झारखंड: बीजेपी की राह में कांटे ही कांटे


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झारखंड में चुनाव की उल्टी गिनती शुरू है. 29 अप्रैल को बीजेपी के कब्जे वाली तीन संसदीय सीटों लोहरदगा, पलामू और चतरा के लिए चुनाव होना है. प्रचार के मामले में बीजेपी आगे है. इस वजह से घर घर मोदी पहुंच चुके हैं. लेकिन ‘हर हर मोदी’ का शोर गांवों में बीते चुनाव की तरह नहीं है. शहरी मतदाताओं में ‘फिर एक बार मोदी सरकार’ जुबान पर है तो गांवों में ‘गरीबी पर वार 72 हजार’ वाला नारा देर से सही, मतदाताओं की जुबान पर आ चुका है. हालांकि किसी भी दल के पक्ष में कोई लहर नहीं है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोड शो और आमसभा करके लौट चुके हैं. इससे जुड़ी खबरें अखबारों की बड़ी सुर्खियां बनीं हैं. उदासीन कार्यकर्ता उत्साहित दिख रहे हैं. हालांकि संगठन का अंतर्कलह अपनी जगह बना हुआ है.

लोहरदगा और पलामू में कांटे की टक्कर

राष्ट्रीय मुद्दों से लेकर स्थानीय मुद्दों, जातीय समीकरणों और दलों के अंतर्कलह के बीच मतदाताओं के मिजाज का अवलोकन से ऐसा लगता है कि 14 संसदीय सीटों वाले झारखंड के इन तीन सीटों में एक चतरा को छोड़ दें तो बाकी दोनों सीटों पर बीजेपी और विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशियों के बीच सीधा और कांटे का मुकाबला होना है.

झारखंड के मतदाताओं में 27 फीसदी अनुसूचित जनजाति (आदिवासी), 12.6 फीसदी अनुसूचित जाति, 14 फीसदी मुस्लिम और 4.5 फीसदी ईसाई हैं. ये वैसे मतदाता हैं, जो अलग-अलग कारणों से बीजेपी से बेहद नाराज हैं. आदिवासियों में सरना आदिवासी यानी गैर ईसाई आदिवासियों की संख्या ज्यादा है. बीजेपी ने इनके बीच पैठ बनाई थी. लेकिन अलग धर्म कोड की मांग के उनके आंदोलन को जब आरएसएस ने अस्वीकार कर दिया तो वे आंदोलित हो उठे हैं और बीजेपी से नाराज दिख रहे हैं. विपक्षी गठबंधन के दलों में अंतर्कलह मतदाताओं की बीजेपी से नाराजगी का लाभ लेने देने में बड़ा बाधक है. लेकिन संतुलन इस बात से है कि बीजेपी में भी कलह कम नहीं है. दूसरी बात यह कि सत्ता विरोधी मतदाता चुनाव चर्चाओं से दूर जरूर हैं. लेकिन वोट खराब न होने पाए, इस बात को लेकर सतर्क भी है. दूसरी ओर शहरी मतदाताओं में वोट डालने को लेकर आमतौर पर उत्साह नहीं देखा जा रहा है.

विपक्षी दलों से सीधा मुकाबला

लोहरदगा संसदीय क्षेत्र के प्रत्याशी और केंद्रीय मंत्री सुदर्शन भगत का सीधा मुकाबला विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी और कांग्रेस के नेता सुखदेव भगत से है. उनका यह तीसरा चुनाव है. वह पहली बार साल 2009 और दूसरी बार साल 2014 में इसी संसदीय क्षेत्र से बेहद मामूली अंतर से चुनाव जीत चुके हैं. केंद्रीय मंत्री होते हुए भी अपने क्षेत्र में पर्याप्त समय देते रहे हैं. इसलिए व्यक्तिगत रूप से उनसे नाराजगी नहीं दिखती. लेकिन मुख्य रूप से छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 (सीएनटी) और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम-1949 (एसपीटी) में संशोधन, जल, जंगल और जमीन के मुद्दे और बेरोजगारी के मुद्दे बीजेपी के अनेक मुद्दों की आभा कमजोर करते दिखते हैं. चुनावी समीकरण ऐसा है कि यह चुनाव बीते चुनावों से ज्यादा कठिन जान पड़ता है.  इस बार विपक्षी गठबंधन की वजह से सीधा मुकाबला होना है. बीते दोनों ही चुनावों में कांग्रेस के लिए कांटा बनने वाले चमरा लिंडा अब झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) से विशुनपुर के विधायक हैं और जेएमएम विपक्षी गठबंधन का एक महत्वपूर्ण घटक दल है.

अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित लोहरदगा संसदीय क्षेत्र के तहत पांच विधानसभा क्षेत्र हैं, लोहरदगा, गुमला, मांडर, सिसई और विशुनपुर. ये सभी विधानसभा क्षेत्र भी एसटी समुदाय के लिए आरक्षित हैं. विपक्षी गठबंधन से कांग्रेस के खाते गई लोहरदगा सीट के लिए प्रत्याशी सुखदेव भगत लोहरदगा के विधायक हैं. नौकरशाही से राजनीति में गए सुखदेव भगत कभी लोहरदगा के बीडीओ थे और आज वह राज्य में कांग्रेस के कद्दावर नेता हैं.

टिकट पाने की रेस में जीते सुखदेव भगत

सुखदेव भगत प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं. इस दौरान जनता से ऐसा सरोकार बनाया कि चुनावों में किसी भी दल की जीत-हार के लिए महत्वपूर्ण फैक्टर बनकर उभरे. दिसबंर 2015 में लोहरदगा विधानसभा क्षेत्र के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में चुनाव मैदान में उतरे और आजसू पार्टी के नीरू शांति भगत को 23, 288 मतों से पराजित कर दिया था.

चुनाव जीतने के लिए अनेक समीकरणों के पक्ष में होते हुए भी झारखंड की अनेक सीटों की तरह ही यह सीट विपक्षी गठबंधन के किस दल के खाते में डाले जाएं, इस बात को लेकर विवाद था. विशुनपुर से जेएमएम के विधायक चमरा लिंडा कभी इस सीट को कांग्रेस के खाते में देने के पक्ष में नहीं रहे. वे खुद ही चुनाव लड़ना चाहते थे. लेकिन जब सीट कांग्रेस के खाते में गई तो मुख्य रूप से तीन नेताओं ने पूर्व आईपीएस अधिकारी और साल 2004 में कांग्रेस की टिकट पर जीते डॉ रामेश्वर उरांव, विधायक सुखदेव भगत और पूर्व आईपीएस अधिकारी और छत्तीसगढ़ कांग्रेस के सह प्रभारी डॉ अरूण उरांव ने दावेदारी कर दी. लेकिन सुखदेव भगत जनता के बीच सक्रियता और जातीय समीकरणों की वजह से भारी पड़े. डॉ उरांव का लगातार दो बार हारना उनके खिलाफ गया.

मुख्यमंत्री रघुवर दास ने विधायकों को चेताया

बीजेपी के प्रत्याशी को मोदी मैजिक के अलावा अपने दल के तीन विधायकों की वजह से जीत का भरोसा बढ़ा हुआ है. मुख्यमंत्री रघुवर दास ने विधायकों को चेता रखा है कि उनके क्षेत्र में बीजेपी प्रत्याशी को बढ़त नहीं मिली तो विधानसभा चुनाव के वक्त मुश्किलें बढ़ सकती हैं. यानी टिकट काटा जा सकता है. पांच विधानसभा क्षेत्रों वाले इस संसदीय क्षेत्र की तीन विधानसभा सीटों गुमला, मांडर और सिसई पर बीजेपी का कब्जा है. लोहरदगा और विशुनपुर सीटों पर क्रमश: कांग्रेस और जेएमएम का कब्जा है. मुख्यमंत्री की चेतावनी बीजेपी प्रत्याशी के लिए आरामदायक स्थिति है.

उधर विपक्षी गठबंधन के प्रत्याशी सुखदेव भगत स्थानीय स्तर पर विधायक चमरा लिंडा, पूर्व विधायक और बाबूलाल मरांडी की अगुवाई वाली झारखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) के नेता बंधु तिर्की का साथ मिलने की उम्मीद से उत्साहित हैं. वैसे, यह चर्चा आम है कि चमरा लिंडा गठबंधन के लिए दिल से काम नहीं कर रहे हैं. कुल मिलाकर जैसा समीकरण बना है, बीजेपी के सुदर्शन भगत और कांग्रेस के सुखदेव भगत के बीच सीधा और कांटे का मुकाबला है.

पलामू की छह विधानसभा सीटों में चार पर बीजेपी का कब्जा 

अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पलामू संसदीय क्षेत्र में बीजेपी के निवर्तमान सांसद विष्णु दयाल राम का सीधा मुकाबला विपक्षी गठबंधन से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के प्रत्याशी और पूर्व सांसद घूरन राम के साथ होना है. 1973 बैच के आईपीएस अधिकारी वीडी राम झारखंड के पुलिस महानिदेशक के पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद बीजेपी में शामिल हो गए थे और 2014 के मोदी लहर में पलामू से जीतकर संसद पहुंचे थे. उन्होंने आरजेडी के पूर्व सांसद मनोज कुमार को 2,63,942 मतों के भारी अंतर से पराजित किया था. तब घूरन राम आरजेडी का टिकट न मिलने से नाराज होकर जेवीएम में चले गए थे. उन्हें 1,56,832 वोट मिले थे.

मनोज कुमार 2004 में चौदहवीं लोकसभा के लिए सांसद बने थे. लेकिन उन्हें ऑपरेशन दुर्योधन में घूस लेते हुए दिखाए जाने के बाद संसद से बर्खास्त कर दिया गया था. इस वजह से उप चुनाव हुआ तो उनकी जगह घूरन राम आरजेडी के प्रत्याशी बनाए गए और वे जीत भी गए थे. मनोज कुमार इस बार भी टिकट के दावेदार थे. लेकिन संसद की सदस्यता गंवाने के बाद छत्तरपुर से विधानसभा के चुनाव में हार के कारण उनकी दावेदारी कमजोर पड़ गई. पार्टी ने बदले राजनीतिक समीकरणों के लिहाज से घूरन राम को ज्यादा उपयुक्त माना और उन्हें मैदान में उतार दिया गया. स्थानीय राजनीति के जानकारों का मानना है कि अपने दल के भीतर घूरन राम को मनोज कुमार से नहीं बल्कि पूर्व सांसद कामेश्वर बैठा से खतरा हो सकता है. इसलिए कि बैठा भी टिकट के प्रबल दावेदार थे.

पलामू संसदीय क्षेत्र के तहत छह विधानसभा क्षेत्र हैं. इनमें से चार विधानसभा सीटों डालटेनगंज, विश्रामपुर, छत्तरपुर और गढ़वा पर बीजेपी का कब्जा है. बची दो सीटों भवनाथपुर पर निर्दलीय भानुप्रताप शाही और हुसैनाबाद पर बहुजन समाज पार्टी के कुशवाहा शिवपूजन मेहता का कब्जा है. मोदी की प्रतिष्ठा और मुख्यमंत्री की चेतावनी के आलोक में यह स्थिति बीडी राम के लिए आरामदायक होनी चाहिए.  राजनीतिक प्रेक्षकों की मानें तो ऊपरी तौर पर दिखने वाले फूल, कांटों से कम नहीं. चार में से तीन विधायक आलोक कुमार चौरसिया, रामचंद्र चंद्रवंशी और सत्येंद्रनाथ तिवारी दिल से अपने सांसद के साथ नहीं हैं.

स्थानीय मुद्दे बीजेपी पर भारी

दूसरी तरफ स्थानीय मुद्दे बीजेपी के पक्ष के तमाम समीकरणों पर भारी है. देश के 250 सर्वाधिक पिछड़े जिलों में पलामू निचले पायदान पर है. आजीविका का बड़ा साधन कृषि है. साल दर साल सूखा पड़ने और सिंचाई सुविधाओं के अभाव की वजह से ऐसी स्थिति बनी हुई है. लोग पेट की आग बुझाने के लिए पलायन करने को मजबूर हैं. बीजेपी ने वर्षों से लंबित मंडल डैम का नए सिरे से काम का उद्घाटन प्रधानमंत्री से करवा कर किसानों को लुभाने की कोशिश की है. दरअसल यह डैम पलामू के साथ ही लोहरदगा संसदीय क्षेत्र के लिए भी मायने रखता है. हालांकि मतदाताओं में ज्यादा भरोसा नहीं बन पाया है. सवाल अपनी जगह है कि बीजेपी इस डैम को लेकर ईमानदार थी तो पांच वर्षों तक क्या करती रही?

चतरा में त्रिकोणीय संघर्ष

नक्सल प्रभावित चतरा झारखंड का इकलौता संसदीय सीट है जहां विपक्षी गठबंधन टूट चुका है. वहां विपक्षी गठबंधन के दो घटक दलों कांग्रेस और आरजेडी के प्रत्याशी मैदान में हैं. यह एकमात्र समीकरण बीजेपी के सांसद सुनील सिंह के पक्ष में है. बीजेपी के प्रत्याशी सुनील सिंह, कांग्रेस के प्रत्याशी मनोज यादव और आरजेडी के प्रत्याशी सुभाष यादव के बीच तिकोना मुकाबला है. केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह बीजेपी के पक्ष में प्रचार करके जा चुके हैं. लेकिन बीजेपी के कार्यकर्त्ताओं में उत्साह का संचार न हो सका है.

दरअसल, चुनाव जीतने के बाद से लगातार क्षेत्र से बाहर रहना और स्थानीय समस्याओं को लेकर बेरूखी सुनील सिंह के लिए महंगा साबित हो रहा है. आलम यह है कि नामांकन कराने चतरा गए मुख्यमंत्री खुद जनता और कार्यकर्त्ताओं से माफी मांग चुके हैं. सुनील सिंह भी माफी मांगते चल रहे हैं और वायदा कर रहे हैं कि भविष्य में ऐसा नहीं होगा. आलम यह है कि वह वोट मांगने में कम, माफी मांगते ज्‍यादा समय गंवा रहे हैं. वह अपने भाषणों में विकास संबंधी मुद्दों पर कम, मोदी जी को प्रधानमंत्री बनाने पर ज्यादा बोलते हैं. विपक्षी महागठबंधन दरक जाना ही बीजेपी के लिए उम्मीद की किरण है. चुनाव संचालन में जुटे बीजेपी के नेताओं को भरोसा है कि त्रिकोणीय संघर्ष बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा.

चतरा में बीजेपी के बागी नेताओं की नाराजगी

चुनाव से ऐन पहले जेवीएम से बीजेपी में शामिल हुईं नीलम देवी का रूख भी बीजेपी प्रत्याशी का भविष्य तय करेगा. बीते 21 मार्च को नीलम देवी तामझाम के साथ बीजेपी में शामिल हुई थीं. उम्मीद थी कि उन्हें चतरा से प्रत्याशी बनाया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. उनके समर्थकों के मुताबिक नीलम देवी हर हाल में सीट निकालने की स्थिति में थीं. उन्हें तो बीएसपी भी टिकट देने को तैयार थी. लेकिन बीजेपी के बड़े नेताओं के आग्रह में इस दल में शामिल हो गईं. कार्यकर्ताओं की बातों से जाहिर है कि सुनील सिंह के लिए उनकी शक्ति का इस्तेमाल शायद ही हो पाएगा.

पिछले लोकसभा चुनाव में नीलम जेवीएम के टिकट पर चुनावी दंगल में थीं. वह एक लाख चार हजार वोट लाकर तीसरे स्थान पर रही थीं. दूसरी तरफ बीजेपी के बड़े नेताओं में शुमार राजेंद्र साहु की बगावत क्या रंग लाएगी, यह भी देखने वाली बात होगी. वह सुनील सिंह को टिकट मिलने से नाराज हैं और निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनावी मैदान में हैं.

कुल मिलाकर बीते पांच सालों में लोहरदगा, पलामू और चतरा में हवा का रूख इस तरह बदला है कि बीजेपी को अपनी इन तीन सीटों को बचाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ रही है.


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