किसी भी राजनीतिक दल ने घोषणापत्र में बच्चों की सुध नहीं ली!


issues of children are not part of any party's manifesto

 

बच्चे देश और समाज का भविष्य होते हैं. इन्हीं के नन्हें कंधों पर वर्तमान के सपनों को रूपाकार देने का जिम्मा होता है. देश में 0-6 आयुवर्ग के बच्चों की जनसंख्या 16 करोड़ से ज्यादा है. वहीं यदि देश की 0-17 आयुवर्ग की जनसंख्या की बात करें तो ये करीब 45 करोड़ है. यानी देश की कुल आबादी का लगभग 37 प्रतिशत. लेकिन 2019 लोकसभा चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के घोषणापत्र में बच्चों और किशोरों के लिए कुछ नहीं है. ये कैसे नीति नियंता हैं जिनकी नीतियों में बच्चों की सुरक्षा और अधिकार की बात ही नहीं हैं.

सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के लोकसभा चुनाव 2019 के घोषणा पत्र जिसे ‘संकल्पित भारत, सशक्त भारत’ नाम दिया गया है, में बच्चों के लिए कोई योजना नहीं है. वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के घोषणापत्र ‘हम निभाएंगे’ में भी बच्चों की बात नहीं है. न ही किसी क्षेत्रीय पार्टी या गठबंधन के घोषणापत्र में बच्चों के हक की बात है.

बच्चे आवाज उठाते हैं, हमें पार्क चाहिए

पिछले सप्ताह हम वर्तमान सरकार का रिपोर्टकार्ड जानने दिल्ली से सटे गाजियाबाद संसदीय सीट के अंतर्गत आने वाले लोनी इलाके में गए. इस सीट से वी के सिंह सांसद हैं. लोनी संसद भवन से महज 21 किलोमीटर की दूरी पर है और लोनी में विकास का आलम ये है कि पानी की निकासी की व्यवस्था नहीं होने के चलते पानी मकानों के आस-पास जमा रहता है. जिससे लगातार बदबू और बीमारी वाले बैक्टीरिया और मच्छर पनपते हैं. इससे वहां के बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ता है. हाथ में कैमरा देखकर लोनी के सैकड़ों बच्चों ने हमें घेर लिया. बच्चों ने बताया, “लोनी में हमारे खेलने के लिए एक भी पार्क नहीं है. हमें खेलने के लिए एक पार्क चाहिए.” लोनी में निजी बिल्डरों ने ऐसा डेवलपमेंट किया है कि बच्चों के लिए कहीं खेलने तक की जगह नहीं छोड़ी है.

गाजियाबाद, दिल्ली और नोएडा के बीच में पड़ता है खोड़ा, जहां निम्न मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं. गरीब बच्चों को ट्यूशन देने वाली सुनीता बताती हैं, “भगत सिंह के शहादत दिवस पर हमने खोड़ा में एक सांस्कृतिक चौपाल की योजना बनाई थी, बच्चों की चौपाल लगाने के लिए हमें पूरे खोड़ा में कहीं कोई पार्क नहीं मिला. दरअसल पूरे खोड़ा में एक भी पार्क नहीं है. थक-हारकर हम एक कोचिंग सेंटर के बंद कमरे में चौपाल लगाते हैं. कितनी बड़ी विडंबना है कि चौपाल का नाम लेते ही सबसे पहले एक बड़े पेड़ का ख्याल मन में आता है लेकिन खोड़ा में कोई पार्क या खाली जगह न होने के चलते हमें बंद कमरे में बच्चों की चौपाल लगानी पड़ी.”

प्राइमरी शिक्षा क्यों नहीं है राष्ट्रीय मुद्दा

साथियों संग कई वर्षों तक दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने वाली अनुपम सिंह कहती हैं कि घुमंतू समुदायों के अलावा सबसे गरीब समुदाय के लोग भी अपना परिवार साथ लेकर चलते हैं. रेलवे की पटरियों पर काम करनेवाले ऐसे हजारों परिवार हैं जिनके बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. क्या इन बच्चों के लिए सरकार की तरफ से किसी मोबाइल-स्कूल की व्यवस्था नहीं की जा सकती. दरअसल घुमंतू समुदाय और घूम-घूमकर मजदूरी करनेवाले लोग किसी के मतदाता नहीं हैं इसलिए इनके और इनके बच्चों के हितों की बातें ही नहीं होती हैं. गंदी बस्तियों में रहने के चलते बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ती है. बच्चों को अपराध करने से रोकने के लिए अच्छे आवास, अच्छी शिक्षा और उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए नीतियां बननी चाहिए लेकिन इस ओर किसी पार्टी का ध्यान नहीं है. इससे पता चलता है सरकारें या राजनीतिक पार्टियां बच्चों को लेकर कितनी असंवेदनशील और गैरजिम्मेदार हैं. ये दुखद है कि बच्चों के मुद्दे किसी दल के घोषणापत्र में नहीं हैं.

बटाई पर खेत लेकर परिवार का गुजारा करनेवाली जमुना कहती हैं कि गरीबी के चलते हम अपने बच्चो से मजदूरी करवाती हैं. एक तो मजदूरी बहुत कम मिलती है दूसरा काम भी लगातार नहीं मिलता है. फिर एक जन के कमाने से गुजारा नहीं हो सकता. अगर बच्चों की मजदूरी जितना पैसा स्कूल से छात्रवृत्ति के रूप में मिले तो हम बच्चों से मजदूरी कराने के बजाय उन्हें स्कूल भेजें.

बच्चों की चिंता किसी को है ही नहीं

मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद ने सजायाफ्ता स्त्रियों के साथ जेल की सजा भुगत रहे उनके निर्दोष बच्चों को लेकर काफी काम किया है. वो कहती हैं, “मामला सिर्फ बच्चों के वोटर न होने का नहीं है. जो वोटर हैं उनके भी मुद्दे घोषणापत्र में नहीं हैं. दरअसल बच्चे व उनके अधिकार किसी के कंसर्न में ही नहीं हैं. ना पॉलिटिकल पार्टी के और ना ही समाज के लोगों के. शोषितों का ही और शोषण किया जाता है. मां के साथ जेल में कैद बच्चों की हालत गरीब वंचित बच्चों से भी बदतर होती है. ना तो उन्हें धूप मिलती है, ना चांद तारों भरा आसमान देखने को मिलता है और ना ही खुली हवा, जबकि उन्होंने कोई अपराध भी नहीं किया होता है. इसके अलावा बच्चों को क्या पढ़ना है, क्या खेलना है इस पर हम बात ही नहीं करते. प्राइमरी शिक्षा व्यवस्था पर तो कभी बात ही नहीं होती. हर मोहल्ले में बच्चों के लिए पार्क बने, उसमें खेलने के सामान हो, हर समाज के बच्चे का नियमित हेल्थ चेकअप और सस्ता और बेहतर इलाज मिले ये राजनीतिक और सामाजिक मुद्दा बनना चाहिए.”

शेल्टर होम में हुई हैवानियत मुद्दा क्यों नहीं है

स्नातक छात्रा आंचल कहती हैं, “बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा के शेल्टर होम में हुई हैवानियत की खबरों से पूरा देश सहम उठा था लेकिन देश भर के शेल्टर होम की ऑडिट कराने की बात किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में नहीं है, ये निंदनीय और शर्मनाक है.”

बाल कहानीकार कमल कहते हैं कि 16 दिसंबर 2012 निर्भया गैंगरेप केस के बाद यौन अपराधों का पूरा पैटर्न ही बदल गया है. पिछले 4-5 वर्षों में हमें ये देखने को मिला है. कानून जब बहुत सख्त हो जाता है तो उसका खामियाजा समाज में बच्चों को झेलना पड़ता है. बलात्कार के कानून के सख्त होने के चलते अपराधी लोग अब छोटे बच्चे-बच्चियों को अपना शिकार बना रहे हैं.

कुपोषण राष्ट्रीय आपदा क्यों नहीं है

पिछले साल दिल्ली में तीन बच्चे भूख से मर गए थे. झारखंड में एक बच्ची संतोषी की भूख से मौत भी चर्चा में थी. एसोचैम व ईवाई के अध्ययन में ये बात सामने आई थी कि दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों का 50 फीसदी भारत में हैं. देश में मौजूदा समय में 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, इनमें कुपोषण के चलते 21 प्रतिशत बच्चों की लंबाई प्रभावित हुई है. पांच वर्ष के 37 प्रतिशत कम वजन के, 39 प्रतिशत की लंबाई कम है, शहरी क्षेत्रों में अतिपोषण के शिकार है. चीन और अमेरिका के बाद भारत मोटापे के मामले में तीसरे नंबर पर है.

बच्चों की सुरक्षा का मुद्दा किसी दल की प्राथमिकता क्यों नहीं है

बच्चों के लिए काम करने वाले एक नामी एनजीओ में नौकरी करने वाले कवि पंकज चौधरी कहते हैं कि वाकई ये शर्मनाक है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बच्चों की सुरक्षा का मुद्दा किसी भी राजनीतिक पार्टी की प्राथमिकता में नहीं है, उनके घोषणापत्र का हिस्सा नहीं है. जबकि हर साल देश भर से लाखों बच्चे गायब हो जाते हैं जिनमें 60 प्रतिशत तो फिर कभी नहीं मिलते. इनमें से अधिकांश का वेश्यावृत्ति, अंग तस्करी, नरबलि चढ़ाने आदि में इस्तेमाल किया जाता है. देश की 40 प्रतिशत आबादी बच्चों की है, लेकिन बच्चे एजेंडे से गायब है क्योंकि वो वोटबैंक नहीं है. लोकतंत्र और मनुष्यता के लिए इससे शर्मनाक बात और क्या होगी. पंकज चौधरी मतदाताओं से अपील करते हैं कि जो प्रतिनिधि अपने एजेंडे में बच्चों की सुरक्षा शामिल करें, उनके अधिकारों को शामिल करें, लोग उनको वोट दें.

घोषणापत्र मतदाताओं को लुभाने का एक जरिया भर होते हैं, चूंकि 0-17 आयुवर्ग के बच्चे और किशोर मतदाता नहीं है अतः किसी भी दल के चुनावी घोषणापत्र में बच्चों को लेकर कुछ भी नहीं है.


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