बात तो तब हो जब ‘किन्नर’ गाली न रहे!
कुछ समय पहले बीजेपी की विधायक साधना सिंह ने मायावती को ‘किन्नरों से भी बदतर’ कहा था. इस घोर अपमानजनक टिप्पणी पर राजनीतिक तबके में कोई विरोधी प्रतिक्रिया नहीं आई. सिर्फ अखिलेश यादव ने इसका विरोध करते हुए इसे ‘महिलाओं को अपमान’ कहा था. जबकि असल में यह टिप्पणी किन्नरों का अपमान करती है!
इस टिप्पणी पर किन्नर समाज की तरफ से भी किसी की कोई विरोधी प्रतिक्रिया न आना बताता है, कि हमारे समाज में किन्नर या ट्रांसजेंडर अभी तक खुद को जरा भी सम्मानित महसूस नहीं करते. बल्कि किन्नरों के बारे में समाज की धारणा यह है कि उनका मान-अपमान होने जैसा कुछ है ही नहीं! और विडम्बना यह है कि स्वयं किन्नर भी अपने बारे में यही सोचते हैं कि जब-तब अपमानित होना उनकी नियति है, इसलिए उनके लिए ऐसी टिप्पणी कोई बड़ी बात नहीं है.
अप्रैल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘नालसा जजमेंट’ के तहत ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ट्रांसजेंडरों को तीसरे लिंग के तौर पर मान्यता दी थी. संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत,बतौर व्यक्ति उनके मानवाधिकारों को पहली बार सुरक्षित किया गया था. ऑपरेशन द्वारा अपना लिंग बदलने वाले व्यक्तियों को भी इस अनुच्छेद में शामिल किया गया है. आम स्त्री-पुरुषों की तरह नागरिक अधिकार मिलने के बाद, समाज में आज भी किन्नरों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं है. 2011 की जनगणना के अनुसार आज देश में ट्रांसजेंडरों की जनसंख्या 4.88 लाख है.
देश में किन्नरों को लेकर समाज की मानसिकता में तो कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है, हां लेकिन अलग-अलग राज्यों की सरकारों और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों के बाद किन्नरों की सुध लेने का माहौल जरूर बना है. इसी कड़ी में केन्द्र सरकार ने पिछले साल दिसंबर में ‘ट्रांसजेंडर सुरक्षा और अधिकार विधेयक 2016’ लोकसभा में पास किया है. हालांकि इस विधेयक को किन्नर समुदाय के अधिकारों की रक्षा के नाम पर पास किया गया है, लेकिन असल में यह कई मामलों में उनके अधिकारों और अस्मिता पर चोट कर रहा है. यही कारण है कि देश भर में किन्नर समुदाय के लोग इसका कड़ा विरोध कर रहे हैं.
‘ट्रांसजेंडर सुरक्षा और अधिकार विधेयक 2016’ के विरोध की मुख्य वजहें –
1. ट्रांसजेंडर सुरक्षा और अधिकार विधेयक 2016, से ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे बड़ी दिक्कत इस बात से है कि यह उनको शिक्षा और रोज़गार में किसी प्रकार का विशेष आरक्षण तो नहीं देता. लेकिन उनके भीख मांगने पर रोक लगाते हुए उसे अपराध की श्रेणी में डाल देता है, जिसके लिए जेल का भी प्रावधान है. जाहिर तौर पर किन्नरों की आर्थिक आत्मनिर्भरता का विकल्प दिए बिना उनके कमाने के परम्परागत तरीकों को अपराध की श्रेणी में डालना उनके मानवाधिकारों का घोर हनन है. अशोका यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर और ट्रांसमैन बिट्टू कार्तिक कहते हैं, ‘इस विधेयक में हमें शिक्षा या रोजगार में स्पष्ट आरक्षण दिए बिना ही हमसे हमारा हक छीना जा है, जो कि हमारे मूलभूत अधिकारों का हनन है.’
2- लोकसभा में पारित हो चुके इस विधेयक से जुड़ी दूसरी दिक्कत है ट्रांसजेंडर समुदाय के निजी अधिकारों का खत्म किया जाना. इस विधेयक के अनुसार किन्नरों को अपने लिंग की घोषणा संबंधी एक सर्टिफिकेट लेना पड़ेगा. ये सर्टिफिकेट डीएम जारी करेगा. एक स्क्रीनिंग कमेटी डीएम को हर व्यक्ति के लिए रिकमेंडेशन जारी करेगी. स्क्रीनिंग कमेटी में एक मेडिकल ऑफिसर, सायक्लॉजिस्ट, सरकारी अफसर और एक ट्रांसजेंडर शामिल होंगे.
विधेयक के इस प्रावधान का कड़ा विरोध करते हुए किन्नर शहनवाज़ कहते हैं, ‘स्क्रीनिंग कमेटी कौन होती है यह निर्णय लेनी वाली कि मेरा लिंग क्या है. यह मेरी व्यक्तिगत पसंद का मामला है कि मैं अपने आप को किस जेंडर के तौर पर पहचाने जाना चाहूंगी. अपनी शारीरिक पहचान के लिए किसी अन्य व्यक्ति से सर्टिफिकेट लेना मेरे लिए बहुत अपमानजनक है.’
3.नए विधेयक से जुड़ी तीसरी दिक्कत किन्नरों के साथ बलात्कार करने वाले की सजा को लेकर है. अगर कोई व्यक्ति किसी महिला से दुष्कर्म करता है तो इसके लिए वह सात साल की सजा का दोषी होता है. लेकिन किसी ट्रांस व्यक्ति से यौन दुष्कर्म करने पर, दोषी को इस जुर्म के लिए केवल दो साल की सजा का प्रावधान है. एक समान अपराध के लिए असमान सजा ही इस तरफ साफ इशारा कर रही है, कि सरकार तीसरे लिंग के व्यक्तियों की तकलीफ को बहुत कम करके आंक रही है. ये सोच ही अपनेआप में अमानवीय है.
किन्नरों के इस विधेयक में क्या जरूरी प्रावधान होने चाहिए –
1. लिंग परिवर्तन के लिए राज्य सरकार द्वारा आर्थिक मदद दी जानी चाहिए. ट्रांसजेंडर की लिंग परिवर्तन कराने वाली सर्जरी में आने वाला खर्च भी एक बड़ी समस्या है. ज्यातादर किन्नर निम्न आर्थिक स्थिति से होने के कारण लिंग परिवर्तन का खर्च नहीं उठा पाते हैं. इस समय पूरे देश में केवल केरल, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु की सरकार ही इस विषय पर कुछ कार्य करते हुए नजर आती है. इन राज्यों में कोई ट्रांसजेंडर अगर सर्जरी कराता है तो उसे इसके लिए वहां कि राज्य सरकार दो लाख का आर्थिक मदद करती है.
2. शिक्षा में आरक्षण के साथ छात्रवृत्ति बढ़ानी चाहिए, ताकि इस समुदाय के लोगों को स्कूलों में जाने को प्रेरित किया जा सके. न सिर्फ सरकारी बल्कि निजी स्कूलों को भी उन्हें आरक्षण और छात्रवृत्ति देने की बाध्यता होनी चाहिए.
3. नालसा जजमेंट में ट्रांसजेंडर समुदाय को ओबीसी आरक्षण देने की बात कही गई है. लेकिन असल में ट्रांसजेंडर समुदाय को केवल ओबीसी कैटेगरी में ही नहीं बल्कि हर जाति, वर्ग में कुछ न्यूनतम आरक्षण दिया जाना चाहिए. कुछ राज्य सरकारों ने इस दिशा में पहल की है. जैसे मध्य प्रदेश सरकार ने किन्नरों को सरकारी नौकरी में तीन फीसदी आरक्षण देने की बात कही है. यह तीन फीसदी आरक्षण हॉरिजेंटल होगा. यानी किन्नर यदि अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़े वर्ग का होगा तो उसी वर्ग में आरक्षण मिलेगा और यदि वह सामान्य जाति का है तो उसे सामान्य वर्ग में आरक्षण दिया जाएगा. ऐसी व्यवस्था विधेयक के माध्यम से सभी राज्यों के लिए अनिवार्य कर दी जानी चाहिए.
4. शादी करने और किसी के साथ जोड़ा बनाने के लिए भी ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों को कानूनी पहचान दी जानी चाहिए. हालांकि यह करना हमारे जैसे देश में मुश्किल है जहां आज भी सिर्फ दो लिंगों को ही अहमियत दी जाती है. लेकिन कम से कम कानूनी रूप से तो इसकी पहल की ही जा सकती है.
5. ‘किन्नर’ शब्द का ‘गाली’ की तरह प्रयोग करने वालों को सजा का प्रावधान होना चाहिए. ऐसा करने से समाज में यह संदेश जाएगा कि उनके लिंग को गाली की तरह प्रयोग करना गलत है. यह कदम उनके सामाजिक सम्मान और अस्मिता को ठोस आधार देने में अहम भूमिका निभा सकता है.
पिछले साल राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय का पहला राष्ट्रीय सर्वेक्षण करवाया था. इसमें सामने आया था कि इस समुदाय से आने वाले 92 फीसदी लोगों का आर्थिक बहिष्कार किया जाता है.
यह एक शर्मनाक स्थिति है जहां खुद को ‘आधुनिक’ कहने, मानने वाले लोग समाज के एक खास तबके के साथ न सिर्फ अमानवीय व्यवहार करते हैं बल्कि बाकायदा ढांचागत रूप से उनका सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार भी करते हैं. आजीविका के मौलिक अधिकार से वंचित रहने के कारण ही उन्हें मजबूर होकर भीख मांगने और सेक्स वर्क जैसे काम करने पड़ते हैं.
हालांकि यह विधेयक 27 संशोधनों के बाद पारित किया गया है, लेकिन अभी भी इसमें भारी खामियां है. न तो यह ट्रांसजेडरों के शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक अधिकारों के लिए कुछ भी ठोस कदम उठाता है, न ही उनकी अस्मिता के प्रति जरा भी संवेदनशील दिखाई पड़ रहा है.
किन्नरों को सामाजिक सम्मान मिलना तो अभी बहुत दूर की कौड़ी है, अभी तो उनके बुनियादी अधिकारों की ही लड़ाई ठीक से नहीं लड़ी जा रही.