नए सिरे से सोचना होगा


its time to think from a new point of view

 

बहुजन समाज पार्टी ने पिछली जनवरी में जब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने का एलान किया, तो तुरंत उससे आम चुनाव में बनने वाले गणित का आकलन किया जाने लगा. लेकिन जमीन पर ये गणित कामयाब नहीं हुआ, तो मायावती ने अब गठबंधन तोड़ने का एलान कर दिया है. उसके बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा कि बसपा के साथ उनकी पार्टी के गठबंधन का प्रयोग सफल नहीं रहा, इसलिए ‘राजनीति में उनकी पार्टी का रास्ता खुला हुआ है’. तो अब दोनों पार्टियां अलग रास्ते पर जाएंगी.

लेकिन मुद्दा यह है कि ये रास्ते कहां पहुंचेंगे? लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में बीजेपी को 49.56 फीसदी वोट मिले. इतने वोट वाली पार्टी को किसी अन्य दल के लिए अलग-अलग तो दूर महागठबंधन जैसे प्रयोग के साथ भी हराना कठिन है. यह भी साफ है कि बीजेपी का इतना बड़ा वोट आधार इसलिए बना कि मतदाताओं के कई वो हिस्से भी इस बार उसके साथ चले गए, जिन्हें सपा और बसपा (या अन्य विपक्षी दलों) का ‘वोट बैंक’ समझा जाता था. सपा और बसपा के लिए विचार का सबसे बड़ा सवाल यही होना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?

अगर वे (और दूसरी पार्टियां भी) ठोस विश्लेषण करें, तो उन्हें अहसास होगा कि बीजेपी मतदाताओं के एक बड़े तबके को जातीय सियासी गोलबंदी से अलग करने में कामयाब रही. इसमें बड़ी भूमिका सोशल मीडिया (खासकर वाट्सऐप) से हो रहे चुनावी प्रचार की भी रही है. बीजेपी ने संघ परिवार के दूसरे संगठनों के साथ मिलकर इस माध्यम से ऐसे संदेश फैलाने में महारत हासिल कर ली है, जो मतदाताओं के दिमाग पर गहरा असर छोड़ता है. ऐसी परिघटनाएं दुनिया के दूसरे देशों में देखने को मिली हैं. कई राजनीतिक शास्त्रियों की यह राय है कि ऐसे प्रचार के प्रभाव के कारण atomized मतदाता अस्तित्व में आए हैं. atomized से मतलब ऐसे मतदाता से है, जो अपने समूह या समुदाय से जुड़कर नहीं, बल्कि खुद अपने सियासी रुख एवं मतदान के बारे में फैसला करते हैं.

इस परिघटना ने जातीय एवं वर्गीय आधार पर राजनीति करने वाली ताकतों/दलों के सामने एक बड़ी चुनौती पेश की है. उन्होंने जिस आधार पर अपना वोट आधार तैयार किया था, वह खतरे में पड़ गया है. दूसरी तरफ वो साधन संपन्न ताकतें और नेता फायदे में हैं, जो समाज या लोगों में पहले से मौजूद पूर्वाग्रहों या द्वेष भाव को सोशल मीडिया या मेनस्ट्रीम मीडिया के जरिए भड़काते हुए भावनात्मक संदेश फैलाने में माहिर हैं.

क्या मायावती या अखिलेश यादव ने अलग रास्ते पर जाने का फैसला करते हुए इस नई स्थिति पर गौर किया है? उनकी और ज्यादातर विपक्षी पार्टियों की दिक्कत यह है कि वे नई सामाजिक स्थितियों के मुताबिक खुद को ढालने में अक्षम दिखती हैं. वे पुराने मुहावरों और पुराने तरीकों से चिपकी हुई हैं, जबकि राजनीतिक जनमत बनाने में वे (मुहावरे और तरीके) अब कारगर नहीं हो रहे हैं. सपा और बसपा की मुश्किल यह है कि राह जुदा करते समय वे अपनी पुराने राहों पर लौटती दिखती हैं, जबकि जरूरत नए ढंग से सोचने और नया रास्ता चुनने की है.


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