हिमाचल प्रदेश: ‘जनमंच’ कार्यक्रम से राजनीति की बू आती है


initiative of janmanch in himachal pradesh is political

 

हिमाचल प्रदेश सरकार के ‘जनमंच’ कार्यक्रम में ‘सेवा’ से ज़्यादा राजनीति की बू आती है या यूं कहे कि ये राजनीतिक मकसद से ही शुरू किया गया लगता है. ये सुनने में थोड़ा अजीब लगता है परंतु ये प्रशासन के लोकतांत्रिक ढांचे को अवरुद्ध करता है. हाल ही में हुई ‘जनमंच बैठक’ में ये उभर कर सामने आया है कि पूरे प्रदेश भर में 2825 से भी ज़्यादा शिकायतें और मांग इस पहल के शुरू होने के बाद सामने आई है.

प्रदेश के कई कैबिनेट मंत्री इन बैठकोंं में शामिल हुए और लोगों से रूबरू हुए. इन बैठकों में बेहताशा खर्च किया गया. इन बैठकों पर लाखों रुपये खर्च किए गए. इन बैठकों का सामाजिक विश्लेषण किया जाना चाहिए ताकि ये तथ्य सामने आ सके कि आखिर किस खर्च पर लोगों की शिकायतों और मांगों को सिर्फ सुना गया.

कार्यक्रम के साथ कुछ ढांचागत समस्याएं –

1. सारी कार्यप्रणाली राजनीति से ओतप्रोत रही जहां बीजेपी और उसके अनुषांगिक संगठनों ने प्रशासन के साथ ताल मेल किया और नीचे बीजेपी के छुटभैया नेताओं ने इसके लिए भीड़ इकट्ठी करने का कार्य किया. वहीं कैबिनेट मंत्री की उपस्थिति ने इन सब कवायदों को वैधता प्रदान की. एक जिला में एक मंत्री ने ऐसी ही बैठक में एक अधिकारी को जनमंच में शामिल नहीं होने के लिए भरी सभा मे लताड़ लगाई और अधिकारी के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही के आदेश दिए.

2. इन कार्यकर्मों के दौरान उठी मांगों में ये ये भी सामने आया कि पिछले कई सालों में जनता की मांगों की एक लंबी फेरहिस्त राज्य में बन चुकी है जो पूरी नहीं की गई हैं. हिमाचल सरकार और यहां तक कि दूसरे महत्वपूर्ण राजनीतिक दलों द्वारा 15वें वित्तायोग को सौंपे गए ज्ञापनों में मांग और पूर्ति के बीच के अंतर को बखूबी रखा गया है.

हिमाचल के राज्य बनने के बाद शुरुआत के सालों में प्रदेश के अंदर बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास हुए जो अब निवेश की कमी से दम तोड़ता जा रहा है. प्रदेश में सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, बिजली और सड़क संबंधी सेवाओं की बड़ी मांग है. प्रदेश का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है. यह अब 50,000 करोड़ से भी ऊपर जा चुका है. इससे साफ तौर पर दिखता है कि सरकार इन सब सेवाओं को मुहैया कराने में नाकामयाब है. वित्त प्रशासन के शासकीय घाटे को कम करने का मॉडल मांग के घाटे को लगातार बढ़ रहा है यानी मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर लगातार बढ़ रहा है. इन बैठकों में वित्तीय मामलों की शिकायतों या मांगों का बमुश्किल की निराकरण हो पाया है. ‘जनमंच’ उसके लिए लगाया भी नहीं गया है.

3. जनमंच के पूरे कार्य को मंत्री-केंद्रित बना दिया गया है और मंत्री के हाथों में ही दे दिया गया है. शायद बीजेपी इसी शासकीय व्यवस्था को स्थापित करना भी चाह रही है जहां नीचे के कमजोर शासन के ऊपर सीधे शक्तिशाली केंद्र स्थापित किए जा रहे हैं. इन जनमंचों में ग्रामीण और शहरी दोनों तरह के स्थानीय निकायों की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है. जबकि लोगों के प्रति जवाबदेही सीधे तौर पर स्थानीय निकायों के चुने हुए प्रतिनिधियों की है. स्थानीय निकायों को नजरअंदाज करते हुए एक नया मॉडल स्थापित किया जा रहा है. जो पूरी शासन व्यवस्था को ध्वस्त करेगा.

4. 73वें और 74वें संविधानिक संशोधनो के तहत जिला योजना समितियों मज़बूत हुई है। डी पी सी में जिला पंचायत व नगर निकायों को शामिल कर इसे जिला में लेकर जाने से इनके सशक्तिकरण की बजाए इन्हें पंगु बना दिया गया है। जिला का जिलाधिकारी (उपायुक्त) इसके सचिव होते है और जिला पंचायत के चैयरमेन इसके अध्यक्ष होते है। हालांकि हिमाचल में इसके अध्यक्ष मंत्री होते है। अब इस नए जनमंच में स्थानीय निकायों में जो बाकी कुछ शेष बचा था उसे भी दरकिनार कर दिया गया है.

सरकार को एक बार फिर से इस मॉडल के बारे में सोचना चाहिए. चूंकि यहां सार्वजनिक संसाधनों का उपयोग किया जा रहा है इसलिए इसे सिर्फ एक राजनीतिक मंच के तौर पर प्रयोग न करे. बजाए इसके वर्तमान में स्थापित स्थानीय निकायों को सशक्त किया जाना चाहिए और ये सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे तेज और गुणवत्तायुक्त सेवा दे पाने में सक्षम हो.


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