भारतीय विज्ञान कांग्रेस की ढहती संकल्पना


article on history of indian science congress

 

पिछले कुछ वर्षों से भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन वैज्ञानिकों की उपलब्धियों के लिए कम विज्ञान कांग्रेस के मंच से प्रस्तुत होने वाले अतार्किक विचारों, आमंत्रित वक्ताओं और प्रतिभागियों द्वारा किए जाने वाले अतिरंजित और अवैज्ञानिक दावों के लिए अधिक चर्चा में रहे हैं. जालंधर में आयोजित हुई 2019 की विज्ञान कांग्रेस भी इसका अपवाद नहीं और वहां भी ऐसे ही अतिरंजित और बेसिरपैर के दावे किए गए. भारतीय विज्ञान कांग्रेस भारतीय वैज्ञानिकों की एक प्रतिनिधि संस्था है, जिसकी स्थापना 1914 में हुई थी.

भारतीय विज्ञान कांग्रेस की स्थापना में जिन दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, वे थे – प्रोफेसर जेएल सिमन्सेन और प्रोफेसर पीएस मैकमोहन. दोनों के अनुसार भारत में वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए यह जरूरी था कि भारत में भी ‘ब्रिटिश एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइंस’ जैसी एक संस्था हो, जो वैज्ञानिकों की वार्षिक बैठकें आयोजित करे. जहां वे अपने विचारों और वैज्ञानिक शोध के संबंध में आदान-प्रदान कर सकें.

यह भी पढ़ें- फ़िल्मी पटकथा के अंदाज़ में इमरजेंसी की कहानी

भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्देश्यों में निम्न बातें शामिल थीं:- भारत में विज्ञान को बढ़ावा देना और इस दिशा में हरसंभव प्रयास करना; विज्ञान कांग्रेस का कार्य-विवरण प्रकाशित करना और विज्ञान से जुड़ी हुईं पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करना; विज्ञान के प्रचार-प्रसार हेतु आर्थिक अनुदान की व्यवस्था करना आदि.

भारतीय विज्ञान कांग्रेस की पहली बैठक 15-17 जनवरी, 1914 के दौरान कलकत्ता की एशियाटिक सोसाइटी के तत्त्वाधान में हुई. कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति सर आशुतोष मुखर्जी इसके पहले सभापति थे. भारतीय विज्ञान कांग्रेस के पहले वार्षिक अधिवेशन में कुल 105 वैज्ञानिकों ने भाग लिया.

यहां मैं ठीक सत्तर वर्ष पूर्व जनवरी 1949 में इलाहाबाद में आयोजित हुई भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 36वें अधिवेशन की याद दिलाना चाहूंगा. इस अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू ने स्वागत भाषण दिया था. 3 जनवरी, 1949 को इस मौके पर नेहरू के साथ सर के.एस. कृष्णन, सरोजिनी नायडू और गोविंद वल्लभ पंत भी मौजूद थे. प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी केएस कृष्णन सीवी रमन के सहयोगी रहे थे और इंडियन एसोसिएशन ऑफ कल्टीवेशन ऑफ साइंस से जुड़े रहे थे. राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला का पहला निदेशक बनने से पूर्व वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रोफ़ेसर भी रहे थे.

यह भी पढ़ें- क्या संघ की संस्कृति वाकई में भारतीय संस्कृति है?

विज्ञान में नेहरू की रुचि तो जगजाहिर ही है, भारतीय विज्ञान कांग्रेस से भी उनका गहरा संबंध रहा था. 1938 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के रजत जयंती अधिवेशन में नेहरू ने अपना संदेश भेजा था. उन्हें 1943 में कलकत्ता में आयोजित होने वाली विज्ञान कांग्रेस का सभापति चुना गया था, पर उस वक़्त जेल में होने के कारण नेहरू उस अधिवेशन में भाग नहीं ले सके थे. चार वर्ष बाद नेहरू ने दिल्ली में आयोजित विज्ञान कांग्रेस की चौतीसवें अधिवेशन की अध्यक्षता की.

इलाहाबाद में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के अधिवेशन में अपने स्वागत भाषण के आरंभ में नेहरू ने भारत सरकार की ओर से वैज्ञानिक समुदाय को आश्वस्त किया कि सरकार वैज्ञानिकों के कार्यों में पूरी रुचि ले रही है. निजी तौर पर इलाहाबादवासी के रूप में नेहरू ने इस बात पर खुशी जाहिर की कि विज्ञान कांग्रेस का अधिवेशन उनके अपने शहर में हो रहा है. इसी क्रम में उन्होंने इलाहाबाद के बौद्धिक परिवेश, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, गंगा-यमुना की भी चर्चा की. नेहरू ने वैज्ञानिक सीवी रमन को उनके 60वें जन्मदिन की बधाई दी और यह उम्मीद जताई कि वे विज्ञान और भारत को अपनी सेवाएं देते रहेंगे.

वैज्ञानिक शोध पर बल देते हुए नेहरू ने कहा कि सरकार विज्ञान की प्रगति के हरसंभव अवसर उपलब्ध कराएगी. विज्ञान को अधिक समावेशी बनाने और सभी को विज्ञान के क्षेत्र में अवसर देने के साथ ही नेहरू ने भारत में वैज्ञानिक शोध की गुणवत्ता पर भी ज़ोर दिया.

साथ ही, विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक और आधारभूत शोधकार्य करने हेतु वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित किया. नेहरू ने कहा कि विज्ञान समेत ज्ञान के तमाम इदारों में काम कर रहे लोगों को पूरी स्वतन्त्रता और स्वायत्तता मिलनी चाहिए. सफलता-असफलता की परवाह किए बगैर वैज्ञानिकों को दिया गया प्रोत्साहन ही भविष्य में महान वैज्ञानिक खोजों की राह प्रशस्त करेगा.

भारत और दुनिया के सामने मौजूद समस्याओं में नेहरू ने ख़ासकर आर्थिक समस्याओं को सबसे बुनियादी समस्या माना और वैज्ञानिकों से अनुरोध किया कि वे इन समस्याओं को हल करने का प्रयास करें. ये समस्याएं निरपेक्ष होकर वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक ढंग से ही हल की जा सकती थीं.

यह भी पढ़ें- महाभारत और संस्कृत को लेकर नेहरू की क्या थी राय?

बीसवीं सदी को ‘संक्रमण काल’ बताते हुए नेहरू ने औद्योगिक सभ्यता पर मंडराते उस संकट को भी रेखांकित किया, जो दो विश्वयुद्धों में खुलकर सामने आया था. इस संकट में वैज्ञानिकों की भी भूमिका रही थी और विज्ञान की उत्कृष्ट उपलब्धियों का इस्तेमाल भी अमानवीय कार्यों में किया गया था. नेहरू का कहना था कि वैज्ञानिकों समेत सभी विद्वानों को इस संकट के समाधान के बारे में विचार करना चाहिए. कारण कि इसके व्यापक और दूरगामी परिणामों से कोई भी अछूता नहीं रहेगा.

इस क्रम में नेहरू ने वैज्ञानिकों में मानव इतिहास और मानव सभ्यता की विकास यात्रा की ऑर्गेनिक नॉलेज विकसित करने पर ज़ोर दिया. उन्होंने वैज्ञानिकों को मानव समाज और विज्ञान के परस्पर निर्भर अंतरसम्बन्धों को समझते हुए वैश्विक समस्याओं को परिप्रेक्ष्य में देखने का आग्रह किया. नेहरू का मानना था कि विशेषज्ञता का अपना महत्त्व है, पर मानव-समाज की इन मूलभूत समस्याओं को व्यापक मानवीय और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखकर ही हल किया जा सकता था.

ज्ञान-विज्ञान के तमाम इदारों के बीच समन्वय के साथ ही उन्होंने सामाजिक-आर्थिक संतुलन स्थापित करने की भी बात कही. उन्होंने विज्ञान की सृजनात्मक शक्तियों पर जोर देते हुए वैज्ञानिकों को सृजन और विश्व-निर्माण की दिशा में कार्य करने हेतु प्रेरित किया. साथ ही, नेहरू ने वैज्ञानिकों से वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ दार्शनिक सोच विकसित करने का अनुरोध किया क्योंकि इसी से मानव-समाज की समस्याओं को समझकर विज्ञान का इस्तेमाल उन्हें हल करने में किया जा सकता था.

(शुभनीत कौशिक इतिहास के शिक्षक हैं और आधुनिक भारत के इतिहास में गहरी दिलचस्पी रखते हैं.)


Big News