी के लक्षण हैं. आमतौर पर बैक्टीरिया के संपर्क में आने के 5 से 30 दिनों के बाद इसके लक्षण दिखाई देने लगते हैं. लक्षणों की तीव्रता और उनसे होने वाली समस्याएं उस ब्रूसेल्ला के प्रकार पर निर्भर करती हैं, जिससे व्यक्ति संक्रमित हुआ है. ब्रूसेल्ला अबोर्टस से हल्के और मध्यम लक्षण दिखते हैं. ब्रूसेल्ला कैनीस के लक्षण पीडि़त में आते-जाते रहते हैं. कैनीस के लक्षणों में उल्टी और दस्त भी होते हैं. ब्रूसेल्ला सुइस विभिन्न अंगों के हिस्से संक्रमित कर सकता है, जिसे एब्सेसेस कहा जाता है. ब्रूसेल्ला मेलिटेंसिस से तीव्र लक्षणों के साथ शारीरिक विकार सामने आते हैं.

इंसानों के लिए नहीं ही कोई वैक्सीन, न पुख्ता इलाज

द इंडियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च के लेख ‘ब्रुसेल्लोसिस इन इंडिया: अ डिसेप्टिव इन्फेक्सश डिजीज’ में कहा गया है कि ब्रुसेल्लोसिस भारत में एक खास लेकिन नजरंदाज बीमारी है. डेयरी उत्पादों की बढ़ती मांग से बीमारी के खतरे के साथ मानव आबादी में इस संक्रमण के प्रसार और तेजी से फैलने की चिंता बढ़ गई है. शोध पेपरों को प्रकाशित करने वाली वेबसाइट ‘रिसर्च गेट’ में प्रकाशित लेख ‘इकोनॉमिक लॉसेस ड्यू टू ब्रूसेल्लोसिस इन इंडियन लाइवस्टॉक पॉपुलेशन’ में कहा गया है कि ब्रुसेल्लोसिस भारत में एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा है. इसके चलते हो रहे आर्थिक नुकसान की रोकथाम और नियंत्रण रणनीति बनना जरूरी है. भारत में आयोजित महामारी सर्वेक्षणों से प्रसार डेटा लेकर ब्रुसेल्लोसिस के कारण आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाया गया है. विश्लेषण से पता चला कि पशुधन में ब्रुसेल्लोसिस 3.4 अरब अमेरिकी डॉलर के औसत नुकसान के लिए जिम्मेदार है. ये नुकसान इंसानों में बीमारी के आर्थिक और सामाजिक परिणामों के अलावा है.

इससे भी गंभीर बात ‘एपेडिमायोलॉजिकल मॉडलिंग ऑफ बोवायन ब्रुसेल्लोसिस इन इंडिया’ लेख बता रहा है कि मनुष्यों के लिए इस बीमारी का कोई टीका ही नहीं है और न ही कोई क्लीनिकल उपचार है. जबकि कई बार ये जानलेवा रोग हो जाता है. लिवर आदि को निष्क्रिय कर देता है. आईवीआरआई के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉक्टर भोजराज सिंह का कहना है कि इस बीमारी पर इंसानों के लिए रूस में वैक्सीन बनाई गई है, लेकिन अभी इसकी विश्वसनीयता का सवाल है. आमतौर पर इस बीमारी को डॉक्टर जांचते ही नहीं, न कोई उपचार होता है. एंटीबायोटिक दवा टेट्रासाइक्लीन और स्टेप्टोमाइसिन को छह सात सप्ताह खाने से रोग से आराम मिल जाता है लेकिन ये स्थाई इलाज नहीं है. इन दवाओं के साइड इफेक्ट भी हैं.

क्या नपुंसकता और बांझपन का रोग भी बढ़ा रहा है ये बैक्टीरिया?

ब्रुसेल्लोसिस बीमारी की जानकारी लेने पर पता चला कि आईवीआरआई में ही एक वैज्ञानिक दंपति इससे संबंधित शोध के दौरान ऐसे संक्रमित हुए कि संतान सुख तक नहीं मिल सका. कुछ कारण और भी हो सकते हैं, लेकिन ये तथ्य है कि ब्रुसेल्ला बैक्टीरिया बांझ और नपुंसक बनाने में सक्षम है. आईवीआरआई के वैज्ञानिक बताते हैं कि बैक्टीरिया महिलाओं की फेलोवियन ट्यूब को बंद कर देता है जिससे फर्टिलाइजेशन नहीं होता. पुरुष से महिला में भी ये पहुंच सकता है.

इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 29.9 करोड़ पशु दुधारू पशु हैं. शोध जिस तरह का दावा कर रहे हैं, उससे इसकी आशंका बढ़ जाती है कि बड़ी तादाद इस रोग की चपेट में आए जानवरों की हो सकती है. यहां ये भी जानना जरूरी है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1.90 करोड़ लोग नपुंसक दंपति हैं और 18 फीसद दंपति शादी की उम्र में ही नपुंसक हो जाते हैं. पिछले एक दशक में महिलाओं की तुलना में पुरुषों में नपुंसकता का आंकड़ा बढ़ गया है. वहीं सर्वे कंपनी क्विक रिसर्च का डाटा बता रहा है कि तीन करोड़ दंपति संतान पैदा करने योग्य नहीं हैं. इस नपुंसकता या बांझपन में ब्रुसेल्लोसिस की भूमिका को लेकर अभी कोई शोध सामने नहीं आया है, लेकिन वैज्ञानिक इसको एक बड़ी वजह के तौर पर देखना शुरू कर चुके हैं.

सरकार क्यों नहीं है गंभीर

अजीब बात ये है कि डेयरी की ब्रुसेल्लोसिस पीड़ित गायों को हर साल आईवीआरआई नीलाम करके इंसानों के बीच पहुंचा देता है. संस्थान के कम्युनिकेशन सेंटर से पूछा गया कि नीलाम की गई गायों का बाद में कोई फीडबैक लिया जाता है तो ‘नहीं’ में जवाब मिला. संस्थान निदेशक डॉक्टर आरके सिंह का कहना है कि नियम के आधार पर नीलामी होती है. हालांकि ये सवाल साफ नहीं हुआ कि किस नियम के आधार पर शोध में इस्तेमाल किए गए पशुओं की नीलामी होती है. जबकि शोध में इस्तेमाल की गई गायों को सामान्य गौशाला में भेजना भी गाइडलाइन के अनुसार गलत है.

आईवीआरआई में महामारी विभाग के अध्यक्ष डॉक्टर भोजराज सिंह का कहना है कि आईवीआरआई ने पिछले पांच सालों में 22 ऐसी गाय पशुपालकों को बेच दीं, जिनका एबॉर्शन हुआ था या समय से पहले ही बच्चा गिरा चुकी थीं. संस्थान ने 14 वो गायें जो बार-बार गर्मी में आती थीं और चार वो जिन्हें क्रोनिक बीमारी थी, उन्हें भी पशुपालकों को बेच दिया. जबकि संस्थान के डेयरी फॉर्म में एबॉर्शन का मुख्य कारण ब्रूसेल्लोसिस ही है. पिछले पांच वर्ष में 13 बार से भी ज्यादा बार संस्थान की डेयरी में ब्रुसेल्ला ही एबॉर्शन और बच्चा गिराने का कारण रहा है.

संस्थान में यह रोग उस वैक्सीन को दशकों से लगाने के बावजूद है जिसे लगाने की सिफारिश भारत सरकार ने राष्ट्रीय ब्रुसेल्लोसिस कंट्रोल प्रोग्राम के तहत की है. उन्होंने बताया कि संस्थान की डेयरी में गर्भपात का आंकड़ा 5 प्रतिशत के आसपास रहता है लेकिन 2014 के बाद इसमें खासा इजाफा हो गया, वो भी बीमारी से लड़ने में सक्षम मानी जाने वाली थारपारकर गायों में. इसमें समय से पहले जन्म लेकर मर जाने वाले लगभग पांच प्रतिशत बछड़ा-बछिया शामिल नहीं हैं.

आरटीआई से इस मामले की जानकारी होने पर डॉक्टर भोजराज सिंह पिछले दिनों केंद्रीय कृषि मंत्रालय से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक को पत्र भेज चुके हैं. कृषि मंत्रालय को तो यहां तक सुझाव दे चुके हैं कि आईवीआरआई का नाम बदलकर रोग प्रसार संस्थान रख दिया जाना चाहिए.


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