जेएनयू छात्र संघ चुनाव: एक बार फिर लोकतांत्रिक संस्कृति की जीत
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय अपनी शैक्षणिक उत्कृष्टता के लिए तो पूरे विश्व में प्रसिद्ध है ही लेकिन हाल ही के वर्षो में यह कई तरह की साजिशों और कुप्रचार के चलते भी खबरों में रहा है. इसी विश्वविद्यालय के छात्र संघ चुनाव की प्रक्रिया पर न केवल छात्र बल्कि शिक्षक, शिक्षाविद, राजनेता और आम जन व्याकुलता के साथ नजर लगाए बैठे थे. अभी आधिकारिक तौर पर परिणाम की घोषणा नहीं की गई है क्योंकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक निर्देश के माध्यम से विश्वविद्यालय को 17 सितंबर तक छात्र चुनाव परिणामों को सूचित करने से प्रतिबंधित कर दिया है लेकिन वामपंथ की जीत पक्की हो चुकी है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों, चाहे वह किसी भी राजनितिक विचार से संबंध रखते हो, को प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपनी विशेष जनवादी चुनाव प्रक्रिया की सफलतापूर्वक रक्षा करने की बधाई दी जानी चाहिए. यह महत्वपूर्ण है कि इस परिसर में सबसे अधिक लोकतांत्रिक चुनाव तंत्र है, जो किसी भी विश्वविद्यालय परिसर में दूसरी जगह नहीं देखा जाता है.
इस प्रक्रिया में छात्र सबसे पहले अपने लिए एक चुनाव समिती का गठन करते हैं जो पूरे चुनाव को संचालित करती है. चुनावी प्रक्रिया में किसी स्तर पर प्रशासनिक हस्तक्षेप के लिए कोई जगह नहीं है, हालांकि इस वर्ष प्रशासन ने चुनाव प्रक्रिया में व्यवधान डालने के भरपूर प्रयास किए थे. विभिन्न अवसरों पर, प्रशासन द्वारा चुनाव को बाधित करने और लगातार प्रभावित करने के प्रयास किए गए थे. चुनाव समिति को वेवजह प्रताड़ित व लगातार परेशान किया गया. इस अनचाहे हस्तक्षेप की हद तो तब हो गई जब डीन ऑफ स्टूडेंट और एसोसिएट डीन ने नैतिक आचरण का उल्लंघन करते हुए मतगणना हॉल में प्रवेश किया और चुनाव समिति को धमकाया. छात्रों के चुनाव समिति और चुनाव प्रक्रिया के भरपूर समर्थन का ही परिणाम था कि इस चुनाव में पिछले कुछ वर्षो में सबसे ज्यादा मतदान (67.9 प्रतिशत) हुआ.
छात्रों ने बखूबी अपनी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की रक्षा की और इस जनादेश के जरिए प्रशासन को एक स्पष्ट संदेश दिया. प्रशासन अभी भी बाज नहीं आ रहा है. पहले तो उसने दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश का हवाला देते हुए मतगणना में विलंब करवाया अब लिंगदोह कमिटी का हवाला देते हुए इसी विलंब को आधार बना कर चुनाव निरस्त करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में हलफनामा दिया है. नए घटनाक्रम में सामने आया है कि चुनाव समिति के खिलाफ ही प्रशासन ने कार्यवाही शुरू कर दी है. लेकिन जहाँ तक छात्रों की बात है उन्होंने अपना नेतृत्व चुन लिया है, अब मजबूती के साथ इसके साथ खड़े रहेंगे.
जेएनयू छात्र संघ चुनाव जैसा की बाहर से दिखता है कोई साधारण चुनाव नहीं था. एबीवीपी ने अपनी चिरपरिचित विशिष्ट चुनावी कार्यशैली को अपनाया, जिसका वह अन्य राज्य विश्वविद्यालयों में अनुसरण करते हैं. एबीवीपी ने इस चुनाव में विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ नजदीकी तालमेल में काम किया. उसके पास छात्रों से संबंधित पूरे डेटा का नियंत्रण था. प्रशासन ने अन्य भी कई तरह के फैसले एबीवीपी के पक्ष में लिए जिससे कि नए छात्रों में यह संदेश जाए कि परिसर में इस संगठन का प्रभाव है.
छात्रों की क्षेत्रीय और सामाजिक पृष्ठभूमि के आधार पर, बीजेपी के सांगठनिक ढांचे का प्रयोग करते हुए उनके परिजनों को स्थानीय और निर्वाचित नेताओं से संपर्क करवाया गया. अपने रसूख का उपयोग कर इन नेताओं ने परिवारजनों से कहा कि वह अपने बच्चो (छात्रों) को एबीवीपी के पक्ष में वोट करने के लिए प्रेरित करें. प्रशिक्षित व निपुण बीजेपी आईटी सेल के हथकंडो का भी छात्र संघ चुनाव में इस्तेमाल किया गया . मतदान की पूर्व संध्या पर छात्रों को एबीवीपी के पक्ष में वोट करने की अपील के साथ विभिन्न तरह के संदेश मिले. इस तरह गहराई से देखे तो यह चुनाव छात्र संगठनो के बेच नहीं अपितु छात्र संगठनों के विभिन्न गठबंधनों और एबीवीपी, विश्वविद्यालय प्रशासन, बीजेपी और केंद्र सरकार की मशीनरी के विशाल गठबंधन के बीच था.
इस सब के वावजूद भी अगर चुनाव के रुझानों पर गौर करें तो वामपंथी छात्र संगठनों का गठबंधन भारी मतों के अंतर से जेएनयूएसयू चुनाव जीत रहा है. हालाँकि चुनाव समिति ने तय किया था कि केंद्रीय पैनल के लिए अंतिम 150 मतों और कौंसिलर के लिए अंतिम 50 मतों के रुझानों को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि वाम पैनल के सभी उम्मीदवार 1100 मतों से अधिक के बड़े अंतर से जीत रहें है. एबीवीपी का पूर्ण सफाया असल में बीजेपी और आरएसएस की राजनैतिक व वैचारिक हार है.
ऐसा इसलिए क्योंकि जेएनयू में छात्र संघ चुनाव आर्थिक नीतियों, राजनीति और विचारधारा की बुनियादी बहस पर लड़ा गया था. इसका यह मतलब नहीं है कि छात्र और शैक्षिणिक मुद्दे चुनाव प्रचार से गायब थे. वास्तव में, इन मुद्दों पर, परिसर में छात्रों के बीच एकमत राय व साझी समझ है कि बीजेपी नेतृत्व की केंद्र सरकार के पिछले पांच वर्षों का कार्यकाल छात्र और शिक्षा विरोधी रहा है. बीजेपी के दिशा निर्देश में कुलपति द्वारा लिए गए छात्र विरोधी निर्णयों की एक लंबी फेहरिस्त है जिससे जेएनयू के छात्र विशेष तौर पर वंचित तबको के छात्र बड़े स्तर पर प्रभावित हुए है. परिसर में छात्र संघ के नेतृत्व में छात्र समुदाय इन नीतियों के खिलाफ निरंतर सयुंक्त संघर्ष में रहे है. वो बात अलग है कि इन सभी निर्णयों पर कुलपति को एबीवीपी का पूर्ण समर्थन मिला है. इसलिए छात्रों और शिक्षा के मुद्दे पर, एबीवीपी के पास छात्रों से अपील करने के लिए कुछ भी नहीं है.
जेएनयू सामान्य तौर पर चर्चा-परिचर्चा के लिए जाना जाता है. चुनाव के दौरान कौंसिलर और पैनल उम्मीदवारों की विभिन्न मुद्दों पर बहस और चर्चा भी इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. चुनाव प्रक्रिया के शुरुआती दौर में निवर्तमान छात्र संघ के पार्षद और पदाधिकारी, विभिन्न विभागों व केंद्रीय आम सभा में अपने काम का ब्यौरा रखते है. इस रिपोर्ट पर तीखी बहस होती है व छात्र प्रश्न पूछते है. इस प्रस्तावित रिपोर्ट को ठोस चर्चा के बाद खुली वोटिंग के माध्यम से पारित या खारिज किया गया है.
चुनाव के अगले चरण में उम्मीदवारों को आम सभा में अपनी और अपने संगठन की समझ प्रस्तुत करनी पड़ती है. यह केवल एक तरफा भाषण नहीं होते बल्कि छात्र उम्मीदवारों से प्रश्न पूछते हैं. इस प्रक्रिया में उम्मीदवार किसी विषय पर अपनी राय देने में बच नहीं सकते हैं, जैसा हमारे माननीय प्रधानमंत्री सामान्यतः करते हैं, जब वह पत्रकार सम्मेलन में नहीं जाते, प्रश्नों से बचते हैं और केवल चुनिंदा विषयों पर बोलते हैं या फिर पहले से ही लिखित साक्षात्कार के लिए कुछ चुनिंदा टीवी चैनलों पर ही जाते हैं. इस प्रकार छात्र संगठन अपनी सामाजिक, आर्थिक मुद्दों व विचारधारा के आधार पर चुनाव लड़ते हैं. यह मुद्दे नई शिक्षा नीति से लेकर, सामाजिक न्याय से होते हुए संविधान की धारा 370 तक हो सकते हैं. इसलिए छात्रों ने इस जनादेश के जरिए केन्द्र सरकार की आर्थिक नीतियों व आरएसएस की हिन्दुत्व भी राजनीति को हराया है, परिसर में इन नीतियों की झंडाबरदार एबीवीपी का पूरा सफाया करके.
चुनावी नतीजों के परिसर में एक ओर बहस के उत्तर के रूप में भी देखा जाना चाहिए. वह चर्चा है कि सामाजिक न्याय की लड़ाई का रास्ता क्या होगा क्योंकि इस चुनाव में तथाकथित सामाजिक न्याय की ध्वजावाहक बापसा (BAPSA) ने फ्रेटरनिटी (जमाइत का एक छात्र संगठन) के साथ गठबंधन किया था. पूरी चुनावी प्रक्रिया में इस गठबंधन ने वाम छात्र उम्मीदवारों और वाम समझ की कठोर अलोचना की. अलोचना की पराकाष्ठा ही कही जा सकता है कि वाम को दक्षिण पंथ के बराबर करार देते हुए ‘भगवा लाल एक समान’ का नारा प्रचारित किया.
हालांकि कि यह सुनने में अटपटा लगता है कि सामाजिक न्याय का वास्ता देने वाली बापसा ने सांप्रदायिक कट्टरपंथी फ्रेटरनिटी से गठबंधन किया, फिर भी उनके भ्रामक प्रचार ने कुछ छात्रों में अपनी पकड़ बना ली. वाम के कट्टर विरोधी संशोधनवादी बुद्धिजीवियों ने निस्संदेह इस प्रचार को आगे बढ़ाया. छात्रों द्वारा इस गठबंधन को खारिज किए जाने के भी स्पष्ट संकेत है.
सामाजिक न्याय का विचार साम्प्रदायिक विचार के साथ खड़ा हो ही नहीं सकता और अगर कोई संगठन केवल चुनावी लाभ के लिए ऐसा करता है तो उसका असली चेहरा छात्रों में बेनकाब हो जाता है, ऐसा ही जेएनयू में हुआ. सामाजिक न्याय की लड़ाई तो हर तरह के साम्प्रदायिक विचार के खिलाफ निरंतर वैचारिक संघर्ष व वंचित तबकों के ठोस मुद्दों पर धरातल पर संघर्ष के जरिए लड़ी जा सकती है.
यह जेएनयू की संस्कृति की एक विशेषता है गंभीर मुद्दों पर ठोस और तीखी बहस केवल शब्दों तक सीमित रहती है, गर्म माहौल में भी कभी हिंसा में नहीं बदलती. चर्चा का मूल्यांकन तर्कों की गहराई व तथ्यों की सत्यता के आधार पर होता है न कि बहस में ऊँचे स्वर से. लेकिन पिछले वर्ष और इस वर्ष भी चुनाव में हिसा की घटनाएं सामने आई हैं जिनमें एबीवीपी शामिल रही हैं हिंसा की यह घटनाएं कोई स्वरस्फूर्त नहीं हो रही बल्कि जेएनयू की बाद विवाद भी संस्कृति पर एक सुनियोजित हमला है.
इतिहास गवाह है कि सांप्रदायिक व तानाशाही विचार को तार्किक बहस व परिचर्चा का वातावरण कभी रास नहीं आता और संस्कृति खत्म करने के लिए हिंसा का सहारा लेती हैं. यह कोई अलग प्रक्रिया नहीं है बल्कि देश में जो हो रहा है उसी प्रक्रिया का जेएनयू परिसर में प्रतिबिम्ब दिखा रहा है. भारत में सरकार ही अपने नागरिकों को किसी भी प्रकार की सृजनात्मक व तार्किक चर्चा की प्रक्रिया का हिस्सा बनने से रोकने के लिए विभिन्न तरह के हिंसक हथकंडों का सहारा ले रही है. यह जेएनयू में जनवादी संस्कृति पर एक बहुत बड़ा हमला है. हिंसा की घटनाओं के जरिए छात्रों को असल मुद्दों पर चर्चा से दूर किए जाने का प्रयास है. परन्तु छात्रों के अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए इन ताकतों को हराकर अपनी विशिष्ट संस्कृति का बेहतरीन बचाव किया व भविष्य में भी करते रहेंगे.
इस चुनाव में ’नोटा’ की बढ़ती संख्या भी चर्चा का सबब है. एक ऐसे परिसर में जो बड़े स्तर पर राजनीतिक है, वहां छात्रों द्वारा बड़ी सख्या में ’नोटा’ का चुनाव चिंतनीय हैं. यह परिसर के गैर-राजनीतिकरण की तरफ बढ़ने के संकेत हैं. दूसरे परिसरों में यह छात्रों के कुछ समूहों या विभागों द्वारा चुनाव के बहिष्कार के रूप में सामने आता है. छात्र संगठनों को इस ओर भी गंभीरता से ध्यान देना होगा.